संजय लीला भंसाली, मुझे आप से सहानुभूति है । सहानुभूति इस लिए कि फ़िल्म पद्मिनी के शूटिंग के समय आप से अभद्रता हुयी और आप के लोगों के साथ मारपीट हुयी । कानून का शासन इस बात की इजाज़त नहीं देता कि उसे हर कोई हाँथ में ले कर उसका दुरुपयोग करे । उन गुंडों और असामाजिक तत्वों के विरुद्ध सरकार और पुलिस को कानूनी कार्यवाही ज़रूर करनी चाहिये । पर इस आक्रोश के कारणों की पड़ताल करना भी ज़रूरी है । आप चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी पर फ़िल्म बना रहे हैं । यह चरित्र भारतीय मानस में बहुत गहरे पैठा हुआ है । चित्तौड़ का विशाल दुर्ग आप ने ज़रूर देखा होगा । दूर से ही उसका विजय स्तम्भ अतीत के स्वर्ण काल में पहुंचा कर गर्वोंनत कर देता है । एक कहावत भी प्रचलित है कि, चित्तौड़ गढ़ गढ़ा और और गढ़ गढ़ैया ! पद्मिनी ने सैकड़ों महिलाओं के साथ उस किले में जौहर किया था, ताकि बहादुर राजपूत सैनिक उनसे चिंता मुक्त हो कर रण क्षेत्र में दुश्मन से जूझ सकें । जौहर सामूहिक रूप से जलती आग में कूद कर अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना होता था । यह एक आपात परम्परा थी । चित्तौड़ में उस समय युद्ध का ही माहौल था । अलाउद्दीन ख़िलजी को रानी पद्मिनी के सौंदर्य के बारे में पता था । कहा जाता है, उसने इस अद्भुत रानी को दर्पण से देखा भी था । यह भी चित्तौड़ पर उसके हमले का कारण था । पर चित्तौड़ और सिसौदिया राजपूत अलग ही मिट्टी के बने थे । पूरा रनिवास जौहर कर के राख हो गया । सिर्फ कीर्ति और गौरव गाथा ही शेष रही । यह कीर्तिगाथा सदियों से आत्मसम्मानी राजपूत समाज को अनुप्राणित करती रही है और करती रहेगी । अगर इस महान घटना पर इतिहास को इतिहासकार की दृष्टि से आप फ़िल्म बना रहे हैं तो बहुत अच्छी बात है । पर अगर इतिहास में मार्केटिंग प्रेरित कल्पना का मिश्रण है तो यह आपत्तिजनक ही होगा । सुना है , प्रस्तावित फिल्म में अलाउद्दीन ख़िलजी का रानी पद्मिनी के साथ प्रेम प्रसंग की बात दिखायी गयी है । जो ऐतिहासिक तथ्यों के सर्वथा विपरीत है । फ़िल्म में चित्तौड़ पर हुए हमले को इस प्रेम से ही प्रेरित बताया गया है । पर इतिहास की कोई पुस्तक जो समकालीन इतिहास पर उपलब्ध है में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा या कहा गया है । कोई ऐसा लेशमात्र भी नहीं मिलता है कि रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन के बीच कभी कोई प्रेम प्रसंग हुआ हो। लेकिन सूखा इतिहास फिल्मों में नहीं चलता है । यह आप की अपनी समस्या होगी पर सिर्फ फ़िल्म चले और बॉक्स ऑफिस पर हिट हो, इस लिए अगर आप ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ कर उसे बना रहे हैं तो आप का यह प्रयास निंदनीय ही कहूँगा ।
अक्सर फ़िल्म समीक्षक यह कहते हैं कि, हिंदी फिल्में इतिहास को इतिहास की तरह परदे पर नहीं उतार पाती है जितनी खूबसूरती से अंग्रेजी फिल्में इतिहास को दिखाती हैं । क्या कारण है कि रिचार्ड एटनबरो गांधी जैसी फ़िल्म बना लेते हैं और हमारे फिल्मकार कालजयी ऐतिहासिक पात्रों को सेल्युलाइड पर उतार नहीं पाते हैं । वे मसालाबाज़ी से मुक्त हो ही नहीं पाते । एक प्रसिद्ध फ़िल्म है मुग़ल ए आज़म । के आसिफ की यह फ़िल्म भारतीय फिल्मों के इतिहास में कालजयी फ़िल्म मानी जाती है । पर इस फ़िल्म में भी कल्पना इतिहास पर हावी हो गयी है । फ़िल्म की मूल कथा वस्तु ही काल्पनिक है । अनारकली के इर्द गिर्द घूमती हुयी इस फ़िल्म में अनारकली का पात्र ही कल्पना से सृजित है । पूरे मुगल इतिहास में अनारकली का कहीं कोई उल्लेख नहीं है । जहांगीर पर आधिकारिक विद्वान माने जाने वाले और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर डॉ राम प्रकाश त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक जहांगीर में अनारकली का कोई उल्लेख ही नहीं किया हैं। यह कल्पना थी । जो बाद में गल्प के रूप में जुड़ गयी और इस तरह से इतिहास के साथ गड्डमड्ड हो गयी कि अब यह पात्र भी ऐतिहासिक ही लगने लगी है । इस नाम की कोई महिला उस काल खंड और सलीम के जीवन में थी ही नहीं । सलीम या जहांगीर ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह ज़रूर किया था, पर उसका कारण अनारकली नहीं थी । अबुल फज़ल की हत्या, वीर सिंह बुंदेला से जहांगीर की मित्रता आदि के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं पर अनारकली का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है । मैं गम्भीर और अकादमिक इतिहास की बात कर रहा हूँ । ऐतिहासिक उपन्यासों की काल्पनिकता पर नहीं । इसी तरह बहुत से ऐतिहासिक फिल्मों में कल्पना के समावेश से उसे रोचक बनाया गया है और लोगों ने पसंद भी किया है । हो सकता है भंसाली साहब आप भी रानी पद्मिनी के प्रेम प्रसंग को कल्पना से उकेर कर इसे रोचक बनाना चाहते हों । पर इतिहास को इस प्रकार से तोड़ने मरोड़ने के खतरे भी बहुत हैं ।
अभिव्यक्ति की आज़ादी का भी सवाल उठेगा कि आप को यह आज़ादी क्यों न दी जाय कि आप अपनी अभिव्यक्ति खुल कर कह सकें ? लेकिन क्या इस आज़ादी की आड़ में आप को ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करने की भी अनुमति दी जानी चाहिए ? मेरा मत है आप को स्वतः यह बात सोचनी होगी कि पद्मिनी , चित्तौड़, दिल्ली और अलाउद्दीन के समय क्या क्या ऐतिहासिक तथ्य थे । अलाउद्दीन और चित्तौड़ का युद्ध एक मध्ययुगीन साम्राज्य विस्तार का ही हिस्सा था । आधुनिक काल के आगमन के पूर्व तक साम्राज्य विस्तार राजाओं का शौक़ ही नहीं उनका मुख्य दायित्व भी था । यह युद्ध उसी का परिणाम था । पर जिस प्रेम प्रसंग की बात की जा रही है उसका तो कहीं उल्लेख ही नहीं है और वह आधारहीन है । रानी पद्मिनी के प्रति इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करना महान ऐतिहासिक विरासत के प्रति अवज्ञा और अन्याय है । जो इतिहास में है और जो तथ्य है उसका फिल्मांकन किया जाना चाहिए । इतिहास की मार्केटिंग न तो की जानी चाहिए और न ही उचित है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर यह वाक्य बहुत ही सारगर्भित है ,
" आप को सड़क पर खड़े हो कर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर वहीँ तक जब तक कि वह किसी की नाक में लगे । "
जो सच और प्रमाणित हो वही फिल्माएं । हो सकता है थोडा गंभीर शोध करना पड़े । पर इतिहास को विकृत न करें ।
( विजय शंकर सिंह )
सही विवेचना है,हमारे मानबिन्दुओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हँसी और व्यंग्य का प्रतीक बना दिया जाता है और हमारे चुप रहने के कारण उनकी उद्दण्डता बढ़ती जाती है।
ReplyDeleteसही विवेचना है,हमारे मानबिन्दुओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हँसी और व्यंग्य का प्रतीक बना दिया जाता है और हमारे चुप रहने के कारण उनकी उद्दण्डता बढ़ती जाती है।
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