ययाति एक व्यक्तित्व ही नहीं एक मानसिकता भी है जो सत्ता , अधिकार सुख, ऐश्वर्य से वीतरागी नहीं होने देती। ययाति , महाप्रतापी नहुष के पुत्र थे । राजा नहुष के 6 पुत्र , याति, ययाति, सयाति , अयाति, वियाति, कृति थे । नहुष ने अपने उत्तराधिकार ययाति को दिया और ययाति चक्रवर्ती सम्राट बने । पुरा कथाओं के अनुसार उनकी दो पत्नियां थीं, शर्मिष्ठा और देवयानी । शर्मिष्ठा, असुर गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी और देवयानी देव कुल की थी । ययाति के शर्मिष्ठा से तीन पुत्र, और देवयानी से दो , कुल पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे । ययाति अपार राज, काम और ऐश्वर्य सुख भोग कर भी तृप्त नहीं हुए उन्होंने अपने पुत्रों में से किसी को भी उत्तराधिकार न दे कर, अपने पुत्रों को अपनी जरा ( वृद्धवास्था ) दे कर उनका यौवन लेना चाहा, ताकि वे और अधिक समय तक सुख भोग सकें । उनके इस प्रस्ताव को सभी पुत्रों ने अस्वीकार कर दिया पर सबसे कनिष्ठ पुत्र पुरू ने पिता की जरावस्था को ले कर अपना यौवन देने को प्रस्तुत हो गया । पुरू वृद्ध हो गया और ययाति युवा हो गए । वे फिर राज सुख में लिप्त हो कर राज करने लगे । लेकिन लिप्सा और सुख भी कभी न कभी उबाता ही है । एक दिन ययाति इस सुख और अधिकार के अबाध भोग से ऊब गए और उन्होंने पुरू को उनका यौवन लौटा कर अपनी वृद्धावस्था ले ली और फिर तप करने के लिए वन की ओर चले गए । यह कथा महाभारत के आदि पर्व ( 81 - 88 ) में दी गयी है ।
इसी से एक शब्द निकला है ययाति ग्रंथि । यह शब्द जरावस्था या पूर्ण सुख भोगने के बाद भी तृप्ति न होने की मानसिकता का द्योतक है । ययाति लम्बे समय तक समस्त सुखों का उपभोग करते रहे पर वे तृप्त पुरू का यौवन ले कर भी नहीं हुए । पर तृप्त तब भी नहीं हुए और बाद में ऊब कर सब छोड़ दिया ।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता:
तपो न तप्तम् वयमेव तपतः ।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।।
( हमने भोग नहीं भोगें, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है । हमने तप नहीं किया बल्कि स्वयं ही तप्त हो गए हैं । काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गए । तृष्णा जीर्ण नहीं हुयी , बल्कि हम ही जीर्ण हो गए । )
आज जब खाये अघाये अत्यंत वरिष्ठ राजनेताओं को मैं अभी भी राजनीति के प्रागण में केलि करते देखता हूँ तो ययाति की यह कालजयी कथा याद आती है ।
( विजय शंकर सिंह )
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