Monday, 16 January 2017

सेना प्रमुख का बयान, सुरक्षा बल और सोशल मीडिया - एक विचार / विजय शंकर सिंह

सेना दिवस पर थल सेना प्रमुख ने सैनकों को आगाह किया है कि वे सोशल मीडिया पर अपनी समस्याएं प्रचारित न करें । जनरल रावत का यह निर्देश कानून के अनुसार है । जब सोशल मिडिया नहीं थी और परम्परागत मिडिया अखबार और पत्रिकाओं के रूप थी और जब बाद में दूरदर्शन आया तब भी राजकीय कर्मचारी आचरण नियमावली में सरकारी कर्मचारी के सार्वजनिक रूप से सरकार के नीतियों की आलोचना को निषिद्ध किया गया है । ऐसा इस लिए कि सरकार एक ईकाई है और कर्मचारी उस इकाई का एक अंग । सरकार की किसी नीति से किसी अधिकारी या कर्मचारी को समस्या या असहमति हो तो सरकार को ही अपनी असहमति दर्ज़ कराने पर तो कोई प्रतिबंध नहीं है पर उस असहमति को सार्वजनिक करने पर, उससे कतिपय समस्याओं के उत्पन्न होने वाले खतरों के कारण प्रतिबन्ध ज़रूर लगाया गया है । बहुत से सरकारी संस्थाओं में श्रमिक यूनियन होते हैं जो अपनी बात, दुःख दर्द सरकार तक पहुंचाते हैं और वे अखबारों में वक्तव्य भी देते हैं । उन्हें हड़ताल करने की भी छूट कुछ गाइडलाइनों के अनुसार दी गयी है । लेकिन ऐसी छूट सेना, पुलिस और अर्ध सैनिक बल जिसमे केंद्रीय पुलिस बल आते हैं नहीं दी गयी हैं । और न ही दी जानी चाहिए ।

सेना , पुलिस या केंद्रीय पुलिस बल, का संगठन, उद्देश्य और कार्यप्रणाली , किसी भी अन्य सरकारी संस्थाओं से अलग होता है । शस्त्रजीवी होने और संवेदनशील कार्यों के कारण इन संगठनों में किसी भी प्रकार के संघ या संघटन की अनुमति नहीं दी जाती है । और दी भी नहीं जानी चाहिए ।  लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि इन संगठनों के जवानों और अधिकारियों में असंतोष नहीं होता है । असंतोष एक मानवीय प्रवित्ति है वह जब भी कोई बात मनोनुकूल नहीं होती है तो स्वाभाविक रूप से असंतोष उत्पन्न होने लगता है । इन बलों के जवान अक्सर बैरेक्स में अकेले और अपने परिवार से दूर रहते हैं । वे सामूहिक रूप से मेस में भोजन करते हैं और सामूहिक रुप से रहते भी हैं । उनके बैरक में रहने का मापदंड, मेस में भोजन का मेन्यू, भोज्य सामग्री की मात्रा और गुणवत्ता आदि का एक तय पैमाना होता है , यह सबको मालूम भी होता है । जवान ही अपना मेस मैनेजर चुनते हैं, अपना मेन्यू तय करते हैं । किसी अव्यवस्था होने पर वे अपना मेस मैनेजर बदल भी देते हैं । एक तय व्यवस्था के अनुसार उनका भोजन बनता है और अन्य सुविधाएँ भी मिलती है । यही हाल इनसे जुड़े लॉजिस्टिक्स का भी होता है । अब यह समस्या उठती है कि जो अधिकारी इन सब के पर्यवेक्षण और क्रियान्वयन के लिए रखा गया है वह कितनी निष्ठा से काम करता है । ऐसा नहीं है कि जली रोटी और पतली दाल का मुद्दा पहली बार बीएसएफ के तेज प्रताप यादव ने उठाया है । बल्कि जब भी इन सैनकों का मासिक सम्मेलन आयोजित होता है तो उसमें जवान अपनी खाने पीने की समस्याओं को उठाते हैं । समस्याएं भी दो तरह की होती हैं । एक सामूहिक और दुसरी निजी । निजी समस्याओं में किसी को छुट्टी न मिलने की समस्या, किसी को इन्क्रीमेंट न लगने या बकाया वेतन के एरियर मिलने की समस्या या अन्य कोई पारिवारिक समस्या होती है । सामूहिक समस्याओं में बैरेक्स की कोई कमी, ड्यूटी की कोई कमी, और मेस की कोई अव्यवस्था की बात उठायी जाती है । ऐसे सैनिक सम्मेलन जिसे पहले दरबार कहा जाता था , हर सैन्य बल की इकाई में हर माह होते हैं और यह एक ऐसा अवसर होता है जिसमें सभी अपनी बात कहते हैं । अब जिम्मेदारी यूनिट चीफ की है कि वह इन सम्मेलनों में उठाये गए सवालों पर कितना कार्यवाही करता है और क्या बदलाव करता है ।

इन बलों में यूनिट चीफ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । यूनिट का अनुशासन, लोगों में असंतोष तथा मनोबल आदि उसकी दक्षता और कुशलता पर निर्भर करता है । उसकी जिम्मेदारी है कि अगर कोई कमी या विसंगति है तो वह अपने उच्चाधिकारियों के संज्ञान में लाये । इन अनुशासित बलों में चेन ऑफ़ कमांड का बहुत महत्व होता है । और यह चेन ऑफ़ कमांड न केवल जवानों के लिए ही होता है बल्कि अफसरों के लिए भी होता है । जब अपनी बात कहने के लिए एक उचित और मान्य फोरम उपलब्ध है तो सोशल मिडिया या किसी अन्य माध्यम से समस्याओं को प्रचारित करने का कोई औचित्य नहीं है । अगर यूनिट चीफ के स्तर पर भी सुनवाई नहीं होती है तो उस से वरिष्ठ अधिकारी से बात कही जा सकती है । जैसा कि जनरल रावत ने कहा है कि, जवान अपनी समस्याएं उन्हें सीधे बता सकते हैं । जवानों के कल्याण की कई योजनाएं इन सुरक्षा बलों में चलती हैं और उनकी समीक्षा भी होती है । फिर भी कुछ न कुछ कमियाँ रह जाती हैं । ये बल किसी संस्थान की तरह नहीं एक परिवार की तरह होते हैं । यूनिट चीफ उस परिवार के प्रमुख की तरह  होता है । अक्सर हम मनोबल की बात करते हैं । सुरक्षा बल जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते हैं उसमे मनोबल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है । जवान अपनी निजी और खाने पीने की समस्याओं से निश्चिन्त हो कर ही उन प्रतिकूल समस्याओं का सामना कर सकते हैं । जब इन जवानों के पास सैनिक सम्मेलन के फोरम को छोड़ कर अपनी समस्या कहने के लिए कोई विकल्प नहीं है और हर विकल्प अनुशासन पर प्रश्न चिह्न उठाता है तो ऐसे समय में यूनिट चीफ की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है । परिवार के एक जिम्मेदार प्रमुख की तरह अगर उसका आचरण और दृष्टि नहीं हुयी तो अनसुलझी छोटी छोटी समस्याएं , व्यापक असंतोष का कारण बन सकती हैं और इसके भयावह परिणाम हो सकते हैं । ऐसा ही एक भयावह परिणाम 1973 के पीएसी विद्रोह के रूप में उत्तर प्रदेश में हम देख चुके हैं ।

सोशल मिडिया पर समस्याओं के प्रसारित करने के पक्ष में यह तर्क दिया जा सकता है कि
इन बलों के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार को सरकार के संज्ञान में लाया जा सकेगा । और इन बलों पर इन समस्याओं के निस्तारण तथा तथा वे फिर न हो सकें इस लिए मनोविज्ञानिक दबाव पड़ेगा। 
यह तर्क बेमानी है । चीज़ें जैसे ही सार्वजनिक होंगी तो कुछ मामलों में वे तत्व जो उन समस्याओं के समाधान के लिए जिम्मेदार हैं , समस्या उजागर करने वाले के प्रति लामबंद हो सकते है और उस समस्या का तो समाधान होगा नहीं उलटे और नयी समस्याएं पैदा हो जाएंगी । हालांकि यह एक गलत प्रवित्ति है । होना तो यह चाहिए कि सोशल मीडिया पर आयी किसी भी शिकायत पर तुरंत संज्ञान ले कर उसका समाधान किया जाय और अगर वह झूठ है तो तदनुसार कार्यवाही की जाय । पर होता क्या है , यह भी यूनिट चीफ के व्यक्तित्व और विचार पर भी निर्भर करता है । अगर सोशल मीडिया पर फ़ैल रहे समस्याओं का संज्ञान नहीं लिया गया तो इससे अफवाहें फैलने का भी खतरा रहता है । सुरक्षा बल किसी भी राजनीतिक दल के प्रति निष्ठावान नहीं होते हैं । उनकी निष्ठा और स्वामिभक्ति देश के संविधान और देश के प्रति है । जब कि अन्य श्रमिक संघटन खुल कर किसी न किसी राजनीतिक दल के आनुषांगिक संगठन होते हैं । हमारी सेनाएं और सुरक्षा बलों  का अराजनीतिक स्वरूप दुनिया भर के लिए एक मिसाल है । यही कारण है कि राजनीतिक उठापटक के बावज़ूद भी सेना के मूल चरित्र पर कभी भी कोई असर नहीं पड़ता है । सोशल मीडिया पर सक्रिय मित्र जो अनुशासन की इस बारीकी और रेजिमेन्टेशन की संवेदनशीलता से परिचित नहीं हैं , इन खबरों को किसी अन्य दृष्टिकोण से देखते हैं ।  वे मेस की कतिपय अव्यवस्था को सरकार की कमी और राजनैतिक दल की विफलता से जोड़ कर देखने लगते हैं जिस से इन बलों के जवानों का कोई सरोकार नहीं है । एक मेस में खाना खराब मिल रहा है तो उस यूनिट के अफसर जिम्मेदार हैं न कि कोई सरकार या राजनीतिक दल । यह स्थानीय कुप्रबंधन है । कोई नीतिगत विफलता नहीं है ।

अक्सर एक सवाल उठाया जाता है कि अनुशासन और मनोबल के नाम पर जवानों की आवाज़ दबायी जाती है । यहां यह स्पष्ट करना है कि सेना या पुलिस का ढांचा , उद्देश्य और कार्यप्रणाली सभी अन्य विभागों से अलग हैं । यह एक प्रकार का रेजिमेन्टेशन है । अनुशासन के नाम पर ज्यादतियां होती होंगी इनसे इनकार नहीं किया जा सकता है । पर अनुशासन में ज़रा सी ढील इस पुरे तंत्र को एक भीड़ में बदल कर रख देगी । सेना प्रमुखों और पुलिस बलों के प्रमुखों का यह मुख्य दायित्व है कि वह कल्याण संबंधी मामलों और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों के प्रति अत्यघिक सतर्क रहें । अब जो लड़के फ़ौज़ और पुलिस में भर्ती हो रहे हैं , वे पहले की तरह महज आज्ञापालक ही नहीं है बल्कि वे अपने आस पास घट रहे घटनाक्रम से पूर्णतया भिज्ञ हैं । वे अपने अधिकार और उन्हें जो सरकार दे रही है , से पूरी तरह सचेत भी हैं । दुनिया अब उनके लिए गोल नहीं रही कि वे केवल क्षितिज तक ही देखे । दुनिया उनके लिए चपटी हो गयी है । अब वे आर पार सब देख और समझ रहे हैं । अफसरों को भी तदनुसार बदलना होगा । केवल अनुशासन के डंडे से ही उन्हें नहीं हांका जा सकता है । उन्हें पूरी सुविधाएं जो भी उन्हें अनुमन्य हों मिलें और तनाव मुक्त वातावरण मिले जिस से वे अपना काम कर सकें ।

© विजय शंकर सिंह .

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