Friday, 20 January 2017

जल्लिकट्टू और उस पर उठा विवाद - एक समीक्षा / विजय शंकर सिंह

जल्लिकट्टू , तमिलनाडु का एक पर्व है जो सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के कारण त्योहार के समर्थकों और पशु क्रूरता का विरोध करने वालों के बीच विवाद और विरोध का कारण बन गया है ।  जल्ली का अर्थ स्वर्ण की मुद्रा , गिन्नी सिक्का और केट्टु का अर्थ उसे बांधना होता है । स्वर्ण की मुद्रा को बांधना इस शब्द का हिंदी में शाब्दिक अर्थ हैं। यह एक खेल है । शारीरिक क्षमता, सौष्ठव और पराक्रम दिखाने का यह एक अवसर होता है जिसे पहले से ही युवा और विशेषकर कुंवारे लोग अपनी प्रतिभा और बल का प्रदर्शन करते हैं । स्पेन के राष्ट्रीय खेल , बुल फाइटिंग से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है , क्यों कि उस खेल में सांड़ या बुल को भड़का कर खुद पर हमला करने के लिए उकसाया जाता है और तब उसे छका कर उसे घायल या मार दिया जाता हैं। जलिकट्टू में पशु को न तो मारा जाता है और न ही घायल किया जाता है, उसे साधा जाता है, उसे कब्ज़े में किया जाता हैं। इस खेल में सांड़ को एक स्थान से छोड़ा जाता है और वह जब भागता है तो उसे उत्साही युवक जो शारीरिक रूप से बहुत मज़बूत होते हैं उसे दौड़ा कर पकड़ते और उस पर सवारी गांठते हैं । सांड़ तेज़ी से सवार को गिराने की कोशिश करता हुआ पैंतरा बदल बदल कर भागता है, और सवार उसे तब तक दौड़ाता रहता है जब तक कि सांड़ थक कर खड़ा नहीं हो जाता है । इस खेल में सवार के धैर्य, कौशल, बलिष्ठता और प्रत्युत्पन्मति की परीक्षा होती है । सवार के लिए यह एक खतरनाक खेल तो पशु को भी शारीरिक पीड़ा तो होती ही है ।

भारतीय इतिहास की एक विडंबना यह भी है कि, देश का इतिहास अमूमन उत्तर भारत का ही इतिहास माना जाता रहा है । महाकाव्यों के काल से ले कर आधुनिक काल तक का जो भी इतिहास पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता है, उनमे से अधिकतर इतिहास ही अयोध्या, हस्तिनापुर, षोडश जनपद, मगध पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, दिल्ली, तक ही सिमटा रहता है। सारे विदेशी आक्रमण सिकंदर से ले कर नादिर शाह तक पश्चिमी सीमा से हुए और वे दिल्ली से होते हुए या तो गुजरात या वर्तमान आंध्र तक या बंगाल तक फैलते रहे । दक्षिण में बहुत भीतर तक वे घुस नहीं पाये । इसके अनेक कारण है । दक्षिण के चोल, पांड्य चालुक्य , चेर आदि साम्राज्य उत्तर के महान और समृद्ध राजवंशों की तुलना में कमतर बिलकुल नहीं थे पर उनकी चर्चा कम ही होती है । विदेशी हमलों के  परिणाम स्वरूप उत्तर , पश्चिम और पूर्वी भूभाग अधिक प्रभावित हुआ । वहाँ सत्ता परिवर्तन भी बहुत हुए । धर्म पर आघात भी बहुत हुआ । धर्म परिवर्तन भी बहुत हुआ । एक युयुत्सु भाव सदैव बना रहा , जो आज भी एक खटास के रूप में समाज की मानसिकता में विद्यमान है । इसके विपरीत, सुदूर दक्षिण के तमिल क्षेत्र में उतनी तेज़ी से घटनाएं नहीं घटीं और वह अपनी ही रौ में समृद्धि के साथ विकसित होता रहा ।

तमिल इतिहास में 400 ईपू से 100 ईपू का काल अत्यंत समृद्ध काल था । उसी समय इस खेल का प्रारम्भ होना बताया जाता है । संगम काल , तमिल इतिहास का सबसे गौरव पूर्ण काल भी था । इस खेल का नाम तमिल में येरु थजुवल्थल है । यह सांड़ के साथ युद्ध नहीं, बल्कि उसे बाँधने और साधने की एक कला का खेल था । इसे इस खेल के समर्थक बुल टेमिंग कहते हैं , बुल फाइटिंग नहीं । बाद में साँड़ों के सींगों पर स्वर्ण मुद्राएं बाँधी जाने लगी तो, इस खेल का नाम जल्लीकट्टू के रूप में प्रचलित हो गया । यह खेल तमिलनाडु के अय्यर समुदाय में जो मुल्लाइ नामक स्थान से उद्भूत हुए हैं से शुरू हुआ है । इस खेल का इतिहास 2500 वर्षों से भी अधिक पुराना है । इस खेल के लिए जो बैल चुना जाता है वह भी किसी न किसी मंदिर को दान में प्राप्त हुआ होता है । उसे इस खेल के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित और फुर्तीला बनाया जाता है । भारतीय इतिहास और परम्परा में सैन्धव सभ्यता से ले कर आज तक बैलों का बहुत ही महत्व रहा है।  कृषि का यह मूल आधार ही था कभी । आज इसी खेल पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को ले कर विवाद उठ गया है । यह विवाद तमिल अस्मिता से जोड़ कर देखा जा रहा है ।

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से पशु आधारित सभी परम्परागत खेलों पर रोक लग गयी है । जिन खेलों पर रोक लगी है वे हैं तमिलनाडु की जल्लीकट्टू, मंजुविरात्तु, वदम, एरथुकट्टम , थिरुविज़हा, रेकला, और बैलगाड़ी की दौड़, केरल के खेल सेथालि, कालापुत्तु , महाराष्ट्र के बेलगाड़ा, हैं । कोर्ट का कहना है कि यह सब खेल पशुओं पर एक प्रकार से अत्याचार ही हैं अतः ये पशु क्रूरता निषेध अधिनियम के प्राविधानों का उल्लंघन हैं । सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश से सदियो से चलते आ रहे इस खेल पर प्रतिबन्ध लग गया । इस खेल को समझने  के पहले खेलों के विकास को भी समझना पड़ेगा । पशुओं के साथ खेल आमोद प्रमोद के साथ साथ खुद की शारीरिक क्षमता दिखाने का भी एक माध्यम रहा है । विभिन्न पशुओं यानी भेड़ा की लड़ाई, मुर्गों की लड़ाई, बाज़ के करतब, हस्ति युद्ध, या पशुओं के साथ भिड़ंत, घोड़ों को साधना, बैलों और भैंसो को साधना यह सब खेल और साथ साथ इन पशुओं को पालतू बना कर उनका उपयोग करने का भी एक साधन था । इन पशुओं से लोगों को न केवल कृषि कार्य  में सुविधा होती थी बल्कि दोनों ही का जीवन अन्योन्याश्रित था । मशीनें अब आयीं है । पहले युद्ध हो या कृषि दोनों में पशुओं की प्रमुख भूमिका थी । बृषभ को नाथने और साधने का काम बल , और कौशल से ही हो सकता है । यह पशुपालन के साथ साथ ही विकसित हुआ है । महाभारत के एक क्षेपक के अनुसार कृष्ण ने सात बृषभों को एक साथ साध और नाथ कर लोगो को चमत्कृत कर दिया था ।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जल्लीकट्टू पर टिप्पणी करते हुए एक स्थान पर कहा है
" Jallikattu is an ‘entertainment sport’ and ‘why should you not play a video game of Jallikattu ? "
( जल्लीकट्टू एक मनोरंजक खेल है । क्यों नही मनोरंजन के लिए वीडियो गेम के द्वारा यह खेल खेला जाता । )
जल्लीकट्टू कोई मनोरंजक खेल नहीं है । तमिल मान्यता के अनुसार, तमिलनाडु के एक विशेष समाज में यह एक पर्व की तरह मनाया जाता है । इसकी कोई प्रतियोगिता नहीं होती है । न ही विजेता की कोई प्रथम द्वीतीय या तृतीय श्रेणी ही होती है । यह एक मंदिर के प्रांगण में एक विशेष अवसर पर और वह भी वर्ष में एक बार ही आयोजित होती है । यह आयोजन कोई स्पोर्ट्स क्लब या सरकार का खेल विभाग नहीं करता है, बल्कि इसे मंदिर की तरफ से आयोजित किया जाता है । यह मूलतः मनुष्य की शारीरिक क्षमता और साहस का प्रदर्शन है कि वह कैसे किसी सांड़ को अपनी ताक़त से साध लेता है । अगर वह साधने में सफल हो गया तो , वह पुरुष अन्यथा वह बैल जिसे साधा न जा सका , को विजयी घोषित किया जाता हैं। यह मनुष्य और बैल दोनों की ही एक प्रकार से परीक्षा है । भारत के ग्रामीण अंचलों में हाल तक बिगड़ैल बैल और घोड़ों को नाथने और साध देने की एक प्रतियोगिता भी चलती थी । ऐसे बहादुर युवकों को सम्मान के साथ देखा जाता था तथा उनका नामोल्लेख किया जाता था । तमिल समाज जो इस भारतीय समाज का ही एक भाग है, वह भी इस से अलग नहीं है । तमिल समाज जो इस खेल का समर्थक है और इसके पक्ष में दलीलें दे रहा है का यह भी कहना है कि, हज़ारों साल से चल रही इस प्रथा पर, अकाल आदि प्राकृतिक आपदा के समय को छोड़ कर , कभी भी रोक नहीं लगायी गयी और यह जारी रही । वह इस रोक को अपनी परम्परा , अस्मिता और सदियों से चले आ रहे पुरा - अधिकारों पर आघात समझता है ।

जल्लिकट्टू के पक्ष में तर्क देने वाले इसे तमिल सभ्यता और अस्मिता से तो जोड़ते ही हैं साथ ही इसे एक धार्मिक आयोजन भी बताते हैं । उनका तर्क है बैल , बृषभ , भारतीय सनातन धर्म और समाज का अनिवार्य अंग रहा है । सैंधव सभ्यता के मुहरों में मिली बृषभ की आकृति से ले कर हाल तक बैल हमारी कृषि का आधार रहा है । यह पर्व पशुपालन का ही एक रूप है जो समाज को इस खेल के माध्यम से मज़बूत और स्वस्थ बृषभ उत्पन्न और विकसित करने के लिए प्रेरित करता है । आज भी सांड़ छोड़ने की परम्परा पूरे भारतीय समाज में है । तमिल समाज में भी मंदिरों को बृषभ दान देने की परम्परा है । ये बृषभ मुक्त हो कर विचरण करते हैं और उन्हें कोई रोकता , बांधता, नाथता और हांकता भी नहीं है । एक अंधविश्वास भी उस समाज मैं है कि ऐसा बृषभ जिसके खेत में चरेगा वहाँ फसल उस वर्ष बहुत अच्छी होगी । यह मान्यता हज़ारों साल की परम्परा में निहित है । जल्लिकट्टू के समर्थक इसे हिंसक या पशु उत्पीड़क खेल नहीं मानते हैं । वे इसे तमिल गौरव और परम्परा के प्रतीक के रूप में देखते हैं।

एक स्थानीय और अल्पज्ञात खेल कैसे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां बन गया इसकी भी कहानी कम रोचक नहीं है । भारत सरकार के पशु कल्याण बोर्ड ( Animal Welfare Board ) और Peoples For Ethical Treatment of Animals ( PETA ) ने जल्लिकट्टू के बारे में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की । 2014 में उस याचिका पर सुनवायी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे पशु क्रूरता का खेल मानते हुए इसे प्रतिबंधित कर दिया । इस आदेश का तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया । तमिलनाडु सरकार ने तमिलनाडु रेगुलेशन ऑफ़ जल्लिकट्टू एक्ट 2009 भी इस खेल को रेगुलेट करने के लिए बनाया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के फैसले में उसे रद्द कर दिया था । सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि यह एक्ट संविधान के अनुच्छेद 254 (1) का उल्लंघन है अतः वह निरस्त कर दिया गया । 8 जनवरी 2015 को केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना के द्वारा जल्लिकट्टू पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाया गया प्रतिबंध समाप्त कर दिया । ऐसा करने का निर्णय राजनैतिक था । इस अधिसूचना को पुनः PETA तथा पशु प्रेमी संघों द्वारा चुनौती दी गयी।  26 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवायी करते हुए कहा , 
" Just because the bull-taming sport of Jallikattu was a centuries-old tradition, it could not be justified. " 
आगे सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी, 
" If the parties were able to convince the court that its earlier judgement was wrong, it might refer the matter to a larger bench." 
इस सुनवायी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन को निरस्त कर दिया और अपने प्रतिबंध के फैसले को कायम रखा । सुप्रीम कोर्ट ने बुल टेमर शब्द का प्रयोग करते हुए जिन परिस्थितियों में बृषभ को रखा जाता है और खेल के पहले उसे बर्बरता पूर्वक तैयार किया जाता है, वह पशु के प्रति कोई पाल्य भाव नहीं दिखाता है । अदालत की टिप्पणी पढ़ने योग्य है ,
“Forcing a bull and keeping it in the waiting area for hours and subjecting it to the scorching sun is not for the animal’s well-being. Forcing and pulling the bull by a nose rope into the narrow, closed enclosure or ‘vadi vassal’ (entry point), subjecting it to all forms of torture, fear, pain and suffering by forcing it to go the arena and also over-powering it in the arena by bull tamers, are not for the well-being of the animal.”

जल्लिकट्टू पर अभी भी रस्साकशी जारी है । अदालत इसे कानूनी प्राविधान की नज़र से देख रही है , जो उसे देखना भी चाहिए, और सरकारें जन भावना का जायज़ा ले रही हैं , जिन पर उनका अस्तित्व टिका है । परम्परायें बड़ी हैं या कानून यह बहस रोचक और लम्बी है । इस पर फिर कभी ।

( विजय शंकर सिंह )

4 comments: