Friday, 13 January 2017

एक कविता - निर्मम इतिहास, याद किसे रहता है !

वाटरलू , 
वह एक निर्णायक युद्ध था ,
जो वह हार गया था
अंतिम और त्रासद भरे दिन
ज़ुल्मत भरी रातें
उदास और
खोखली चमक लिए सूरज,
जिनमे वह अपनी प्रेयसी के लिए
दिल को छू देने वाली
प्रतीकों और विम्बों से सजी
कविताओं को लिखता रहता,
मिटाता रहता !

सोचता रहता वह उन युद्धों को
जिसमें वह  शौर्य के साथ
एक एक कर राज्यों को
भूलुंठित करते हुए
अपने बाहों में समेट कर,
बन गया था, अवतार ईश्वर का !

रूस की हाड़ कंपाती,
खून को भी जमा देने वाली,
कड़कड़ाती सर्दी में पड़े हुए,
सैनिकों के क्षत विक्षत शव,
जले हुए गाँव के गाँव ,
सब कुछ जीत कर भी
पराजय के एहसास के साथ
लौटता हुआ वह,
सब कुछ फ़्लैश बैक की तरह,
जेहन में उसके
उतराता रहा , डूबता रहा !

द्वीप का एकांत कारागार
संसार से अलग करती हुयी
पत्थर की हृदयहीन दीवारें,
लहराता और डराते हुए सागर की ध्वनि
नीला और खूबसूरत समुद्र नहीं ,
कालिमा लिए जहरीला सागर वह,
आह, कल का विश्व विजेता,
बंदी है आज,
विचित्र है, नियति की गति भी !

कभी प्रेम, कभी युद्ध,
कभी राजनीति तो कभी उदासी भरी याद,
कितनी कहानियों के
अक़्स उसे अपने ही,
खोल में समेटते जा रहे थे ,
वह एक अज़ीब दुनिया में है ।

जनप्रियता, त्राता, अवतार,
भारी भरकम शब्द,
अपना अर्थ खोते हुए,
सागर में भग्न पोत की तरह,
दिशाहीन पड़े हैं ।
अहंकार और जनप्रियता कभी कभी,
दृष्टिदोष भी लाती है .
खुद की आँखें खुद के
प्रकाश से चुंधियाती
मिचमिची सी
खुद को संसार से अलग कर देती हैं ।

लोकप्रियता और
अहम्  का यह माया लोक
पतन की ओर उठते हुये  क़दम का
प्रथम चरण है .
पर निर्मम इतिहास , याद किसे रहता है !!

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment