तुम्हारी कविता पर
एक कविता तो बनती है,
पर इतना आसान भी नहीं ,
तुरत फुरत कुछ लिख देना,
ढूंढना पड़ता है शब्द,
जो मौज़ू हों,
तुम्हारे जज्बातों के,
तुम्हारे ख्यालों के,
रात के इन सर्द होते हुए पलों के ,
खिलखिलाहट भरी तुम्हारी,
उस हंसी के,
जो खामोश क्षणों को भी,
जीवंत कर जाती है ।
सजाना पड़ता है, उसे
प्रतीकों और विम्बो से,
जैसे कोई कलाकार ,
भरता है रंग,
कैनवास पर खिंची
आड़ी तिरछी रेखाओं में,
फिर वे रेखाएं कैसी मुखर हो जाती हैं,
देखा है तुमने ।
इस सर्द और कुज्झटिका भरी निशा में,
जब सब
अपने अपने लिहाफ़ों में लिपटे,
ख़्वाबों में मशगूल है,
मैं तुम्हारे लिए,
कविताओं के शब्द खोज रहा हूँ ।
तुम इंतज़ार करना !!
( विजय शंकर सिंह )
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