Thursday 12 January 2017

सहारा - बिरला दस्तावेजों के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट का हैरानी भरा फैसला / विजय शंकर सिंह

प्रशांत भूषण की याचिका जो सहारा और बिरला डायरी के सन्दर्भ में है पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हैरानी भरा है । प्रकरण इस प्रकार है । 2013 में कोयला घोटाले की जांच के दौरान सीबीआई ने आदित्य बिरला ग्रुप और उनकी कुछ कंपनियों पर छापा मारा था जिनमे से हिंडाल्को जैसी बड़ी कम्पनी भी थी । छापे के दौरान 25 करोड़ नक़द   तथा कंपनी के सीईओ अमिताभ के कम्प्यूटर में संरक्षित एक डाटा मिला । जब उस डाटा का अध्ययन किया गया तो, पाया गया कि पर्यावरण क्लियरेंस के लिए बिरला ग्रुप ने गुजरात के मुख्य मंत्री को 25 करोड़ रूपये दिए जाने की बात लिखी है । उस समय बिरला ग्रुप अपने एक प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण क्लियरेंस हेतु प्रयासरत था । नियमतः इस प्रविष्टि पर ही सीबीआई को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अभियोग पंजीकृत करके विवेचना करनी चाहिए थी । वैधानिक प्रक्रिया यही है । पर सीबीआई ने ऐसा न कर के यह प्रकरण आय कर विभाग को अग्रिम कार्यवाही के लिए सौंप दिया । आय कर विभाग ने जांच शुरू की और सीईओ अमिताभ से पूछ ताछ की । प्रविष्टि  " Gujrat CM paid ₹ 25 crores. 12 paid 13 " इस प्रकार थी । अमिताभ ने इन प्रविष्टियों के बारे में बताया कि यह पैसा गुजरात केमिकल्स और अल्कली के खाते में दिया गया है । पर जब आय कर विभाग ने सख्ती से पूछ ताछ की तो वे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाये और आय कर विभाग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अमिताभ झूठ बोल रहे हैं । जांच से आयकर को यह भी ज्ञात हुआ कि भारी संख्या में हवाले के माध्यम से धन का आदान प्रदान हुआ है और उस से कुछ लोगों को रिश्वतें दी गयी हैं । आय कर विभाग को अपने इन निष्कर्षों को सीबीआई को अग्रिम और गहन जांच हेतु सौंपना चाहिए था , जो उन्होंने नहीं किया और यह मामला बस्ता ए खामोशी में चला गया ।

22 नवम्बर 2014 को सहारा के नोयडा मुख्यालय में आय कर का एक छापा पड़ा जिसमे ₹ 135 करोड़ नकद और सहारा प्रमुख के निजी स्टाफ के पास और उनके कम्प्यूटर से कुछ दस्तावेज़ और डाटा मिले । इन दस्तावेजों की जब छानबीन की गयी तो, विभिन्न श्रोतों से 115 करोड़ रूपये का आना और एक कागज़ पर कुछ लोगों को रूपये का भुगतान करने की प्रविष्टियाँ मिली । उनका परीक्षण करने पर पता चला कि, एक कागज़ में यह अंकित है, " cash given at Ahemadabad Modi ji " तथा एक अन्य कागज़ में , " cash given to CM Gujrat " फिर इसके बाद उन्हें ₹ 40 करोड़ अहमदाबाद में मोदी जी को दिए गए अंकित है । इसके अतिरिक्त, ₹ 10 करोड़ , मुख्य मंत्री मध्य प्रदेश, ₹ 4 करोड़ मुख्य मंत्री छत्तीसगढ़, ₹ 1 करोड़ मुख्य मंत्री दिल्ली को दिए जाने का उल्लेख है । दिल्ली की मुख्य मंत्री उस समय शीला दीक्षित थीं । यह सारी प्रविष्टियाँ 2013 और 14 की हैं । जब गुजरात , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्य मंत्री क्रमशः नरेंद्र मोदी , शिव राज सिंह चौहान और रमन सिंह थे । शिव राज सिंह चौहान और रमन सिंह आज भी मध्य प्रदेश और छत्तीस गढ़ के मुख्य मंत्री हैं पर नरेंद्र मोदी अब देश के प्रधान मंत्री हैं । इन कागजों पर भी कोई अग्रिम कार्यवाही न तो आय कर विभाग ने की और न ही यह प्रकरण सीबीआई को जांच हेतु भेजा गया । इन कागजों और प्रविष्टियों पर जो अधिकारी आय कर विभाग के जांच कर रहे थे उनका नाम केवी चौधरी था और  आज कल वह मुख्य सतर्कता आयुक्त हैं । चौधरी साहब की मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर हुयी नियुक्ति को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी, क्यों कि इनका नाम कई बार पूर्व सीबीआई प्रमुख से संदेहास्पद परिस्थितियों में मिलने वाले लोगों के रूप में उनके आगंतुक पुस्तिका में दर्ज़ है । यह सारे कागज़ और तथ्य सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई के लिए याचिका कर्ता प्रशांत भूषण द्वारा एक जनहित याचिका के रूप में दायर की गयी जिसे सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया ।

यह याचिका कॉमन कॉज नामक एक संस्था जो एचडी शौरी द्वारा स्थापित की गयी है के द्वारा दायर की गयी है । इसी संस्था द्वारा सीवीसी चौधरी की भी नियुक्ति को चुनौती, इस आधार पर दी थी कि चौधरी ने आय कर विभाग के इन्वेस्टिगेशन विंग के प्रमुख रहते हुए भी बिरला सहारा छापों में मिले दस्तावेजों की छान बीन गहराई से नहीं की और उन्होंने उस पर कोई अग्रिम कार्यवाही भी नहीं की । वह सीवीसी जैसे महत्वपूर्ण पद जो भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए उत्तरदायी है, के सर्वथा उपयुक्त नहीं है । 2015 में दायर इस याचिका पर अभी भी सुनवायी चल रही है । याचिका का निस्तारण अभी तक नहीं किया गया है । इसी कॉमन कॉज के द्वारा बिरला सहारा पेपर्स के सदर्भ में भी याचिका दायर की गयी है । इस याचिका में यह मांग की गयी है कि बिरला सहारा पेपर्स में जिन के विरुद्ध धन लेने के नाम और प्रविष्टियाँ अंकित हैं उनके खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अभियोग कायम कर के विवेचना की जाय ।

इस याचिका पर 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया और सुप्रीम कोर्ट ने इन कागजों में अंकित प्रविष्टियों पर जांच कराने से इनकार कर दिया । अदालत का कहना है कि किसी की डायरी या दस्तावेज़ में किसी भी व्यक्ति के नाम के सामने अगर कोई धनराशि दर्ज़ कर दी जाय तो उस व्यक्ति को उत्कोच लेने वाला कैसे मान लिया जाय । वह धनराशि उस व्यक्ति को ही मिली है यह कैसे प्रमाणित होगी । जब तक धन का प्रदान और उसका आदान ,और उस धनराशि के लेने देने का उद्देश्य स्पष्ट न हो तब तक इसे प्रथम दृष्टया उत्कोच का मामला कैसे मान लिया जाय । अदालत ने इसे बिना जांच के आदेश के ही खारिज कर दिया ।

इस आदेश के गुण दोष में जाये बिना पुलिस दृष्टिकोण से एक मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या बिना विवेचना किये ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि सुबूत पर्याप्त हैं या नहीं है । प्रथम सूचना रिपोर्ट जो सीआरपीसी के अनुसार किसी भी अपराध की एक प्राथमिक सुचना होती है । पुलिस उस सूचना के बाद उस अपराध की छानबीन और तफ्तीश का काम शुरू करती है । वह जैसा मुक़दमा है उसी के अनुसार साक्ष्य एकत्र करती है , गवाहों के बयान लेती है , अभिलेखों की छानबीन और उनका परीक्षण करती है और जब साक्ष्य एकत्र हो जाता है तो आवश्यकतानुसार अभियुक्त की गिरफ्तारी , तलाशी आदि जो विवेचना के ही अंग होते हैं उन्हें करती है । फिर अभियोग के सम्बन्ध में आरोप पत्र या अंतिम आख्या जैसा सुबूतों से स्पष्ट हो अदालत के सामने रखा जाता है । तफ्तीश के दौरान कानून से पुलिस को पर्याप्त शक्तियां और सरक्षण प्राप्त हैं । इस मामले में जितना मैं समझ सका हूँ कि प्रथम दृष्टया धन देने के अभिलेखीय साक्ष्य हैं । धन देने का कारण भी मौजूद है । इतना साक्ष्य नहीं है कि किसी के खिलाफ अभियोग चलाया जा सका पर इतना सुबूत और प्रारंभिक सूचना अवश्य है कि इस मामले में सीबीआई या अन्य किसी भी एजेंसी से तफ्तीश करायी जा सके ।

इस फैसले को क्या सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग या व्यवस्था मानी जायेगी या नहीं ? यह फैसला इस से मिलते जुलते प्रकरणों पर एक दिशा निर्देश की तरह काम करेगा या नहीं ? यह तो विधि के जानकर और मेरे एडवोकेट और जज मित्र ही बता पाएंगे पर यह फैसला कुछ लोगों के लिए ढाल की तरह राहत भी देगा । देश में अगर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत दर्ज़ हुए मुक़दमों में सज़ायाबी के प्रतिशत को देखा जाय तो वह, जितना वास्तविक भ्रष्टाचार दिखायी देता है, उसकी तुलना में बहुत ही कम है । अमूमन सुबूत मुश्किल से मिलते हैं और जो मिलते भी है, उन्हें सिद्ध करना कठिन भी हो जाता है । मैंने ट्रैप ( रंगे हाँथ रिश्वत लेते पकड़े जाने वाले मामले ) के प्रकरणों में भी अभियुक्त को छूटते देखा है । कभी विलम्ब, कभी कोई तकनिकी कारण, कभी स्वतंत्र गवाहों का पक्षद्रोही हो जाना, कभी और कोई न कोई कारण, ऐसा आ जाता है जिस से मुक़दमे छूट जाते हैं । यह फैसला कि उत्कोच देने वाले की सूची में की गयी प्रविष्टि के ही आधार पर जांच नहीं की जा सकती, उन भ्रष्टाचारी तत्वों को बच निकलने का एक रास्ता ही देगी जिनके ऊपर रिश्वत लेने का प्रमाण , रिश्वत देने वाले के बही खातों में दर्ज़ है । रिश्वत देने वाला , और ख़ास कर व्यापारी वर्ग कभी भी दिए गए रिश्वत के बारे में खुल कर नहीं कहते हैं । वे व्यक्तिगत बात चीत में जो आरोप घूसखोरी के लगाते हैं , वही वह लिख कर कभी नहीं देते है । इसका एक मात्र कारण यह है कि वे तंत्र से भिड़ कर अपने व्यापारिक हितों पर कुठाराघात नहीं करना चाहते हैं । ऐसी स्थिति में तंत्र ही कोई ऐसा  स्वयंशुचिता का तंत्र विकसित करे जिस से भ्रष्टाचार के इस रोग से मुक्ति मिल सके या यह कम हो सके । सुप्रीम कोर्ट की यह आशंका कि इसका दुरुपयोग हो सकता है , भी सही मान लें तो भी प्रश्न केवक जांच कराने का है न कि उन प्रविष्टियों के आधार पर अभियोग चलाने का ।

( विजय शंकर सिंह )

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