प्रधानमंत्री जी की नई मौद्रिक नीति से कालाधन और भ्रष्टाचार पर कितना असर पड़ेगा यह तो भविष्य ही बताएगा पर यह निश्चित है कि, यह एक साहसिक कदम है और बेहतरी की उम्मीद में उठाया गया है । आर्थिक समाचार पत्रों में भी अभी बहुत कुछ नहीं आ रहा है । हो सकता है एक्सपर्ट्स अभी अध्ययन कर रहे हों और मामले को परख रहे हों । पर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उनसे यह आभास मिल रहा है कि, मध्यम वर्ग और ट्रेडर्स कम्युनिटी, तथा रोज़मर्रा के काम करने वाले और वह लोग जो अभी तक डेबिट कार्ड की संस्कृति नहीं अपना पाये हैं , अधिक प्रभावित होंगे । यह प्रभाव दीर्घकालिक नहीं होगा, यह उम्मीद भी की जानी चाहिए । यह कोई नयी बात नहीं है । आर्थिक कदमों के कारण थोड़ी बहुत दिक्कतें आती हैं । हम इन्हें टीथिंग ट्रबल कह सकते हैं । नोट बन्द का यह फैसला भी भारत के आर्थिक इतिहास में पहली बार नहीं हुआ है । भारत में 1938 में पहली बार 1000 और 10000 के नोट चलन में आये थे । पर आज़ादी के एक साल पहले इसे बन्द कर दिया गया । उस समय ज्वाहर लाल नेहरू भारत के अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री थे । तब प्राइम मिनिस्टर नहीं उन्हें प्रीमियर कहा जाता था । 1954 में सरकार ने 1000, 5000, 10,000 रूपये के नोट फिर से जारी किये । इन नोटों को जब 1978 में जब मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री थे तो बन्द कर दिया गया था । 1000 रुपये का जो नोट बंद हुआ है वह 2001 में यूपीए सरकार ने जारी किये थे । अब योजना 2000 के नए नोट लाने की है । सुना है इस पर कुछ नैनो चिप जैसी तकनिकी होगी । पर आरबीआई ने इस चिप के बारे में अभी कुछ नहीं कहा है । जो भी है वह सोशल मिडिया पर ही है ।यह फैसला जो अचानक हुआ दिखता है वह अचानक नहीं है । घोषणा ज़रूर अचानक हुयी है । यह एक ऐसा फैसला है जिसका असर देश के हर नागरिक पर पड़ेगा । सरकारें ऐसे फैसले बहुत सोच समझ कर लेती है ।
इकोनॉमिक्स टाइम्स के दिनांक 19 मई के अंक में नरेंद्र नाथन की एक स्टोरी छपी थी । उस खबर के अनुसार, 29 अप्रैल को देश में कुल 16 लाख पचास हज़ार करोड़ की मुद्रा प्रचलन में थी । यह राशि पिछले वर्षों की तुलना में अधिक थी । यह वृद्धि 15.32 प्रतिशत की थी । जुलाई 2011 के बाद की यह सबसे अधिक वृद्धि थी। पहले यह समझा गया कि इस वृद्धि का कारण राज्य विधानसभाओं के चुनाव होंगे । पर बाद में यह तर्क उचित नहीं प्रतीत हुआ । फिर इसका कारण बैंको में नकदी जमा की सीमा 50 हज़ार से अधिक पर पैन नंबर की अनिवार्यता को माना गया । पर यह कारण भी सबल नहीं लगा । फिर शक नक़ली नोटों पर गया । आईएसआई अक्सर नेपाल और बांग्ला देश के माध्यम से देश में नक़ली नोटों को भेजती रहती है । ऐसा कोई मुश्किल से ही होगा जिसे कभी हज़ार या पांच सौ के नक़ली नोट मिले न हों । इस से न केवल मुद्रा स्फीति बढ़ रही थी बल्कि ऐसा धन देश विरोधी कृत्यों में भी खप रहा था । यह भी एक प्रकार की युद्ध कला है । 1805 - 12 में फ्रांस के नैपोलियन ने जब रूस पर हमला किया था तो उसने भारी संख्या में नकली रूबल छाप कर रूस में फैला दिए थे । इस से रूस की तत्कालीन अर्थ व्यवस्था पर बहुत ही बुरा असर पड़ा था । टॉलस्टॉय ने अपने एपिक उपन्यास " युद्ध और शांति " में तत्कालीन रूसी समाज पर इस युद्ध का क्या प्रभाव पड़ा था, को बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है । पर इस उदाहरण को आज के भारत की अर्थ व्यवस्था से उसे जोड़ कर न देखें । यहां की विराट अर्थ व्यवस्था पर कोई गम्भीर प्रभाव नक़ली नोटों के प्रसार ने नहीं डाला है पर अगर इसे अभी नहीं रोका जाता तो आगे स्थिति और बिगड़ती ही । इन सब से अघोषित और काला धन बढ़ रहा था वह या तो रीयल स्टेट में खप रहा था या सोने में । सोने में काले धन का प्रवाह रोकने के लिए, सोने के आयात पर अंकुश लगाए गए और साथ ही सोना खरीदने के लिए नकद राशि की सीमा को कम किया गया । इन सब के कारण बैंकों की जमा दर पर असर पड़ रहा था और उनकी जमा दर स्थिर हो गयी थी । रिजर्व बैंक ने तब अध्ययन किया और पाया कि 80 प्रतिशत मुद्रा जो चलन में है वह 500 और 1000 रूपये के नोटों के रूप में है । तब सरकार के लिए इन नोटों का अमुद्रीकरण करना आवश्यक हो गया । पहले 1000 रूपये के नोटों के ही बदलने की बात चली थी । पर 500 की भी संख्या भी कम नहीं थी इसलिये दोनों ही प्रकार के नोटों को बदलने का फैसला किया गया ।
पूँजीपतियों में भी हम जिन पर शक करते है कि वे काले धन की खान है, दरअसल उनसे अधिक काला धन उन के पास है जिन्होंने धन भ्रष्टाचार और अन्य साधनों से कमाए हैं । बड़े उद्योगपतियों का अधिकतर काम धाम चेक, ड्राफ्ट , कार्ड या ऑनलाइन होता है और उनके अधिकतर खर्चे उनकी कंपनियाँ उठाती हैं । उनके यहां अर्जित होने काला धन भी किसी न किसी सिस्टम से अर्जित होता है और उसी सिस्टम से रंग बदलता रहता है । उनका निवेश भी भूमि , सोना , शेयर, तथा कंपनियों में होता रहता है । कंपनिया भी तमाम हथकंडे अपना कर इस धन को काला सफ़ेद करती रहती है । सभी बड़े उद्योगपतियों के अपने ट्रस्ट और धर्मादा संस्थाएं , स्कूल कॉलेज तथा अन्य ऐसी संस्थाएं होती हैं जो उनके काले धन को विनियमित करती रहती हैं । इन संस्थाओं को राजनीतिक हस्तियों का आशीर्वाद भी प्राप्त है और उन्हें टैक्स एक्सपर्ट्स की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं । अतः वे इस मुद्दे पर संस्थागत रूप से भी सबल रहते हैं । यह माया का विकट जाल है । और यही उच्च स्तर पर राजनीतिक भ्रष्टाचार की जननी भी । यह मायाजाल अंग्रेज़ी में कॉर्पोरेट का अंध पक्ष जिसे मैं कहूँगा, देश के अंदर एक प्रकार की समानांतर अर्थ व्यवस्था है। देखना यह है कि प्रधानमंत्री के इस कदम से यह तबका कितना प्रभावित होता है ।
दूसरा वर्ग ट्रेडर्स या मझोले व्यापारियों का है । इन व्यापारियों का सारा लेनदेन नकदी में ही होता है । चाहे आभूषण हो या अनाज या डॉक्टर को देना हो , या अन्य खर्चे हों सारा लेनदेन नकदी में होता है । अब ऑनलाइन और नेट बैंकिंग का चलन बढ़ा है , पर अभी भी यह नयी पीढी में ही है । हम जैसे लोग एटीएम ज़रूर रखते हैं पर डेबिट कार्ड और नेटबैंकिंग की संस्कृति से अभी उतने सहज नहीं हो पाये हैं । यह तबक़ा अधिक परेशान भी है । किसी के पैसे फंसे हैं तो कोई 1000 500 के नोट नहीं ले रहा है , तो कोई इनके भुगतान रोके हुए है । इस प्रकार 80 प्रतिशत व्यापार की शृंखला जो बनी हुयी है वह इस समय दुविधा में है । ज़ाहिर है इस नकदी लेनदेन में अधिकतर धन बिना कर चुकाए होगा । ऐसे में यह बिना कर चुकाया धन डूब भी सकता है । कुल मिला कर जो बात सामने आ रही है अभी स्थिति तो यही है ।
तीसरा तबक़ा, राजनेताओं और अफसरों और उन लोगों का है जो भ्रष्टाचार से अर्जित धन पर कुकुरमुत्ते की तरह बैठे हैं । सबसे अधिक यही नुकसान में रहेंगे । रखे हुए धन का क्या जुगाड़ यह करते हैं यह भी बाद में ही पता चलेगा । पर जो धन इन्होंने 500 और 1000 रूपये के नोटों में रख रखे हैं वे सच में कागज़ के टुकड़े ही साबित होंगे ।
राजनेताओं का धन भी , विशेष कर बड़े नेताओं का कहीं न कहीं निवेशित रहता है । आप पाइएगा कि हर बड़े नेता का कोई न कोई ट्रस्ट या फाउंडेशन या एनजीओ है । यह सब उनको प्राप्त काले धन को खपाने का ही उपक्रम है । पार्टी फण्ड में भी जो धन रहता है वह भी उन्ही नेताओं के काम आता है, जिनकी हैसियत पार्टी में बहुत मज़बूत होती है । पर इस कदम से उन चमचे टाइप और मध्यम परजीवी नेताओं और छुथभइयों पर बहुत पड़ेगा जिनका सारा साम्राज्य ही वसूली, रंगदारी, माफिया गिरी से अर्जित धन पर निर्भर है । उम्मीद है राजनीति में कुछ शुचिता आएगी ।
कुछ मित्र इसे मास्टर स्ट्रोक कह रहे हैं । राजनीति में मास्टर स्ट्रोक एक्शन के बाद परिणामों पर भी निर्भर करता है । आर्थिक सुधार और निर्णयों का असर देर में दीखता है । हमें आशा करनी चाहिए कि यह मास्टर स्ट्रोक साबित हो । पर कभी कभी मास्टर स्ट्रोक बॉउंड्री पर कैच भी हो जाता है । पर मैं आशान्वित हूँ कि यह कदम अपने उद्देश्य में सफल होगा ।
( विजय शंकर सिंह )
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