Friday, 18 November 2016

दुष्यन्त कुमार की एक ग़ज़ल - पुराने पड़ गए हैं डर , फेंक दो तुम भी / विजय शंकर सिंह

पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी

लपट आने लगी है अब हवाओं में
ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी

यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते
इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी

तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो—चार पत्थर फेंक दो तुम भी

ये मूरत बोल सकती है अगर चाहो
अगर कुछ बोल कुछ स्वर फेंक दो तुम भी

किसी संवेदना के काम आएँगे
यहाँ टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी. !!

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दुष्यन्त हिंदी के विद्रोही ग़ज़लकार है । ग़ज़ल मूलतः उर्दू से हिंदी में आयी । हिंदी के काव्य शास्त्र में छंद , जिनसे कविता बनती है में ग़ज़ल नहीं है । पर उर्दू के दो पंक्ति के शेरों ने जिनकी कमाल की संप्रेषणीयता होती है से ग़ज़ल की धारा बह निकली । दुष्यन्त ने इस विधा में महारत हासिल किया और बहुत सी ग़ज़लें लिखी । उनकी अधिकतर रचनाएं सत्ता के खिलाफ है । सत्ता में व्याप्त जड़ता, अहमन्यता, और ऐंठापन के विरुद्ध उन्होंने आवाज़ उठायी और जिन प्रतीकों को चुना उस से उनके एक एक शेर की धार बहुत ही पैनी है । 1974 / 75 /76 के दौरान जो आपातकाल लगा था, तब दुष्यन्त की गज़लें बहुत ही लोकप्रिय हुयी थी। सत्ता का विरोध देश का विरोध कभी भी नहीं है । बल्कि सत्ता के अहंकार , व्याप्त भेदभाव , और उसकी जड़ता का विरोध न कर उसके सामने दुम हिलाना देशद्रोह है ।

( विजय शंकर सिंह )

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