Sunday 20 November 2016

फैज़ अहमद फैज़ की पुण्य तिथि 20 नवम्बर पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि / विजय शंकर सिंह




महान शायर फैज़ अहमद फैज़ साहब की आज पुण्य तिथि है । उनकी यह नज़्म पढ़ें। यह नज़्म देश की आज़ादी पर है । फैज़ साहब को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।

सुबह ए आज़ादी.

ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं।

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं ।
फ़लक के दश्त में तरों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज् का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़िना-ए-ग़म-ए-दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से ।
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकरती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन।

सुना है हो भी चुका है फ़िरक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई ।
( शब् गज़ीदा - रात की डरी हुयी,  पुर असरार - रहस्यमय, करीं - निकट,  फ़िराक ए ज़ुल्मत ए नूर - अँधेरे और उजाले का अलगाव ,  विसाल ए मंज़िल ओ गाम - कदम और मंज़िल का मिलने, अज़ाब ए हिज़्र - विरह के कष्ट, चारा ए हिज्राँ - विरह का समाधान )

फैज़ उस तबके के थे जो भारत की आज़ादी का यह स्वरुप नहीं चाहते थे। देश आज़ाद हो और बँट भी जाए यह उनकी सोच नहीं थी। उनकी सोच ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पतन था। वह धर्म आधारित राज्य की अवधारणा के खिलाफ थे। यहां यह इक़बाल से अलग थे। क़ौमी तराना , सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने के बाद भी इक़बाल इस्लाम आधारित एक स्वतंत्र देश की अवधारणा स्थापित करते हैं तो आगे चल कर पाकिस्तान की नींव बनती है। आज के जैसा पाकिस्तान इक़बाल चाहते थे या नहीं यह तो कहना मुश्किल है पर पाकिस्तान के विचार की शुरुआत उन्होंने ही की थी। फैज़ उस समय भी इस धार्मिक सोच से अलग थे। उनका चिंतन कमज़ोरों , मज़दूरों और मज़लूमों को केंद्रित था। तभी वह कहते हैं , ' जब तख़्त गिराए जाएंगे और ताज़ उछाले जाएंगे।  उनकी यह सोच तत्कालीन पाकिस्तान की सरकार को सदैव अखरती रही। उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। उन्होंने अपनी पत्नी को जो पत्र लिखे थे उनका संग्रह सलीबें मेरे दरीचे में संकलित है , जिससे उनके सोच और मनोभावों का पता लगता है। 

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फैज़ अहमद फैज़ साहब का जन्म 1911 में सियालकोट जो अब पाकिस्तान में है में हुआ था । इन्होंने अरबी और अंग्रेज़ी साहित्य में एमए किया था । अमृतसर में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हुए और 1928 से उन्होंने लिखना शुरू किया । 1964 में कराची के अब्दुल्ला हारून कॉलेज के प्रिंसिपल बने और 1968 में उन्होंने इरादा ए यादगार ए ग़ालिब की स्थापना की । 1969 में उन्होंने पाकिस्तान में ग़ालिब शती समारोह का आयोजन भी किया था । 1962 में इन्हें लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया । वे अफ्रो एशियाई संघ की पत्रिका लोटस के संपादक भी थे । फैज़ साहब एक प्रगतिशील विचारधारा के शायर थे । उनकी विद्रोही नज्मो और ग़ज़लों के कारण पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें 1951 और 1958 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था । फैज़ का निधन लाहौर में 20 नवम्बर 1984 को हुआ था । फैज़ भारतीय महाद्वीप के अग्रणी साहित्यकारों में से एक थे ।

उनकी रचनाएं -
नक़्श ए फरियादी,
दस्त ए सबा,
ज़िंदानामा,
दस्त ए तह ए संग ,
सर ए वादी ए सीना,
शाम ए सहर ए यारां,
मेरे दिल मेरे मुसाफिर ( कविता संग्रह )
मीज़ान ( निबंध संग्रह )
सलीबें मेरे दरीचे में ( पत्नी के नाम लिखे पत्रों का संकलन )
मता ए लौह ओ कलम ।

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फैज़ साहब की यह नज़्म उनकी आखिरी रचना है । नवम्बर , 4 को उनकी मृत्यु के पूर्व लिखी गयी यह नज़्म पढ़ें ।

बहुत मिला, न मिला ज़िंदगी से, ग़म क्या है
मता ए दर्द वहम है तो बेश ओ कम क्या है ।

हम एक उम्र से वाकिफ है , अब न समझाओ,
कि लुत्फ़ क्या है, मेरे मेहरबाँ सितम क्या है ।

करे न जग में अलाव तो शे'र किस मक़सद,
करे न शहर में जल थल तो चश्म ए नम क्या है ।

अज़ल के हाँथ कोई आ रहा है, परवाना,
न जाने आज की फेहरिस्त में रक़म क्या है ।

सजाओ बज़्म, ग़ज़ल गाओ, जाम ताज़ा करो,
बहुत सही ग़म ए गेती, शराब कम क्या है ।

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1928 में फैज़ साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी तब वे इंटरमीडिएट के छात्र थे । उस ग़ज़ल का यह शेर भी पढ़ लें ।
लब बंद हैं साक़ी , मिरी आँखों को पिला दे,
वो जाम , जो मिन्नतकश ए सहबा नहीं होता ।
( मिन्नतकश ए सहबा - मदिरा के लिए इच्छुक )

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उर्दू साहित्य में फैज़ को हम ग़ालिब और इकबाल के स्तर पर रख कर देख सकते हैं । यूँ तो साहित्य में किसी की भी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है । हर लेखक के सोचने समझने और परखने का ढंग और दृष्टिकोण अलग अलग होता है । पर मीर , ज़ौक़ और ग़ालिब का एक काल था और इक़बाल,  फैज़ और फ़िराक़ का अलग काल था । मीर अपनी  अत्यंत लावण्यमयी ग़जलों के लिए विख्यात हैं तो ज़ौक़ में दरबारीपन हावी है । वे दरबार की सीमा नहीं तोड़ पाये । ग़ालिब तो ग़ालिब ही हैं । हर विषय को अपने अलग अंदाज़ में कहने का निराला ढंग उन्हें अपने समकालीनों को तो छोड़ दीजिये , अपने पूर्ववर्ती और बाद में हुए शायरों से भी , अपने इसी अंदाज़ ए बयानी के कारण अलग करता  हैं । इक़बाल मूलतः एक दार्शनिक शायर थे । उनकी रचनाओं में दर्शन का बार बार दर्शन होता है । जावेदनामा पढ़िए और इसमें सनातन धर्म दर्शन की झलक मिलेगी । इस्लाम का समतावाद और एकेश्वरवाद उन्हें बराबर लुभाता रहा है। फैज़ इंक़लाबी शायर थे । उनके कलाम में प्रगतिशील तत्व और मार्क्सवादी चिंतन का स्पष्ट प्रभाव है । लेकिन उन्होंने प्रेम और रोमांस पर भी बहुत अच्छी रचनाएं लिखी हैं । उनका रूमानिपन भी उनके इंक़लाब को छुपा नहीं पाती है । उनके रूमानी भाव में भी इंक़लाबी तेवर साफ़ साफ़ दिखता हैं । उनकी रचनाओं में उदासी , दर्द और कराह के साथ साथ उम्मीद की एक अदम्य आस भी छिपी हुयी है । घने अन्धकार में भी खूबसूरत सुबह की उनकी कल्पना और आशा उनकी जिजीविषा को ही रेखांकित करती है।  वह सुबह कभी तो आयेगी का भाव उनकी  रचनाओं में  नाउम्मीदी के बीच उम्मीद की एक हल्की पर स्पष्ट रेख सदैव दिखती रहती है।  उनकी यह रचना पढ़ें ' हम देखेंगे ' । यह एक बेहद मशहूर नज़्म है । इनकी शायरी अपने समय की मानवी, समाजी और सियासी सच्चाइयों को अर्थ प्रदान करती हुयी भाषायी दीवारों को तोड़ कर सबको आह्लादित करती है ।
" अब के तो खिजां ऐसी ठहरी , वो सारे ज़माने भूल गए ,
  जब मौसम ए गुल हर फेरे में आ आ के दुबारा गुज़रे था।  "

( विजय शंकर सिंह ) 

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