कितने बदल गए हैं वे ,
मुंह में लगे खून को,
कितनी आसानी से चाट कर
मुस्कुराहटों के नकली मुखौटे ओढ़ ,
शातिराना मासूमियत लिए ,
दिलासे परोस रहे हैं,
कितने बदल गए हैं वे !
सुनो, ज़रा तुम उनको ,
दहकती आग पर, जिन्होंने
पानी के छींटे तक नहीं डाले कभी,
भड़का कर सेंकते रहे रोटियाँ ,
और मुस्कुरा कर,
खेलते रहे उन्ही रोटियों से वे,
कितने बदल गए हैं , वे !
शीरीं बयानी तो देखो
उनकी,जुबां नहीं
सिर्फ बयान शीरीं हैं !
क्या अजब बयार चली है जंगल में ,
गुर्राने वाली आवाज़ लिए दरिंदे ,
पूंछ समेटे आज ,
लपलपाती ज़ुबान ,और
कितनी अदाकारी से ,
सुन रहे हैं शिकवे जंगल के !
कितने दिन रहेगा यह मौसम ,
जंगल को तो जंगल ही रहना है।
उनकी ओढ़ी हुयी, मुस्कराहट ,
और मासूमियत उनकी ,
फिर बदल जाएगी ,
उन्ही खौफनाक गुर्राहटों में ,
जो बन चुका है ,
स्थायी भाव उनका !!
( विजय शंकर सिंह )
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