Tuesday, 15 November 2016

एक कविता, निर्मम इतिहास याद किसे रहता है / विजय शंकर सिंह

वाटरलू , 
वह एक निर्णायक युद्ध था ।
याद आती रही, अक्सर
यह पराजय ।

निराश और त्रासद भरे दिन
ज़ुल्मत भरी रातें
उदास और
खोखली चमक लिए सूरज,
जिनमे वह अपनी प्रेयसी के लिए
दिल को छू लेने वाली
प्रतीकों और विम्बों से सजी
कविताओं को लिखता रहता,
मिटाता रहता ।

सोचता रहता था, वह
उन युद्धों को
जिसमें वह  शौर्य के साथ
एक, एक कर  राज्यों को
भूलुंठित करते हुए
ईश्वर का अवतार बन गया था ।

रूस की कड़कड़ाती सर्दी ,
सैनिकों के क्षत विक्षत शव,
जले हुए गाँव के गाँव ,
सब कुछ जीत कर भी
पराजय के एहसास के साथ
लौटता हुआ वह,
सब कुछ फ़्लैश बैक की तरह,
जेहन में उतरता रहा , डूबता रहा !

द्वीप का एकांत कारागार
संसार से अलग करती हुयी
पत्थर की हृदयहीन दीवारें,
लहराता और डराते हुए सागर की ध्वनि
उदासी की कितनी कहानियों के
अक़्स उसे अपने ही,
खोल में समेटते जा रहे थे ।

जनप्रियता, त्राता, अवतार के,
भारी भरकम शब्द,
अपना अर्थ खोते हुए,
इतिहास के पन्नों में
शनैः शनैः
जैसे थक कर, डूबता है सूरज,
उसकी आँखों से,
ओझल होते रहे ।

अहंकार और जनप्रियता
कभी कभी,
दृष्टिदोष भी लाती है .
खुद की आँखें खुद के
प्रकाश से चुंधियाती
मिचमिची सी
खुद को संसार से अलग कर देती हैं .
लोकप्रियता और
अहम्  और आत्मश्लाघा का
यह माया लोक
पतन की ओर उठते  हुये  क़दम का
प्रथम चरण होता है ।
पर निर्मम इतिहास , याद किसे रहता है !!

© विजय शंकर सिंह

1 comment:

  1. वाह, निर्मम इतिहास किसे याद रहता है ।

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