Friday, 25 November 2016

एक कविता - सर्दियां फिर आ गयी हैं / विजय शंकर सिंह

एक कविता,
सर्दियाँ फिर आ गयी हैं !

मैंने कहा था न सर्दियां आएंगी ,
सूरज जल्दी से रुखसत हुआ करेगा ,
और सुबह भी देर से काम पर आएगा ,
रातें लंबी और दिन जल्दी बीतेंगे ,
लोग जो देर तक दरवाजों के इर्द गिर्द
दुनिया जहान की बातें किया करते थे
अब अपने अपने दड़बों में जल्दी दुबक जाएंगे ।

रात के सन्नाटे बढ़ेंगे , और
मेरे घर के इर्द गिर्द फैला हुआ जंगल
कुहरे का लिहाफ ओढ़े
सूरज की प्रतीक्षा में यूँ ही उबासियाँ लेता रहेगा .
दिनभर की मेहनत के बाद,
लिहाफ में धँसे हुए,
कुर्सी के हत्थों के बीच,
कभी कुनमुनाते हुए , तो कभी,
उदास से जम्भाईए लेते हुए ,
कुछ पहरेदार,
तारों में, सहर की आमद ढूंढते रहेंगे ।

ऐसी ही किसी खामोश ,
रात के अँधेरे पलों में
दरवाज़े पर हलकी सी एक थाप
चौंका देती है मुझको ,
कौन आया इस वीरान और सन्नाटे भरी निशा में ,
मैं तो मुन्तज़िर भी नहीं किसी का ,
और, तलबगारी
तो अरसा हुआ छूट गयी ,
हवा के किसी पागल और आवारा टुकड़े की
शरारत थी यह थाप ।

ऐसे ही किसी रात,
अँधेरा जब पसर रहा हो तो,
तैरते हुए यादों के मेघ पर, आ जाना
ढेर सारी बातें अभी बाकी हैं ,
और सुनों
सर्दियां फिर आ गयीं हैं
और सन्नाटे भी फिर पसरने लगे हैं !
रातें धुंधली और दराज़ होने लगी है !!

( विजय शंकर सिंह )

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