Sunday, 2 October 2016

महात्मा गांधी और शास्त्री जी - महानता के दो आयाम / विजय शंकर सिंह


आज 2 अक्टूबर है और आज ही देश के दो महान सपूतों की जयन्ती भी है । गांधी जी के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा गया है , आगे भी लिखा और पढ़ा जाता रहेगा । गांधी से जो सहमत हैं वह तो उन्हें याद करेंगे ही और जो असहमत हैं वह भी उन्हें भुला नहीं पाएंगे । भारत सरकार ने गांधी जयन्ती को स्वच्छता के संकल्प के रूप में मनाने का निर्णय किया है पर स्वच्छ रहना या सफाई रखना गांधी दर्शन का एक वाह्य भाग है । यह खोल का ऊपरी ढक्कन है । असल चीज़ जो अंदर है उसकी तरफ जाने और उसकी चर्चा करने से कुछ लोग कतराते हैं । कुछ को वह असहज लगती है । कुछ इसे इस लिये ढंके रहने देना चाहते है , कही न कहीं उनके दर्शन और सोच से गांधी के वे विचार मेल नहीं खाते हैं । पर सब के सब से विचार मिलें यह न तो संभव है और न ही उचित । एक वाक्य में अगर कहा जाय कि गांधी का मूल मन्त्र क्या था तो उसका उत्तर मैं यह दूंगा कि, अन्याय का सतत विरोध । अन्याय का सतत विरोध ही उद्देश्य है । अहिंसा और सत्याग्रह आदि तो उसके साधन है ।

गांधी जी का कोई भी आंदोलन उनके सिद्धांतों के आधार पर नहीं चल सका । पहला असहयोग आंदोलन उन्होंने अहिंसा के आधार पर चलाने का आह्वान किया था जिसे चौरीचौरा में भयानक हिंसा के कारण उन्होंने वापस ले लिया । 1942 का भारत छोडो आंदोलन तो आक्रोश की अराजक और हिंसक अभिव्यक्ति ही थी । भारत के बंटवारे के थोड़ा पहले और बाद जो व्यापक हिंसा हुयी उस से इनके सिद्धांत केवल सुभाषित बन कर रह गए । फिर भी 1914 से 1948 तक गांधी की ही चली । वह देश के सभी नेताओं में सबसे ऊंचे थे । जो उनके विरोधी थे वे भी उन्हें नकार नहीं पाये । सुभाष बाबू गांधी के ही कारण कांग्रेस छोड़ कर अलग हुए और उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की, फिर वे विदेश निकल गए, आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का गठन किया और जो पहली सैनिक ब्रिगेड उन्होंने बनायी उसका नाम भी उन्होंने गांधी ब्रिगेड रखा । आज़ाद हिन्द रेडियो ने भी गांधी को ही देश की आज़ादी का अग्रणी नेता माना । पर अपने समय के इस महानतम शख्सियत की हत्या भी हुयी । हत्या का मोटिफ भी इनकी लोकप्रियता, जादुई व्यक्तित्व और जनता की नब्ज़ पर ज़बरदस्त पकड़ बना । महानता , लोकप्रियता और हत्या क्या विडम्बना पूर्ण समीकरण है ।

शास्त्री जी के लिए केवल एक ही वाक्य कहना हो तो वह यह होगा कि, नेतृत्व की पहचान संकट काल में होती है, इसके वे स्पष्ट उदाहरण हैं । बनारस के उस पार राम नगर एक छोटा सा क़स्बा है । वही जब आप नगवा के सामने घाट से रामनगर के किले के उत्तर की और रेतीले तट पर कदम रखियेगा तो थोडा करार पर चढ़ने पर कुछ लोग बताएँगे कि, बायीं तरफ की गली में शास्त्री जी का पुश्तैनी घर है । वही से वे गंगा पार कर के बनारस पढ़ने आते थे । 1929 में वे इलाहाबाद आ गए और भारत सेवक संघ से जुड़ गए । वही उनकी निकटता जवाहरलाल नेहरू से हुयी । वह निकटता जीवन भर बनी रही । आज़ादी के बाद में नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल हुए । रेल मंत्री रहते हुए एक रेल दुर्घटना होने पर उन्होंने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था । फिर भी नेहरू ने उन्हें निर्विभागीय मंत्री बना कर अपने साथ ही रखा । वह नेहरू के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बन कर उभर चुके थे । 27 मई 1964 को नेहरू के निधन पर वह वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे।

भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उनके कार्यकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में उन्होंने उस संकट काल मैं देश को सक्षम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 
कद में छोटे पर विराट व्यक्तित्व वाले इस महापुरुष को उनकी जन्म तिथि पर सादर और विनम्र स्मरण ।

( विजय शंकर सिंह )

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