तीन तलाक़ के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाएं खुल कर सामने आ रही हैं । उन्होंने एक अभियान भी चला रखा है । मुस्लिम समुदाय का एक प्रगतिशील तबक़ा भी खुल कर बोलने लगा है । क़ुरआन जिसकी आड़ ले कर अक्सर उलेमा या धर्मगुरु धर्म की बात कहते रहते हैं से भी जानकार लोग यह उद्धरण दे रहे हैं कि कुरआन के अनुसार तीन तलाक़ मान्य नहीं है । पर एक रूढ़िवादी तबक़ा ज़रूर शरीयत और कुरआन के नाम पर इस महिला विरोधी कदम का विरोध कर रहा है । यह वही तबक़ा है जो हर प्रगतिशील कदम को बेड़ियों से बाँध देता है ।
फिर सरकार को इस ओर कदम बढ़ाने से रोक कौन रहा है ?
बार बार देवबंद और कठमुल्लों को ही क्यों उद्धृत किया जा रहा है ?
उस प्रगतिशील तबके की, जो इस अधार्मिक और मर्दवादी सोच से ग्रस्त प्राविधान के विरुद्ध हैं , क्यों नहीं सुनी जा रही हैं ?
प्रधान मंत्री जब स्वयं मुतमईन हैं तो वे इस तरफ बढ़ते क्यों नहीं ?
अगर वे सोचते हैं कि, सारी मुस्लिम जमात एक जुट हो कर खड़ी होगी तो यह असंभव है । लार्ड विलियम बेंटिंक के समय में भी जब सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन रॉय आदि खड़े हुए थे तो बहुसंख्यक बंग समाज के लोग इसके विरुद्ध थे । तब भी धर्मशास्त्रों की व्याख्या मनमाने रूप से की गयी थी । राम मोहन रॉय का बहुत विरोध हुआ था । पर आज वे आधुनिक काल में भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत माने जाते हैं । उनके नेतृत्व में एक छोटे से तबके ने हिम्मत की, और बेंटिक के काल में सती प्रथा को अपराध घोषित कर दिया गया । फिर तो स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, आदि सुधार अपने आप प्राथमिकता में आ गए ।
मुस्लिमों में भी सभी तीन तलाक़ को नहीं मानते हैं । शिया समुदाय में तलाक की यह प्रथा मान्य नहीं है । सुन्नियों के भी कुछ फिरकों में यह प्रथा कम चलन में है । तलाक़ का प्रतिशत बहुत नहीं है , पर इस प्रथा का दुरुपयोग बहुत हैं। उलेमा को तीन तलाक की भी उतनी चिंता नहीं है जितनी इस बात की है कि अगर उन्होंने विरोध करना कम नहीं किया तो और धर्मजन्य बुराइयां भी निशाने पर आ जाएंगी । उन्हें अपनी प्रासांगिकता खोने का भय है । जहां तक समान नागरिक संहिता का सवाल है, जब तक सरकार इसका कोई मॉडल ड्राफ्ट नहीं लाती तब तक यह कहना उचित नहीं है कि यह क्या होगा और इसका क्या स्वरूप सरकार चाहती है । विधि आयोग ने एक प्रश्नावली सबको भेजी है । उसने सबसे इन विषयों पर राय भी जाननी चाही है । पर इसका आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बहिष्कार किया है । यह बहिष्कार यह बताता है कि बोर्ड किसी भी वैचारिक बहस से बचना चाहता है । वह शुतुरमुर्गी आचरण कर रहा है । उसे अपने ऐतराज़ सार्वजनिक करने चाहिए ताकि उस पर बहस हो और उसकी धार्मिक स्थिति और बदलते परिवेश में उसकी भूमिका की पड़ताल हो सके । यह कुरआन सम्मत नहीं है इस लिए हम नहीं मानेंगे यह एक भागने का रास्ता हुआ । यह तो स्पष्ट हो कि, क्या कुरआन सम्मत नहीं है और कहाँ क्या लिखा है । बोर्ड अगर उस प्रश्नावली से सहमत नहीं है तो वह अपनी बात कह सकता है । विकल्प सुझा सकता है । यह बता सकता है कि कुरआन के अनुसार उचित और अनुचित क्या है । पर यह तभी सबके संज्ञान में आएगा जब बोर्ड अपनी बात सार्वजनिक करेगा ।
सरकार को 1985 के शाहबानों केस के समान अपने कदम नहीं खींचने चाहिए । और साथ ही इस मुद्दे को केवल यह दिखाने के लिए कि मुस्लिमों में स्त्री दशा दयनीय है , नहीं उठाना चाहिए । 11 करोड़ आदिवासियों की संस्था ने सामान नागरिक कानून नहीं लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया है । आदिवासियों के सारे कायदा कानून अलग होते हैं । वे सनातन धर्म शास्त्र से भी अलग होते हैं । रामायण और महाभारत काल में भी आटविक राज्यों का उल्लेख मिलता रहा है । शाहबानों के समय में भी सरकार ने 125 सीआरपीसी में संशोधन कर के एक बेहद मूर्खता पूर्ण और प्रतिगामी कदम उठाया था । यह उन मुल्लों का तुष्टिकरण ही था, जिन्होंने मुस्लिम वोटों की ठेकेदारी का जिम्मा ले रखा है । उस समय आरिफ मुहम्मद खान जैसे प्रगतिशील सोच के मुस्लिम नेता राजीव गांधी के इस कदम के विरोधी थे । पर तभी एक और मुस्लिम नेता और बड़े पत्रकार जो किशनगंज से कांग्रेस के सांसद थे ने राजीव गांधी पर शाहबानो मामले में संविधान संशोधन के लिए दबाव डाला । वे आज के भाजपा सरकार में विदेश राज्य मंत्री हैं । वे एम् जे अकबर हैं । अकबर प्रगतिशील सोच के माने जाते हैं । वे अंग्रेज़ी साप्ताहिक सन्डे, और समाचार पत्र एशियन एज के संपादक रह चुके हैं । उन्होंने नेहरू पर एक बेहद चर्चित पुस्तक भी लिखी है । पर वह प्रगतिशीलता कहाँ और कैसे तिरोहित हो गयी । यह आज तक नहीं समझा जा सका है ।
प्रधानमंत्री जी ने आज 24 अक्तूबर 2016 की महोबा की जनसभा में यह सवाल उठाया है । सुप्रीम कोर्ट भी अक्सर समान नागरिक संहिता के लिए निर्देश जारी कर रहा है । देश का प्रगतिशील जन मानस स्त्री विमर्श की बात करने वाला एक बड़ा समुदाय भी तीन तलाक़ के पक्ष में नहीं है । अतः इस सम्बन्ध में सरकार को अब आवश्यक कदम उठाने चाहिए । पर्सनल लॉ बोर्ड भी एक मॉडल निकाहनामे और तलाक़ के प्राविधान पर भी काम कर रहा है । लोग आगे की सोच रहे हैं । अब कुछ न कुछ किया जाना चाहिए । उलेमा और धर्म के ठेकेदारों की आड़ ले कर अगर इस मसले पर कदम खींचा गया तो यही सन्देश जाएगा कि, यह सब चुनावी बातें हैं । सरकार को तीन तलाक़ मामले का ड्राफ्ट सामने लाना चाहिए ताकि बहस हो एक ऐसा कदम उठाया जाय जिस से मुस्लिम महिलाओं की इस नारकीय और अतार्किक प्राविधान से मुक्ति मिल सके ।
( विजय शंकर सिंह )
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