Sunday 16 October 2016

एक कविता....... गुफ्तगू / विजय शंकर सिंह

गुफ्तगू जारी थी ,
खुद की खुद से ही ,
ख़याल उसका था ,
उलाहने और सवालात मेरे ।

कैसे हो ?
एक सवाल जो सब ,
सब से मिलने पर  ,
चेहरे पर ओढ़ी हुयी
स्वागती मुस्कान लिए
अक्सर पूछते हैं ,
उसने भी उछाल दिया मेरी तरफ !

रस्मी सवालात के जवाब भी
रस्मी ही होंगे न !
मैं रस्म भूल गया
भूल गया कि ,
खैरियत की पूछ रस्मी है
बिलकुल किसी घर के सजे धजे
ड्राइंग रूम की तरह !

कह बैठा ,
जब सामने नहीं हो ,
तो अंदाज़ तो लगा ही सकते हो
हाल और खैरियत का !!

( विजय शंकर सिंह )

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