भोपाल में एनकाउंटर हुआ । 8 जेल से भागे हुए विचाराधीन कैदियों का पुलिस ने पीछा किया और एक मुठभेड़ में मार गिराया । सामान्य लोग एनकाउंटर का केवल एक अर्थ समझते हैं कि मुठभेड़ में मार दिया गया । पुलिस और सीमा पर होने वाली दुश्मन की मुठभेड़ों को एक ही चश्मे से देखेंगे तो चीज़ें कभी कभी धुंधली दिखेंगी । सेना दुश्मन के क्षेत्र में दुश्मन से भिड़ती है । वहाँ अगर हम नहीं मारेंगे तो शर्तिया मारे जाएंगे । पर पुलिस मारने के उद्देश्य से मुठभेड़ नहीं करती है। उसका काम है अभियुक्त को पकड़ना और पकड़ कर कानून की प्रक्रिया का पालन करना । अब काम अदालत का है । यह भी सही है कि अदालतों में देर होती है, गवाह टूट जाते हैं, लोग गवाही देने नहीं जाते हैं, और मुल्ज़िम बरी हो जाते हैं । पुलिस ने जिसने इतने मेहनत से पता लगा कर मुल्ज़िम पकड़ा वह जब छूट जाता है तो पुलिस के मनोबल पर असर पड़े या न पड़े पर अपराधियों के मनोबल पर असर ज़रूर पड़ता है । कुछ अपराधी इतने दुर्दांत होते हैं कि उनकी गिरफ्तारी संभव भी नहीं होती और गिरफ्तार हो भी गए तो उनके खिलाफ कोई गवाही देता भी नहीं है। तब इलाके के जो लोग ऐसे अभियुक्तों से आज़िज आ चुके हैं वे चाहते हैं कि उनका एनकाउंटर हो जाय । उनके लिए एनकाउंटर एक कानूनी प्राविधान जैसा लगता है । वे अपने तर्क देते हैं कि जो पकड़वायेगा उसे ही मुल्ज़िम, जेल से छूट कर मार देगा । कभी कभी तो मुखबिर पुलिस से यह आश्वासन भी चाहता है कि, वह पकड़वा तो देगा पर वही उसे ठोंक देना । यह एक बेहद सामान्य सी बात मैं जैसा होता था वैसा लिख रहा हूँ । था, इस लिए लिख रहा हूँ, अब जब से मानवाधिकार संगठन, और संचार के साधन , नेट आधरित कैमरे जिसमे आप लाइव सब कुछ दिखा सकते हैं और सैकड़ों की संख्या में खबरिया चैनेल आ गए है तब से यह प्रवित्ति कम या बहुत कम हो गयी है । पुलिस उन अभियुक्तों को गिरफ्तार करने का प्रयास करती है और गिरफ्तार करते समय अगर गोलियों का आदान प्रदान होता है तो उसमे या तो मुल्ज़िम मरता है या पुलिस के लोग या दोनों या हो सकता है कोई भी न मरे । इस प्रकार सैद्धांतिक रूप से यही मुठभेड़ का फलसफा है ।
भोपाल मुठभेड़ के बारे में, जो भी खबरे आ रही हैं वह सभी परस्पर विरोधाभासी है । अखबारों की खबरों के आधार पर इसकी मीमांसा करना उचित नहीं होगा । पर सोशल मिडिया में जिस प्रकार से धर्म के आधार पर इस एनकाउंटर को ले कर ध्रुवीकरण हो रहा है वह शुभ संकेत नहीं है । आज धर्म को ले कर यह ध्रुवीकरण हो रहा है कल यह जाति को ले कर हुआ था कभी उत्तर प्रदेश में । 1980 से 83 तक उत्तर प्रदेस में बहुत अधिक मुठभेड़ें हुयी । उस समय आगरा और कानपुर रेंज का इलाक़ा दुर्दांत दस्यु गिरोहों से पटा पड़ा था । मेरी नयी नयी नौकरी थी । मैं अलीगढ और मथुरा में डीएसपी नियुक्त था । पुलिस बल पर खूब हमले होते थे । जाति के आधार पर दस्यु गिरोह बँट गए थे और इस जाति की मानसिकता की पैठ पुलिस बल में भी हो चुकी थी । उस समय सरकार भी आज़िज आ गयी थी और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे वीपी सिंह । सरकार ने एक अभियान चलाया था, दुष्ट दलन अभियान । और तब मुठभेड़ें बहुत हुयी थी । मुठभेड़ों के साथ एक बात तय होती है कि हर मुठभेड़ की शिकायत होती है । चाहे वह सच में मुठ भेड़ हो पर उस पर यही आरोप लगता है कि यह फ़र्ज़ी है और पकड़ कर मार दिया । यह मानसिकता आज भी बदली नहीं है । उस समय की मुठभेड़ों के बाद उत्तर प्रदेश के नेता विरोधी दल थे मुलायम सिंह । जिन्होंने सीधे आरोप लगाए कि यह मुठभेड़ें , जान बूझ कर पिछड़ी जाति के लोगों को बदमाश बता कर मारने के लिए की जा रहीं हैं । संयोग से उस समय के सभी बड़े और कुख्यात गिरोह यादवों के ही थे । बाद में जब मानवाधिकार संगठन सक्रिय हुए और लोगों ने शिकायतें की तो इनकी सीआईडी जाँचें शुरू हुयी तो कुछ मुठभेड़ें फ़र्ज़ी पायी गयीं और उनमे पुलिस के ही अधिकारी जिन्होंने मुठभेड़ों में भाग लिया था , जेल गए और हाल तक कइयों की इनमे सजा भी हुयी है ।
ऐसा नहीं ही कि उत्तर प्रदेस पुलिस ही इस मामले में सबसे अधिक निशाने पर रही हो । पर 80 से 84 के काल के बाद यही आरोप पंजाब पुलिस पर लगा कि उसने सिख आतंकवाद के नाम पर निर्दोष सिखों की हत्याएं की । पंजाब ने दस साल का समय आतंकवाद की आग में झुलस कर काटा है । वह एक असामान्य स्थिति थी । वह एक प्रकार का युद्ध काल था । पुलिस ने बहुत सख्त कदम उठाये । स्थिति सुधरी और धीरे धीरे पंजाब सामान्य होता चला गया । पर इसका खामियाजा भी पुलिस ने भुगता । जब पंजाब सामान्य हुआ और उसका उन्माद काल समाप्त हुआ तो फिर बहुत से मुठभेड़ों की शिकायतें हुयी और उनकी जाँचे भी हुयी । जो किसी समय उन मुठभेड़ों के नायक थे वे समाज के खलनायक साबित होने लगे । एक तेज़ तर्रार एसपी जिन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध जम कर लोहा लिया था, वे कई मामलों में हत्या के मुल्ज़िम बने और अंत में उन्हें आत्म हत्या करनी पडी । उस कठिन समय में उनके साथ कोई भी नहीं था । न तो विभाग न सरकार, और न ही किसी समय उनकी विरूदावली गाने वाले लोग । यह स्थिति गुजरात में, उत्तर प्रदेश में , जहाँ जहाँ भी मुठभेड़ें जाचों के घेरे में आयी हैं और फ़र्ज़ी साबित हुयी हैं वहाँ वहाँ ऐसी स्थिति आयी है ।
आज सोशल मिडिया बिलकुल बंटा हुआ है । यह विभाजन बहुत साफ दिख रहा है, बिलकुल ध्रुवीकरण के समान । यह ध्रुवीकरण राजनीतिक दलों को रास भी आता है । यह कोई छिपी बात नहीं रही अब । पर यह बेहद खतरनाक स्थिति है । पुलिस की पीठ थपथपाने वाले लोग, यह भूल जा रहे हैं कि यह चुनाव नहीं है । यह एक घटना है जिसकी जांच अनिवार्यतः होगी । मानवाधिकार आयोग का एक स्थायी निर्देश है, हर पुलिस मुठभेड़ की जांच मैजिस्ट्रेट द्वारा होगी । सीआईडी भी जांच कर सकती हैं । जांच उन समर्थकों के पीठ थपथपाने की संख्या पर नही बल्कि उन सुबूतों पर होगी जो जांच दल मांगेगा । तब केवल पुलिस ही निशाने पर रहेगी । एनकाउंटर अगर फ़र्ज़ी है तो यह न्यायिक हत्या भी है । राजनीतिक दलों के आक्षेप तो दलगत सोच और रणनीति से प्रभावित होते हैं । उन पर बहस करना समय की बरबादी होगी । पर जिन परिस्थितियों में यह घटना हुयी हैं उनमे कई सवाल उठते हैं और उन सवालों का उत्तर बिना गहन जांच के नहीं दिया जा सकता । भोपाल एनकाउंटर सही है या फ़र्ज़ी यह अभी केवल हम अपनी अपनी सोच से अनुमान लगा सकते हैं । सोच , वास्तविकता दिखाने में भी कभी कभी भरमाती है ।
कुछ मित्र अज़ीब तर्क देते हैं । वे कहते हैं मरे तो आतंकवादी ही है चाहे जैसे उन्हें मारो । उनकी बुद्धि पर तरस खाते मैं सिर्फ यह कहूँगा कि अगर कोई मुल्ज़िम सजा पा भी चुका हो और दुर्दांत आतंकी हो तो भी उसकी हत्या एनकाउंटर के रूप में पुलिस नहीं कर सकती है । यह हत्या ही होगी । और इसकी सजा सिर्फ फांसी ही होगी । फिर ये सब तो अभी विचाराधीन कैदी थे । विचाराधीन कैदी और सज़ायाफ्ता में फ़र्क़ होता है । उनके पास भागते समय हथियार कहाँ से आये । भोपाल एनकाउंटर के अन्य तथ्य अभी सामने आने दीजिये । अभी इस जेल से फरारी और मुठभेड़ पर बहुत सवाल उठ रहे हैं । ऐसी हालत में इसकी निष्पक्ष जांच होना बहुत आवश्यक है । और जाँचें सुबूतों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुँचती है भावुकता और धर्म व जाति के उन्माद के आधार पर नहीं ।
( विजय शंकर सिंह )