Monday 18 April 2016

रेल के डिब्बों में पानी - ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती है / विजय शंकर सिंह

जब सारी समस्याओं का निदान समस्या पीड़ितों के साथ मनभावन पोज़ में सेल्फ़ी लेना ही है तो मुझे फ़्रांस के सम्राट लुइ 16 के पत्नी का वह प्रसिद्ध डायलॉग याद आता है, जिसमे उसने रोटी नहीं तो केक क्यों नहीं खाते , कहा था । जिनकी प्यास ही बीयर , कोक और पेप्सी से बुझती है, और जो बिसलेरी को भी सब स्टैण्डर्ड मानते हैं , वह बेचारे देव पुरुष भला पानी की अहमियत क्या जानें । जब सारी संवेदनशीलता धर्म और उस से जुड़े कर्म काण्ड से ही आहत होने लगे तो भूख और विपन्नता की चिंता किसे है । जिस देश में जल और वन का अखंड आशीर्वाद प्रकृति ने दिया हो वहाँ पर हज़ार किलोमीटर  दूर से रेल से पानी भेजना पड़े इस से बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है । हालांकि यह पानी वाली रेल पहली बार नहीं भेजी गयी है । एक बार जब 1990 में राज कोट गुजरात में सूखा पड़ा था तो भी रेल पानी ले कर गयी थी । 1986 में जब चित्रकूट में पेय जल की किल्लत हो गयी थी तो भी इलाहाबाद से मानिकपुर तक रेल पानी ले कर गयी थी । पर उस रेल के डिब्बे का पानी क्या हमारे जन प्रतिनिधि जो हमारी सेवा के लिए इस मर्त्य लोक में शरीर धारण किये हैं, पीने का कष्ट करेंगे ? बिलकुल नहीं । वे इस पानी को पचा भी नहीं पाएंगे । इस पानी को भी आत्मसात करने और पचाने की क्षमता भी उसी अन्नदाता में है जो अपने श्रम से हमारी क्षुधा मिटाता है । वह शिव की तरह , गरल का पान कर जीवित है जब कि सारे देवता गरल दंश से डर कर भाग ही गए थे ।

अक्सर हम अखबारों में स्मार्ट सिटी, डिजिटल सिटी, सुपर टेक सिटी, पचासवीं मंज़िल पर तरण ताल, फाइव स्टार मॉल आदि आदि के लुभावने विज्ञापन देखते हैं। हम मिडिल क्लास के लोग इन मॉल्स और ऐसे ऐश्वर्य के स्वप्नलोक में कभी कभी जा कर फ़ोटो खींच कर खुद को उनके क्लास में घुसने की जबरन कोशिश करते हैं, जो हमें अपनी अजीब और हिक़ारत भरी निगाह से ही अक्सर देखते हैं। कभी ऐसे समाज में जाइए जहां आप मिडिल क्लास के हैं और हाइ सोसायटी के लोगों के बीच अचानक आ गए हो तो हाई सोसायटी के लोगों की देह भाषा आप को अचरज में डाल देगी ।  मैं अक्सर ऐसे लोगों के बीच गया हूँ। सौभाग्य से मैं एक अधिकार संपन्न सेवा में था तो मेरे प्रति उनका रवैया , ओढी हुयी विनम्रता थी। मैं विनम्रता के उधड़े हुए आवरण के बीच छिपी हुयी उनके चेहरे की भाषा पढ़ लेता था। अधिकार का मद जो भी थोडा बहुत होता है, वह मेरे में भी था और मैं उन्हें नज़रअंदाज़ कर जाता था । पर चाहे आप किसी भी सोसायटी के हों, या चाहे आप के हर निजी फ्लैट के साथ आप का तरणताल हो, पर जब जठराग्नि प्रज्वलित होगी तो वही याद आएगा जो अस्थि शेष किसान उपजाता है । और आज हज़ारों किसान आत्म हत्या कर चुके हैं । हम इन सब को दैवी आपदा कह के नहीं टरका सकते हैं। ईश्वर एक खूंटी की तरह हो गया है जिस पर हम वह सब लटका देना चाहते हैं जो पहनने और ओढ़ने योग्य नहीं रह जाता है । देवी आपदा कैसी ? दैव को अगर हम मानते हैं तो दैव ने कौन सी कृपा से देश को वंचित रखा है देश को ? विविध प्रकार की ऋतुएँ, नदियां , सागर, वनस्पतियाँ , औषधियां, क्या नहीं है यहां । खनिज की भी बात कर लें तो भी क्या कमी है ? पर जब हमारे ही सिर पर शैतान सवार हो तो दैव क्या करें !

विकास का नजरिया शॉपिंग मॉल , बुर्ज खलीफा टाइप अट्टालिकाएं, रेल की पटरियों पर दौड़ते राजमहल जैसी गाड़ियां नहीं बल्कि देश के हर नागरिक को जीने की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक उपकरण होना चाहिए । गाँव का किसान और पानी के लिए भटकती उसकी पत्नी को जीडीपी के रेट से कोई अंतर नहीं पड़ता।  उसे छोड़ दीजिये, खुद मुझे भी यह आंकड़े समझ में नहीं आते । हम खुद भी जब कोई अपराध वृद्धि की बात करता था , तो इन्ही आंकड़ों को ढाल बनाते थे, और अपना पक्ष रखते थे । शायद इसी लिए अंग्रेज़ी में यह कहावत निकल पडी , lies, damn lies and statistics !  गर्मियां हर साल पड़ेगी । अखबार हर साल रिकार्ड टूटने की भविष्यवाणी करेंगे । नेताओं के दौरे हर साल होंगे । बजट में अतिरिक्त आवंटन भी हर साल होगा । भ्रष्टाचार जो सांस में ही समा गया है, हर साल कुछ न कुछ निगलेगा । आरोप प्रत्यारोप हर साल लगेगा । पर क्या उसकी सूरत बदलेगी जो हम सब की क्षुधा मिटा रहा है ?

अन्न को ब्रह्म कहा गया है । जब सवाल जीवन का हो तो धर्म की सारी वर्जनाएं तोड़ देने की बात कही गयी है । इसे ही आपद्धर्म कहा गया है । करोड़ों का सट्टा खेल कर आई पी एल कराने वाले शायलाक की मानसिकता वाले धनपशु इस खेल से अर्जित धन से ही चाहें तो कुछ प्रयास कर सकते हैं । पर वे बिलकुल नहीं करेंगे । वे खुद सुरक्षा के खोल में चले जाएंगे । वे खतरे को भांपते हैं । वे अक्सर कहते हैं नक्सलवाद देशद्रोह है पर नक्सलवाद आया ही क्यों ? इस पर वे कभी विचार नहीं करते हैं। न तो कोई दुःख दैवी है और न ही कोई सुख देव प्रदत्त है । यह सब मन बहलाने और शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपाने का बहाना है । और हाँ यह अकाल, सूखा, दुष्काल जो भी कह लीजिये आज का परिणाम नहीं है । यह पहले से ही है । पर इस का निदान सेल्फ़ी और रेल के डब्बों का पानी नहीं , बल्कि क्षेत्रवार वैज्ञानिक शोध कर के स्थायी उपाय ही है । इसे प्रथम प्राथमिकता के रूप में। लेना होगा अन्यथा समृद्धि और विकास के द्वीप को यह सुनामी कभी न कभी समाप्त कर देगी ।

( विजय शंकर सिंह )

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