आज डॉ आंबेडकर का जन्म दिन है । 125 वीं जयन्ती हम मना रहे हैं इस महापुरुष की। डॉ आंबेडकर एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे और क़ानून के वे प्रखर छात्र थे । आज़ादी का जो संघर्ष , कांग्रेस के झंडे तले , चल रहा था, से वे कभी सीधे नहीं जुड़े रहे । उनका राजनीतिक चिंतन गांधी से मेल नहीं खाता था और वे नेहरू तथा अन्य समानधर्मी नेताओं की चिंतन प्रक्रिया से अलग थे । जाति व्यवस्था और सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था के बारे में इनके विचार बिलकुल अलग थे और प्रगतिशील थे । फिर भी जब देश की संविधान सभा में संविधान का मसौदा बनाने की बात उठी तो , यह दायित्व आंबेडकर को दिया गया । यहॉ समान विचारधर्मी की तलाश नहीं हुयी बल्कि क़ानून के जानकार और प्रगतिशील विचारों की जीत हुयी। यह देश की बहुलतावादी संस्कृति और सोच का परिचायक था । आंबेडकर ने जो ड्राफ्ट तैयार किया उसे सभा ने बहस और संशोधनों के बाद स्वीकार किया और 1950 में यह संविधान लागू हुआ । बाद में आम्बेडकर देश के क़ानून मंत्री भी बने और यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने इस पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया ।
डॉ आंबेडकर सबसे पहली बार चर्चा में तब आये जब उन्होंने देश के उपेक्षित और दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचक मण्डल की मांग की। अँगरेज़ देश को आज़ादी देना नहीं चाहते थे पर वे ऐसा करते दिखना भी नहीं चाहते थे । उन्होंने मुस्लिम नेताओं को उभारा और उनके लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की। उधर डॉ आंबेडकर की, जो गवर्नर जनरल की कॉउंसिल के सदस्य थे , दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचक मंडल की , मांग को स्वीकार करने की प्रक्रिया अंग्रेजों ने शुरू की । गांधी इस विन्दु पर अड़ गए और उनका कहना था कि, दलित, सनातन धर्म के अभिन्न अंग हैं , और उनके लिए पृथक निर्वाचक मंडल की मांग का कोई औचित्य नहीं है । पहली बार गांधी और आम्बेडकर एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हुए . गांधी ने इस मुद्दे पर आमरण अनशन कर दिया और तब चौतरफे दबाव के कारण डॉ अम्बेडकर और गांधी के बीच दलित वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी । यह समझौता पूना पैक्ट के रूप में इतिहास में दर्ज़ है । यह वर्ष 1932 था ।
सनातन धर्म की वर्ण व्यवस्था में जाति प्रथा जन्मना है या कर्मणा, वैदिक काल से है या उत्तर वैदिक काल में आयी, या मुस्लिम आक्रमण के बाद शुरू हुयी, यह सब विवाद का विषय है और इस पर अनेक मत मतान्तर हैं । इस बहस से बचते हुए, उस समय में आते हैं जब डॉ अम्बेडकर के क्रांतिकारी विचार आकार ग्रहण कर रहे थे । बीसवीं सदी के शुरुआती काल में दलितोत्थान के सन्दर्भ में तीन विचार धाराएं थी ।
एक तो दक्षिण भारत , विशेष कर तमिल नाडु में जो तब मद्रास प्रेसिडेंसी कहा जाता था, में पेरियार ई वी स्वामी नायकर का आंदोलन चल रहा था । पेरियार , नास्तिक थे और धर्म के विरुद्ध थे । दलितों की दयनीय दशा के लिए, वे सनातन धर्म की कुरीतियों को जिम्मेदार मानते थे । उन्होंने धर्म का खुला विरोध किया । हिन्दू देवी देवताओं का खुले आम महिमा भंजन किया और राजनीति में भी उन्होंने द्रविड़ कषगम के नाम से एक दल का गठन किया । उन्होंने आर्य संस्कृति जो सनातन धर्म का मूल है को आक्रामक बताया और स्वतंत्र रूप से द्रविड़ राज्य की मांग भी कर डाली।
दूसरी, विचार धारा, गांधी की थी । गांधी का यह समाज सुधारक रूप था । उन्होंने सनातन धर्म के अंदर ही इस बुराई का निदान ढूँढा और अस्पृश्यता , दलितों के मंदिर प्रवेश के सम्बन्ध में आंदोलन भी चलाया । उन्होंने दलितों को एक नया नाम दिया हरिजन, यानी जिन्हें सब अस्पृश्य मानते हैं, वे सच में ईश्वर की प्रिय संतान हैं । वे दलित बस्तियों में ही अक्सर अपनी यात्रा के दौरान रुकते थे । और उनके इस समाज सुधार कार्यक्रम का असर भी पड़ा । वे पेरियार के आक्रामक रवैये के विपरीत सामाजिक समरसता के सिद्धांत में विश्वास करते थे । यह समरसता उनके दर्शन के मूल सिद्धांत अहिंसा के अनुरूप ही था ।
तीसरी, विचार धारा डॉ आम्बेडकर की थी । दलित शब्द आप को किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं मिलेगा । या तो शूद्र शब्द मिलेगा या अस्पृश्य या अन्त्यज शब्द मिलेंगे । डॉ अम्बेडकर ने हर जगह डिप्रेस्ड क्लास का उल्लेख किया है । उसी का अनुवाद दलित हुआ । साठ के दशक में दलितोत्थान के लिए महाराष्ट्र में दलित पैंथर आंदोलन शुरू हुआ । यह आंदोलन मूलतः चितपावन ब्राह्मणों की बेहद जटिल जाति प्रथा जन्य शोषण के विरुद्ध था । धीरे धीरे पूरे देश में यही शब्द प्रचलित हो गया । दलित पैंथर ने यह शब्द डॉ आंबेडकर के डिप्रेस्ड क्लास से ही लिया है । डॉ आंबेडकर स्वयं महाराष्ट्र के थे और उन्होंने जातिगत भेदभाव और शोषण को भोगा था । पर वे मेधावी थे और उन्हें अपनी मेधा प्रदर्शित करने का अवसर भी मिला ।उन्होंने इसे धर्म जन्य शोषण और भेदभाव तो माना ही और यह भी विश्वास उनके अंदर पैठ गया कि, हिन्दू धर्म में दलितोत्थान की बात बेमानी है । और वे तार्किक तथा कर्मकाण्ड रहित बौद्ध धर्म के नज़दीक आये । अपने जीवन की सांध्य बेला में वे अपने अनुयायियों सहित बुद्ध, धम्म, और संघ की शरण में नागपुर की दीक्षा भूमि में चले गए । डॉ आंबेडकर ने शिक्षा, तर्क पूर्ण विचार और धर्म के कर्मकाण्ड के विरोध में अपनी बात रखी । वे पूर्णतः वैज्ञानिक सोच के थे और नियति या ईश्वरीय प्रभाव या अभाव के सिद्धांत के खिलाफ थे ।
इस प्रकार यह तीन धाराएं दलित आंदोलन में सामने आईं। पेरियार का प्रभाव उनके द्रविड़ राज्य और सभ्यता संस्कृति के सिद्धांत के कारण उत्तर भारत में नहीं फ़ैल सका । वे दक्षिण में और वह भी तमिल नाडु में ही सिमट कर रह गए । पेरियार के बाद अन्ना दुराई इस आंदोलन के नेता बने । द्रविड़ कषगम , द्रविड़ मुनेत्र कषगम में बदल गया । अन्ना दुराई की मृत्यु के बाद एम जी रामचंद्रन जो तमिल फिल्मों के बड़े अभिनेता थे ने इसकी कमान संभाली। वे 15 साल तक तमिलनाडु के मुख्य मंत्री रहे । उनकी मृत्यु के बाद यह पार्टी आल इंडिया अन्ना डी एम के और डी एम के में बँट गयी। अब एक की नेता जय ललिता और दूसरे की करुणा निधि का कुनबा है ।
डॉ अम्बेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी के नाम से एक दल बनाया जिसे बहुत सफलता नहीं मिली। डॉ अम्बेडकर का व्यक्तित्व और योगदान ऐसा था कि आज हम भले ही उन्हें दलित नेता के रूप में चित्रित करें पर वे किसी एक वर्ग के नेता नहीं थे । दर असल वह कोई समाज सुधारक या जनाधार वाले नेता नहीं थे । वे मूलतः एक विचारक और चिंतक थे । उन्होंने उन समस्याओं, चुनौतियों और विडम्बनाओं की पड़ताल की जिसके कारण दलित, शोषित होते रहे । कांसीराम ने, इस आंदोलन को, आंबेडकर ने जहां छोड़ा था, वहाँ से ग्रहण किया । कांसीराम कोई विचारक नहीं थे । वे एक अद्भुत संगठनकर्ता थे । वे खुद भी सरकारी अधिकारी थे और दलित अधिकारियों और कर्मचारियों जो उन्होंने लामबंद करना शुरू किया ।उन्होंने दलितों के साथ अल्पसंख्यक वर्ग को भी जोड़ा। और बामसेफ नाम से एक नया संगठन खड़ा किया । इस मे अन्य पिछड़े वर्ग के भी लोग शामिल हो गए । आबादी के लिहाज़ से यह एक प्रभावी संगठन हो गया । दलित अधिकारियों और कर्मचारियों ने इस संगठन को गम्भीरता से लिया और तब कांसीराम ने नारा दिया, जिसकी जितनी आबादी , उसकी उतनी भागीदारी । तभी यह भी नारा चला था, वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा । संगठन की मज़बूती के बाद 1985 में एक नए राजनीतिक दल, बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ । बहुजन शब्द बुद्ध के दर्शन से लिया गया । डॉ अम्बेडकर के विचारों की विरासत, कांसीराम के संगठन कौशल और मायावती के तेज़ तर्रार नेतृत्व के कारण यह पार्टी उत्तर प्रदेश में एक निर्णायक ताक़त बन गयी ।
गांधी के दलित आंदोलन के प्रतीक के रूप में बाबू जगजीवन राम का नाम सबसे उल्लेखनीय है । जब सारे दलित नेता डॉ अम्बेडकर के विचारों के साथ थे, तब जगजीवन राम कांग्रेस के साथ थे और गांधी दर्शन के अनुयायी थे । 1936 के चुनाव से लेकर 1980 तक जगजीवन राम हर चुनाव में विजयी रहे । कांग्रेस लंबे समय तक , जब तक बीएसपी अस्तित्व में नहीं आ पायी थी, दलितों का समर्थन पाती रही । खुद डॉ आंबेडकर जिनकी पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया भी कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं पा सकी, वही कांसीराम ने कांग्रेस का यह वोट बैंक खिसका दिया । विचारधाराओं के इस संघर्ष में डॉ अम्बेडकर की लाइन ही सफल रही । उनके विचार और उनके तर्क सब पर भारी पड़े । एक समय उपेक्षित और हाशिये पर पड़े डॉ अम्बेडकर आज देश में गांधी के समकक्ष खड़े हैं । यह विचार की ताक़त है । नियति का लेख नहीं।
14 अप्रैल और 2 अक्टूबर की एक ही नियति है । एक अम्बेडकर जयन्ती तो दूसरी गांधी जयंती । एक ही पूजा पद्धति से माल्यार्पण, और उनके उद्धरणों से सजे महंगे विज्ञापन । प्रतीक पूजा या व्यक्तित्व पूजा या मूर्ति पूजा की यह विडम्बना है कि व्यक्तित्व और विचार , व्यक्ति के समक्ष गौड़ हो जाते हैं । बुद्ध जिन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया था, उनकी इतनी मुर्तिया बनी कि फारसी का बुत शब्द ही बुद्ध का पर्याय बन गया । सबसे अधिक कलात्मक मूर्तियां बुद्ध की ही बनी हैं । वैसा ही अम्बेडकर के साथ भी न हो जाय, इस खतरे से बचना होगा । आम्बेडकर के विचारों और मान्यताओं को समय और समाज के बदलते परिवेश के अनुसार ही जीवंत रखना होगा । बुद्ध का यह कथन , सदैव प्रासंगिक रहेगा,
" कोई भी बात , केवल इस लिए मत मानो कि, उसे मैंने कहा है । बल्कि उसे तर्क और विवेक की कसौटी पर परखो और अगर वह तुम्हे उपयुक्त लगे और जंचे तो उसे मानो । "
( विजय शंकर सिंह )
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