Monday, 2 November 2015

आचार्य नरेंद्र देव, 31 अक्टूबर जन्म दिवस पर विनम्र स्मरण / .विजय शंकर सिंह



आज एक ऐसे महापुरुष का भी जन्मदिन है, जिसके बारे में गूगलीय ज्ञान रखने वाली पीढी कम जानती है. आज 31 अक्टूबर को आचार्य नरेंद्रवदेव का जन्म हुआ था. आचार्य नरेंद्र देव एक प्रकांड विद्वान् और समाजवादी चिंतक थे  वह 1934 में जब इंडियन नेशनल कांग्रेस से टूट कर समाजवादी विचारधारा के लोगों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था, तो जो गुट अलग हो गया था, उसका नेतृत्व नरेंद्र देव ने ही किया था. मार्क्सवाद से अलग हट कर समाजवाद की जो विचारधारा भारतीय परिवेश में उद्भूत हुयी, उसकी चिंतन परंपरा में आचार्य नरेंद्र देव अग्रणी थे. हालांकि उस गुट में इनके साथ, जय प्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, ई एम एस नम्बूदिरीपाद और मीनू मसानी जैसे लोग भी थे. पर काल के प्रवाह में समाजवादी आंदोलन बिखरता रहा, जुटता रहा और थम थम कर बढ़ता भी रहा. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से सोशलिस्ट पार्टी से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी तक यह आंदोलन अनेक कलेवर बदलता रहा. अंततः लोहिया के निधन के बाद यह कमज़ोर पड़ गया. इसी आंदोलन के चिंतक थे आचार्य नरेंद्र देव.

इनका जन्म 31 अक्टूबर 1889 को सीतापुर में हुआ था. पर वह मूलतः फैज़ाबाद के थे. मार्क्सवाद अपनी विचारधारा के प्रचार प्रसार में सर्वहारा की तानाशाही की बात करता है. पर भारतीय परिवेश में जिस समाजवादी विचारधारा की नीव पडी वह डेमॉक्रेटिक सोशलिज़्म कहलाई. नरेंद्र देव ने इसी लोकतांत्रिक समाजवाद के विचारधारा की अवधारणा को बढ़ाया. मार्क्स के हिंसक क्रान्ति या मज़दूर आधारित क्रान्ति के विपरीत , लक्ष्य प्राप्ति के लिए सिविल नाफरमानी जैसे गांधी वादी विचारधारा को अपनाया गया. आचार्य से अन्य समाजवादियों जैसे डॉ लोहिया का रास्ता 1950 के बाद अलग हो गया। डॉ लोहिया जहां एक विचारक के साथ साथ संगठनकर्ता भी थे, वहाँ आचार्य नरेंद्र देव एक अकादमिक विचारक और चिंतक तथा शिक्षक थे. समाजवाद पर उन्होंने बहुत से अकादमिक लेख लिखे हैं. 1928 से 1956 तक के उनके लेखों और पुस्तकों का चार खण्डों में संकलन है. जिसका सम्पादन हरिदेव शर्मा ने किया है. इनके अध्ययन से समाजवाद के वैचारिक आधार और इनकी तीक्ष्ण मेधा का अभिज्ञान होता है.आज़ादी की लड़ाई के दौरान यह भी जब भारत छोडो आंदोलन के समय अहमद नगर जेल में बंद थे तो उसी जेल में जवाहर लाल नेहरू भी बंदी थे. नेहरू ने अपनी अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया , हिंदुस्तान की कहानी उसी अवधि में लिखी थी. उस पुस्तक के लिखने के दौरान नेहरू की आचार्य नरेंद्र देव से अक्सर पांडित्यपूर्ण चर्चा होती थी. नेहरू आचार्य के पांडित्य और वक्तृता से अत्यंत प्रभावित भी हुए.

1915 में पहली बार आचार्य नरेंद्र देव , बाल गंगाधर तिलक और अरविंदो घोष से प्रेरित हो कर राष्ट्रीय आंदोलन में आये थे. एक शिक्षक होने के कारण इन्होंने मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन का सम्यक अध्ययन किया और मार्क्सवाद को भारतीय परिवेश में व्याख्यायित करने का अकादमिक कार्य किया. वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से भी जुड़े थे और उन्होंने वहाँ अध्यापन कार्य भी किया था. आज़ादी के बाद , 6 दिसंबर 1951 से 31 मई 1954 तक वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य भी थे. वह किसान आंदोलन से भी जुड़े रहे और अखिल भारतीय किसान कांग्रेस के लंबे समय तक अध्यक्ष भी रहे . 1956 में अपने निधन तक वह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे. उनके निधन पर नेहरू की प्रतिक्रिया पठनीय है. नेहरू के ही शब्दों में इसे पढ़ें.

The death of Acharya Narendra Deva is something much bigger for many of us and, I think, for the country than just the passing away of an important person. He was a man of rare distinction--distinction in many fields--rare in spirit, rare in mind and intellect, rare in integrity of mind and otherwise. Only his body failed him. I do not know if there is any person present here in this House who was associated with him for a longer period than I was. Over 40 years ago we came together and we shared innumerable experiences together in the dust and heat of the struggle for independence and in the long silence of prison life where we spent--I forget now--four or five years together at various places, and inevitably got to know each other intimately; and so, for many of us, it is a grievous loss and a grievous blow, even as it is a grievous loss for our country. There is the public sense of loss and there is the private sense of loss and a feeling that somebody of rare distinction has gone and it will be very difficult to find his like again."

( विजय शंकर सिंह )

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