Saturday 14 November 2015

पेरिस हमला 13 / 11 / 15 - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह


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फांस के खूबसूरत शहर पेरिस में जो आतंकी हमला इस्लामी स्टेट के आतंकियों द्वारा किया गया है, वह उसी मानसिकता , और पागलपन का दुष्परिणाम है , जो अपने ही धर्म को न केवल सबसे बेहतर मानता है,  बल्कि यह अपेक्षा भी करता है कि सभी उसके धर्म या  मजहब को मानें . जो उसे नहीं स्वीकार करते हैं , उसके पैगम्बर को नहीं मानते हैं , वे या तो त्याज्य हैं या हन्य हैं . यह मानसिकता एक ऐसे पड़ाव पर ला कर खड़ा कर देती है, जहां धर्म जो मूलतः नैतिक मूल्यों  के सरंक्षण और संवर्धन के लिये परिकल्पित हुआ था, अंततः उन्ही मूल्यों  के लिए ख़तरा बन जाता है .

पेरिस हमला, पहला आतंकी हमला नहीं है, और न ही यह आखिरी हमला होगा. यह दुखद, निंदनीय . और मानवता पर हमला है. आदि आदि. थोड़ा गुस्सा, थोड़ी शिकायत , ढेर सारा आक्रोश जैसे सागर  में  ज्वार आता है, आएगा और फिर  शांत हो जाएगा. मुम्बई हमले के साथ भी ऐसा हुआ था ,  और ऐसे हमले  अब आगे नहीं होंगे , इसकी कोई गारंटी भी नहीं है . आतंकवाद का भले ही कोई धर्म न हो , पर अधिकतम आतंकी घटनाएं इस्लाम धर्म से जुडी हैं. चाहे वह इजरायल फिलिस्तीन संघर्ष से उपजा संकट हो, या अफगानिस्तान में नाटो और रूसी कूटनीतिक प्रतिद्वंद्विता जिसका बीजारोपण , द्वीतीय विश्व युद्ध के बाद हुए , शीत युद्ध के दौरान हुआ था, या पाकिस्तान की कश्मीर को हड़पने और , भारत को अस्थिर करने की साज़िश, या मध्य पूर्व के तेल के कुओं का आकर्षण या उनके धनादोहन की लालसा हो , सब की रणनीति में आतंकवाद जन्मता और पलता , पनपता रहा है और इस्लाम चाहे या अनचाहे इसे पोसता भी रहा है. कुछ इस का कारण सेमेटिक धर्मों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी हो सकती है. इसके साथ क्रुसेड्स का इतिहास भी नत्थी कर के देखा जा सकता हैं. पर चाहे जिस भी कोण से देखें इसमें इस्लाम या मुस्लिम आतंकवाद ज़रूर दिखेगा.

वह स्थिति बहुत असहज कर देती है, जब हम अचानक अपने सहधर्मियों के किये उन पापों और अपराधों के कारण स्वयं को केवल समानधर्मी होने की वजह से निशाने पर पाते  हैं. धर्म का प्रेत इतना भीतर पैठ गया है  कि हम अपने धर्म की निंदा भी नहीं कर पाते हैं और उसे डिफेंड भी करना चाहें तो मुश्किल ही होती है. फिर हम एक वाया मिडिया निकालते हैं. और यह कह कर इस धर्म संकट से मुक्त होने की कोशिश करते हैं कि हत्यारे या कुकर्मी किसी धर्म के नहीं होते है. मैंने अपने सेवाकाल में, सिख आतंकवाद के दौर में कुछ सिख मित्रों के चेहरे पर ऐसा अयाचित अपराध बोध देखा था..  धर्म और ईश्वर की बेबसी भी साफ़ झलक उठती है. मैं जिस सेवा में रहा हूँ उसमे अपराध करने वालों से बहुत सामना होता है. अपराध एक मनोवृत्ति है. और यह मनोवृत्ति कभी भी किसी को भी संक्रमित कर सकती है. लेकिन शौकिया अपराध कब प्रोफेशनल और हार्ड कोर हो जाता है , पता भी नहीं चलता. जैसे आज कहा जाता है आतंक का कोई धर्म नहीं होता है वैसे ही यह भी कहा जाता है कि अपराध का भी कोई धर्म या जाति नहीं होती है. दरअसल आतंक और अपराध कोई व्यक्ति नहीं है, वह प्रवित्तियां हैं. प्रवित्तियां धर्म और जाति में बँटी नहीं होती हैं. व्यक्ति , धर्म और जाति के कठघरे में सिमटते हैं. इसी लिए आतंक का कोई धर्म न होते हुए भी आतंकवादी व्यक्ति और समुदाय का एक धर्म विशेष तो होता ही है। आतंकवादी व्यक्ति और समुदाय अपने धर्म के प्रति श्रद्धा रखे या न रखे, पर वह धर्म के प्रति श्रद्धा भाव का प्रदर्शन बहुत करता  है. बल्कि आम धार्मिक श्रद्धा रखने वाले मासूम जन की तुलना में वह खुद को ईश्वर का सबसे प्रिय और धर्म पर अतिरिक्त आस्था रखने वाला प्रदर्शित करता है. हत्याओं के बीच लगने वाले ईश्वर के समर्थन में नारे, या हत्या के बाद या अपराध के बाद, की जा रही प्रार्थना या नमाज़ें , ईश्वर द्वारा सौंपे गए वह कृत्य जो अभी अभी उन्होंने संपन्न किया है, के प्रति आभार प्रदर्शन है या उस अपराध बोध का भाव , यह अनुमान ही लगाया जा सकता है. पर ऐसे तत्व उस धर्म का सबसे अधिक अहित करते है, जिनके नाम पर वे निर्दोष व्यक्तियों का खून बहाते रहते हैं. 

असल समस्या धर्म या ईश्वर नहीं है. असल समस्या इसके साथ जुड़ा पाखण्ड है. असल समस्या इसके साथ जुड़ा अर्थ तंत्र है। धर्म के साथ जुड़ा अर्थशास्त्र , वैसे तो शुरू हुआ कुछ लोगों के पालन पोषण के लिए पर कालान्तर में यह यह सुनियोजित अर्थतंत्र हो गया। इस्लाम में धर्म और राज्य एक ही है. इस लिए जहां धर्म के विस्तार के लिए नैतिक प्रवचनों या दर्शन की आवश्यकता होती है, वहाँ राज्य के विस्तार के लिए, हिंसा और युद्ध अनिवार्य है. अतः धर्म और राज्य का विस्तार एक साथ ही हुआ। खलीफा के संस्था का गठन इसी लिए हुआ था. खलीफा राज्य के प्रमुख के साथ साथ धर्म का भी प्रमुख भी होता था. यह इस्लाम की मौलिक ताक़त भी है और उसकी कमज़ोरी भी. इस तरह यह धर्म का रेजीमेंटेशन भी है.

जो धर्म , समाज और परिवार रेजिमेंटल परम्परा से प्रभावित होता है वहाँ सहिष्णुता का स्वागत नहीं बल्कि उसे हतोत्साहित किया जाता है . जैसे सेना या पुलिस बल हैं , इनका आधार ही आदेश और अनुशासन है . जैसे जैसे आदेश पर प्रश्न चिह्न उठने लगते हैं , वैसे वैसे ही अनुशासन मसकने लगता है . फिर वही सैन्य बल एक मध्ययुगीन गिरोह में बदल जाता है . और उसका पतन प्रारम्भ हो जाता है . लेकिन सैन्य  बल और पुलिस समाज के विकृत हो रहे रूप को नियंत्रित करने के लिए अवधारित किये गए हैं . कल्पना कीजिए जिस दिन , राज्य प्रसार , अधिकार मद , और सब कुछ का नियंता मैं हूँ , का भाव समाप्त हो जाएगा उसी दिन सेना की आवश्यकता भी समाप्त हो जाएगी . इसी प्रकार जब समाज में अपराध का जन्म हुआ तो पुलिस की अवधारणा हुयी . जिस दिन समाज से ये दोनों प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाएंगी , उस दिन न सेना होगी न पुलिस . लेकिन यह असंभव है . यह एक युटोपिया है .

इसी प्रकार समाज में जब बौद्धिक प्रगति होने लगी होगी, और नैतिक तथा अनैतिक मूल्यों के अंतर का अभिज्ञान होने लगा होगा तो पाप और पुण्य की अवधारणा ने भी जन्म लिया होगा . तभी संभवतः नैतिक मूल्यों के सरक्षण और संवर्धन के लिए किसी न किसी न आचार सहिता का जन्म हुआ होगा ,  तब कालान्तर में जा कर धर्म का जन्म हुआ होगा . धर्म का अर्थ ही है धारण करना , पतित हो रहे समाज को थाम लेना या उसे आधार देना . समाज के नैतिक मूल्यों को स्थिर रखते हुए समाज का उदात्त विकास हो , संभवतः धर्म का यही उद्देश्य है .
हम सब पेरिस हमले पर दुखी हैं और अपने अपने आराध्य से प्रार्थनारत हैं।  हम प्रार्थना अवश्य करें . अंत में प्रार्थना ही बचती है जो शान्ति के कुछ पल और दिलासा देती है. मोमबत्तियां, शान्ति मार्च, मौन जुलूस, या उत्तेजक नारों से भरे प्रदर्शन केवल हमारे उस आक्रोश को अभिव्यक्त करते हैं , जिनका कोई विकल्प नहीं होता है. विकल्पहीनता की यह स्थिति न केवल हमें खीज और झुंझलाहट से भर देती है, बल्कि आवेश और आक्रोश की सारी अभिव्यक्ति रस्मी बना देता है. हर सामूहिक हत्या निन्दित होती है, हर आतंकवादी घटना की मीन मेख निकाल कर हम या तो उस आतंकी घटना को भुला देते हैं या भूल जाते हैं, या उसके प्रतिशोध हेतु अपने घर में लुकारी ले कर घूमने लगते हैं. पर असल समस्या की और या तो बढ़ते नहीं है या बढ़ना नहीं चाहते है. धर्म को ईश आराधना का माध्यम और नैतिक मूल्यों के सरक्षण और संवर्धन तक ही सीमित रखना होगा अन्यता यह धर्मान्धता , जो स्वर्ग की आकांक्षा में अनियंत्रित हो गयी है , धरती को ही नर्क बना देगी। 
- vss.

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