अभी गणतंत्र दिवस पर एक विज्ञापन छपा था, जिसमें संविधान की प्रस्तावना प्रकाशित की गयी है. इस प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेकुलर दोनों शब्द हटा दिए गए हैं. सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द हटाये जाने पर आपत्ति नहीं, बल्कि संविधान की प्रस्तावना को गलत तरह से प्रस्तुत किये जाने पर आपत्ति है. संसद सर्वोच्च है. वह अगर उचित समझती है तो संशोधन कर सकती है. जिन्हें आपत्ति होगी वे आपत्ति दर्ज़ कराएंगे. पर अंतिम निर्णय संविधान में दिए गए नियमों के अनुसार ही होगा. मूल प्रस्तावना में ये दोनों शब्द नहीं थे. 1976 में एक संशोधन के बाद जोड़े गए हैं. अगर अब भी संसद उसे संशोधित कर के मूल पर ला दे और देश संशोधन स्वीकार कर ले और तब प्रकाशित हो तो कोई ऐतराज़ नहीं है. इन शब्दों के मात्र रख देने से ही न तो कोई देश सोशलिस्ट हो जाता है और न ही सेकुलर. अगर ये शब्द , लगता है कि गलत हैं या इनकी प्रासंगिकता अब नहीं है तो संसद, संविधान में ही दिए गए प्राविधानों के अनुसार संशोधित कर सकती है पर इस तरह से बैक डोर से इन्हें छुपा कर विज्ञापित करने से संविधान की जो अवमानना हुयी है वह तो हुयी है, पर उन अधिकारियों का भी दोष है जिन्होंने विज्ञापन का ड्राफ्ट नहीं देखा था, या देख कर अनदेखा कर दिया था.
अब इसका भी बचाव किया जा रहा है. बचाव भी वही कर रहे हैं जिन्होंने संविधान की शपथ ली है. अब मुझे यह नहीं पता कि उन्होंने मूल प्रस्तावना वाले संविधान की शपथ ली है या संशोधित प्रस्तावना वाले संविधान की. वैसे भी ये शब्द महज़ शब्द ही बन कर रह गए है. अपना सन्दर्भ, अर्थ और सामर्थ्य तीनों ही खो चुके हैं. पर जब तक प्रस्तावना में ये शब्द हैं तब तक तो इसे मानना ही पड़ेगा. अगर खटक रहे हैं तो इन्हें बदल दीजिये. लेकिन यह साहस भी तो दिखाइए. कम से कम संविधान का तो मज़ाक न बनाएं.
-vss
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Debates show why Preamble’s original text left out the two words - The Hindu
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