Tuesday, 13 January 2015

अभियक्ति की स्वतंत्रता और शर्ली हेब्दो अखबार.

शारली हेब्दो , फ्रेंच साप्ताहिक ने अपने अगले अंक में पुनः पैगम्बर के कार्टून छापने का निर्णय किया है. उनका कहना है, ऐसा कर के वे आतंकवाद और आतंकियों को जवाब देंगे. पत्रिका ने इस आतंकी घटना को अभियक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना है. कार्टून को ले कर दुनिया भर में बवाल मचा. हिंसा हुयी और 12 लोग मारे गए. पेरिस में दुनिया भर के नेता इकट्ठा हुए और आतंक के खिलाफ उन्होंने मार्च किया. इस मार्च और इस वैश्विक प्रतिक्रया से आतंक का क्या बिगड़ता है यह तो बाद में ही पता चलेगा. पर पूरा यूरोप इस्लामी आतंक के विरुद्ध खड़ा है. ऐसा लग रहा है.

अभियक्ति की स्वतंत्रता की बात जब भी आती है तो एक उद्धरण अक्सर याद आता है. " आप को सड़क पर खड़े हो कर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर तभी तक जब तक कि वह किसी के नाक पर न लगे. " अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, खुद को अभिव्यक्त करने के लिए है किसी को आहत करने के लिए नहीं है. इस्लाम में ईश्वर और पैगम्बर के चित्र नहीं बनाये जा सकते. यह प्राविधान आज का नहीं बल्कि इस्लाम के जन्म से ही है. यह अलग बात है कि इस्लाम पूर्व अरब में मूर्ति पूजा थी. खुद काबा में भी 300 से अधिक मूर्तियां थीं. काबा के द्वार पर ही लात और मनात नाम के दो देवताओं की प्रतिमाये थी. मुहम्मद साहब ने ईश्वर के निराकार रूप में ही माना और पूरे काबा को प्रतिमाओं से खाली करा दिया. तब से मूर्ति पूजा का निषेध है. लेकिन मनुष्य मूलतः कला से जुड़ा है. अरबी भाषा की लिपि के नए नए और आकर्षक रूप से लिखने की एक कला विक्सित हुयी. इसे लिपि लेखन या कैलिग्राफी कहा गया. इस कैलीग्राफी का प्रयोग मूर्ति या चित्र या प्रतीक के रूप में अपना लिया गया. आज भी सारी प्रसिद्ध इस्लामी स्थापत्य पर कुरआन की आयतों को बेहद सुन्दर और कला पूर्ण तरीके से लिखा हुआ मिलता है. यह सुलेख प्रथा या कैलीग्राफी अरबी भाषा की विशेषता है. मेरा मानना है कि इस कला का विकास चित्रों के वर्जना के कारण कलात्मक रूचि का पोषण करने के लिए किया गया है.

शारली हेब्दो, के पिछले कार्टूनों के कारण जो आतंकी घटना हुयी उसे किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता है. लेकिन कार्टून का उद्देश्य क्या था ? परिहास, मनोरंजन या, किसी को चोट पहुंचाना. कार्टून अगर सटीक बना हो तो हज़ार शब्दों के लेख से अधिक वह अपनी मंशा अभिव्यक्त करते है. यह सतसैया के दोहरे है. गंभीर घाव करते हैं. आप को हंसाते हैं, पर आप को सोचने के लिए भी बाध्य कर देते है. मज़ाक कभी कभी इतना आहत कर जाता है, जितना कि गालियां नहीं करती. मज़ाक गाली नहीं होता पर वह सीधे दिल और दिमाग को भी छूता है. यहां भी इन कार्टूनों ने यही किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या अन्य विषयों पर, और वह भी आतंकियों के क्रिया कलाप पर क्या कार्टून नहीं बनाये जा सकते ?

इस्लाम ने मूर्ति पूजा का विरोध किया. पूरे 1000 साल के इतिहास में पूरे भारत में बहुत से मंदिर तोड़े गए. सोमनाथ, केशवराय, विश्वेश्वर आदि विश्व प्रसिद्ध देवस्थानों को शामिल कर के हज़ारों मंदिर तोड़े गए. यह कर्म आज भी पाकिस्तान में जारी है. अफगानिस्तान की अद्भुत धरोहर बामियान बुद्ध को तालिबान ने बारूद से उड़ा दिया. इन सारी घटनाओं ने आस्थावान लोगों को बहुत आहत किया. इतना आहत किया कि आज भी वह दंश या खलिश दिल में है. वह दुःख, क्षोभ इतना मन में भरा है कि 1000 साल के सांस्कृतिक समरसता के बावज़ूद भी हमें आज भी विज्ञापित करना पड़ता है कि हिन्दू मुस्लिम भाई भाई है. अवचेतन में जमी यह खलिश जब भी दुनिया में इस्लाम विरोधी कोई घटना देखती है तो खुद को एक अलग मानसिकता ढाल देती है. यह मानसिकता देश और इसकी एकता के लिए घातक है.
क्या इस्लाम के अलावा हिन्दू प्रतीकों, देवी देवताओं पर कोई आक्षेप करे या मूर्ति भंजन करे तो उससे हम आहत नहीं होंगे ? बिलकुल आहत होंगे. ईसाई पादरियों ने भी यही किया है और आज भी करते हैं. इसकी प्रतिक्रिया भी होती है. इसी लिए शास्त्रों में अप्रिय सत्य को बोलने पर मनाही है. मनुष्य पहले है. समाज पहले है. मानवता सर्वोपरि. ईश्वर को जगत का पालक कहा गया है. कुरआन में भी उसे रब्बुल आलमीन कहा गया है. सारे जगत का रब. रब्बुल मुसलमीन नहीं.लेकिन बाद में जब स्वार्थ विकसित हुआ तो धर्म और आस्था में कर्मकाण्ड का प्रवेश हुआ तो फिर कठघरे बनने लगे. लोग बंटने लगे.

आतंकवाद हिंसा ही नहीं है. यह साम्राज्यवाद, स्वार्थवाद का भी वाहक है. यह नशीली चीज़ों का कारोबार है. यह हथियारों का एक अच्छा ख़ासा उपभोक्ता बाज़ार है. धर्म इसका आधार है. ईश्वर इसे बहकाने का एक उपक्रम है. आतंकवाद को या आतंकियों को उन सामान्य धर्मावलंबियों से अलग करना होगा. आतंकी धर्म की आड़ केवल अपने घृणित उद्देश्य की पूर्ति के लिए लेते हैं. कुछ धर्मावलम्बी जो खुद ही अपने धर्म के प्रति भरम में है इनके साथ हो लेते हैं. पर अधिकतर संख्या आतंकियों के साथ नहीं रहती है. लेकिन वह विरोध में भी खड़ी नहीं होती. वह निरपेक्ष हो जाती है. यही निरपेक्षता आतंकियों के लिए खाद पानी का काम करती है. जब तक धर्म को आतंक से जोड़ क्र हल करने की कोशिश की जायेगी यह समस्या और जटिल होगी. कट्टरपंथी और धर्म से ही अपनी आजीविका चलाने वाले तत्व, अपना हित साधने के लिए इसे ही अपना आधार बना लेते हैं. जब तक धर्म और जातिगत भेदभाव की भावनाएं शेष रहेंगी तब तक यह त्रासदी भी रहेगी.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है. लेकिन इस स्वतंरता को दायित्वबोध के साथ ही स्वीकार किया जाना चाहिए. आतंकवाद के विरुद्ध कोई भी कारगर लड़ाई, धार्मिक सहिष्णुता के बिना नहीं लड़ी जा सकती. आतंकवादियों को उनके धर्म के उन बहुसंख्यक आबादी से अलग कर के देखना होगा जो सिर्फ सहधर्मी होने के कारण निशाने पर आ जाते हैं.

( विजय शंकर सिंह )

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