Friday, 9 January 2015

मायावती और भारत रत्न पर उनका बयान / विजय शंकर सिंह



मायावती ने भारत रत्न और पद्म पुरस्कारों को जातिगत हितों और उन्हें जातिवादी मानसिकता से प्रेरित बताया है. लोग इस बयान पर मायावती के जातिगत रवैय्ये और उनके द्वारा किये गए भ्रष्टाचार को भी निशाना बना रहे हैं. मायावती ने दलित प्रतीकों की उपेक्षा का आरोप लगाया है. अगर भारत रत्न की जातिगत समीक्षा की जाय तो अधिकाँश भारत रत्न से सम्मानित महापुरुष ब्राह्मण जाति के हैं. लेकिन यह भी सच है कि भारत रत्न दिए जाने के पीछे उनकी जाति की कोई भूमिका नहीं है. जातिगत भेदभाव केवल सनातन या हिन्दू धर्म में ही नहीं है बल्कि यह सभी धर्मों और समाज का एक मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट है. इस्लाम जो खुद को, समानता पर आधारित धर्म बताता है वहाँ भी जातिगत फ़र्क़ और वैमनस्य साफ़ दिखता है. रंगभेद जाति व्यवस्था से भी अधिक क्रूर और निंदनीय है. लेकिन हिन्दू धर्म पर इस बुराई को लेकर बहुत लांछन लगाए जाते रहे हैं. और आगे भी ऐसे लांछन लगते रहेंगे.


मायावती के बयान पर एक प्रसंग पढ़ें जो मेरे सामने घटा है. बात 1987 की है. मैं कानपुर में डी एस पी था, और सर्किट हाउस मेरे क्षेत्र में पड़ता था. सर्किट हाउस में। कोई विशिष्ट महानुभाव आने वाले थे. उनकी व्यवस्था और सुरक्षा को देखने के लिए सर्किट हाउस में ही मैं था. उसी सर्किट हाउस में, श्री काशीराम जी भी रुके हुए थे. चूँकि वे उस समय केवल बसपा के अध्यक्ष थे और किसी ऐसे पद पर नहीं थे कि उन्हें प्रोटोकॉल दिया जाय इस लिए उन्हें कोई नोटिस भी नहीं ले रहा था. फरवरी का मौसम था. कुछ पत्रकार मित्र काशी राम जी से मिलने आये थे. उन्ही से मैं वार्ता कर रहा था. वहीं ज्ञात हुआ कि उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस है.कुछ स्थानीय बसपा नेता भी थे पर वे सभी उस समय अल्पज्ञात थे.

प्रेस वार्ता शुरू हुयी. पांच या छह पत्रकार थे. धू में हम सब बैठे थे. वहीं उत्कण्ठा वश काशी राम जी से मुलाक़ात हुयी,और वहीं मैं और मेरे साथ सिटी मजिस्ट्रेट भी थे. हम वही बैठ गए. सवाल जवाब शुरू हुए. उस समय मायावती , पहली बार हरिद्वार से लोकसभा का चुनाव लड़ और हार चुकी थी. लेकिन उनकी हार ने भी भविष्य के संकेत दे दिए थे. एक पत्रकार ने आंबेडकर पर, आरक्षण और, पूना पैक्ट पर सवाल पूछे. अच्छा खासा विचार विमर्श भी हो रहा था. तभी एक मित्र ने पूछा कि आज़ादी की लड़ाई के बड़े नेताओं में कोई दलित, क्यों नहीं है ? एक नाम किसी ने उछाला, बाबू जगजीवन राम का. कांशी राम ने इस नाम को बहुत महत्व नहीं दिया. फिर उन्होंने कहा, कि जिस समय आज़ादी की लड़ाई चल रही थी, उस समय दलित अपनी सामाजिक और आर्थिक दुरावस्था से जूझ रहे थे. वे उन बेड़ियों से आज़ाद होने के लिए तत्पर और प्रयासरत थे, जो सदियों से उन्हें जकडीं थीं. काशी राम जी की बात सच थी. उनका तर्क और निष्कर्ष सही था.


आज़ादी के लड़ाई में भाग लेने वालों में सबसे अधिक संपन्न परिवार के लोग थे. तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, सावरकर , नम्बूदिरीपाद, डांगे, और जिन्ना भी सभी आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न लोग थे. अंग्रेज़ी पढ़े और पाश्चात्य राजनीति सोच और दर्शन से प्रभावित लोग थे. आम्बेडकर मूलतः एक बौद्धिक और कानूनविद थे. वे उस परम्परा के नहीं थे जो सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के माध्यम से औपनेवेशिक गुलामी का विरोध कर रहे थे. वे अपने समाज के सबसे प्रखर और काबिल नेता थे. उन्होंने जो भोगा था, उसके खिलाफ वे थे. एक नज़र में कुछ को उनकी दृष्टि संकीर्ण लग सकती है पर समाज के बहुत बड़े और अनायास ही हो चुके अभिशप्त और दलित वर्ग को नयी रोशनी में लाना चाहते है. सम्मान , हमेशा सामाजिक हैसियत के सापेक्ष रहा है और सामाजिक हैसियत, अधिकार के समानुपातिक है. इसलिए तब आंबेडकर ने आरक्षण पर ज़ोर दिया और इसे लागू किया गया. काशीराम द्वारा बसपा का गठन , अधिकार, विशेषकर राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने का मिशन ही था.



आंबेडकर से थोड़े ही वरिष्ठ, दलित प्रतीकों में एक बड़ा नाम तमिलनाडु के वी रामास्वामी पेरियार का है. 1930 में वे दिवंगत हो गए थे. उन्होंने इसे दलित विमर्श से नहीं आर्यों के आक्रमण और अतिक्रमण से देखा. दक्षिण भारत में साम्राज्य परिवर्तन उत्तर भारत की अपेक्षा बहुत कम हुआ. मुग़ल काल भी दक्षिण में अपना बहुत प्रभाव नहीं बना पाया. चोलों पांड्य और विजयनगर साम्राज्यों की बहुत समृद्ध परंपरा रही है. दक्षिण भारत में ब्राह्मण और अब्राह्मण का ही भेद अधिक रहा है. वहाँ क्षत्रिय या अन्य ओबीसी जातियां कम ही विकसित हो पायीं. पेरियार ने तमिल वर्चस्व के बहाने संगठित ब्राह्मणवाद पर ज़बरदस्त चोट की. उन्होंने सारे ब्राह्मण और आर्य प्रतीकों की केवल खिल्ली उड़ाई बल्कि उनको सार्वजनिक रूप से लांछित भी किया. पेरियार नास्तिक थे और बहुत ही अधिक लोकप्रिय थे. उनके जीवनकाल में ही उनकी अनेक प्रतिमाएं बनी. वह दक्षिण में दलितों के उग्र और आक्रामक प्रतीक थे. पेरियार ने द्रविडिस्तान की मांग की. उन्होंने द्रविड़ कड़गम नामक एक सगठन की भी स्थापना की. जो आगे चलकर प्रदेश की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दाल, द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम, DMK में परिवर्तित हो गया. अन्ना दुराई इसके नेता थे. जिनके निधन के बाद यह आल इंडिया अन्ना डी एम के, और डी एम के में बंट गया. इस समय यह दोनों दल द्रविड़ आंदोलन के नाम पर जयललिता, और कर्णानिधि के जेबी दल बन चुके हैं. पेरियार के उग्र और आक्रामक तरीके के विपरीत आम्बेडकर कानूनी और तार्किक रूप से दलितों को मुख्य धारा में लाना चाहते थे. उन्होंने अपने प्रयासों से ऐसा किया भी.


क्या भारतीय परंपरा में कोई दलित प्रतीक, आंबेडकर को छोड़ कर नहीं उभरा है जिसे भारत रत्न दिया जा सके ?
- विजय शंकर सिंह.


No comments:

Post a Comment