इसराइल और फिलिस्तीन के बीच
विवाद अब बेहद खतरनाक विन्दु पर पहुँच गया है. इस्राइल ने विश्व जनमत को किनारे कर
अपना युद्ध अभियान जारी रखा है. उधर हमास भी शांत नहीं है. लगभग 800 के आस पास फिलिस्तीन
नागरिक मारे जा चुके है, और कुछ इसराली नागरिक
भी मरे हैं. लेकिन इस विवाद और टकराव का एक ऐतिहासिक पक्ष भी है. आइये देखें ज़रा
अतीत में और इस उलझे हुए धागे का सिरा ढूँढने की कोशिश करें.
फिलिस्तीनी अरब और यहूदी
इसराइल के बीच वर्तमान विवाद की शुरुआत उन्नीसवीं सदी से हुयी है. यह विवाद धर्म
आधारित उतना नहीं है, जितना भूमि से
सम्बंधित है. दोनों क्षेत्रों में अलग अलग धर्मों के लोग अब भी हैं. इसराइल में भी
यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धर्म के लोग रहते हैं, लेकिन यहूदी बहुसंख्यक हैं जब कि अन्य
धर्मावलम्बी अल्पसंख्यक. इसी फिलिस्तीन में भी तीन धर्मों के लोग, मुस्लिम, ईसाई, और ड्रुज़ धर्म के लोग रहते हैं. ड्रुज़ एक स्थानीय
और कबीलाई धर्म है. इसके मानने वालों की संख्या बहुत कम है. मुस्लिम बहुसंख्यक
हैं. यह विवाद ज़मीन के कब्ज़े को लेकर शुरू हुआ है और वही युद्ध का मूल कारण भी है.
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति से लेकर 1948 तक इस क्षेत्र को दोनों ही अपना बताते थे और
अन्तराष्ट्रीय जगत में यह क्षेत्र फिलिस्तीनी इलाके के रूप में जाना जाता रहा है.
यही नहीं तीनों सेमेटिक धर्म जो पैगंबरवाद की अवधारणा में विश्वास करते हैं, जैसे यहूदी, इसाई और इस्लाम के
मानने वाले इसे पवित्र भूमि के रूप में मानते थे और आज भी अपना हक इस पर जताते
हैं. 1948 - 1949 के इस्राइल अरब युद्ध
में यह क्षेत्र तीन भागों में बांटा गया. इसराइल का राज्य, जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का भाग जो वेस्ट
बैंक के नाम से जाना जाता है, और गाजा पट्टी.
यह पूरा भूभाग 10000 किलो मीटर का एक
क्षेत्र था. तीनों भूभाग के रहने वालों में विवाद था अतः कोई एक राजनैतिक शक्ति
तीनों की सहमति से उभर कर नहीं आ पायी और इस बंटवारे के बाद भी विवाद बढ़ा ही, कम नहीं हुआ. यहूदियों ने इस भूमि पर अपना दावा
बाइबिल की एक कथा जो ओल्ड टेस्टामेंट में है के आधार पर जताया. बाइबिल में यह भूमि, इस्राइल कबीले जो हजरत मूसा से जुड़ा था को रहने
के लिए ईश्वर द्वारा दी गयी थी. अब्राहम की संतानों को रहने का आदेश खुद ईश्वर का था. इस आधार
पर इसराइल ने इस भूभाग पर अपना दावा प्रस्तुत किया. उधर फिलिस्तीनीयों का कहना था
कि वे इस भूभाग के मूल निवासी है और सदियों से यहाँ रहते आये हैं. उनकी आबादी भी
उस क्षेत्र में सबसे अधिक है अतः यह भूभाग उन्ही का है. यहाँ तक कि 1948 में जब इसराइल राज्य
का गठन हुआ तब भी
फिकिस्तिनियों की जनसँख्या
सबसे अधिक थी. उन्होंने इसराइल के इस दावे को जो बाइबिल की कथा के आधार पर था को
नहीं माना और इस भूभाग को अपना ही बताया. बाइबिल की कथा में यह बताया गया है कि
ईश्वर ने अब्राहम की संतानों को यह भूभाग देने का वादा किया है तो हजरत इस्माइल
जिनसे अरबों की उत्पत्ति मानी जाती है तो वह भी तो अब्राहम की संतान हुए. अतः
अब्राहम के संतान का सिद्धांत इस भूभाग पर रहने का आधार बनता है तो, यह अधिकार फिलिस्तीनों को भी है. क्यों कि वे भी
अरब की ही एक शाखा हैं. उनका कहना था यूरोप को, कोई अधिकार नहीं है
कि वह यहूदियों पर हुए पाशविक अत्याचारों के बदले उनका भूभाग बाइबिल की एक कथा के
आधार पर छीन कर यहूदियों को दे दे और एक राज्य का गठन कर दे.
उन्नीसवीं सदी में विश्व में राष्ट्रीयता की एक नयी और अलग धारणा का
सूत्रपात हुआ. यूरोप इस नवीन विचार का केंद्र बना. वहाँ भी विभिन्न समुदाय और
जातिगत वर्गों ने अपने अपने राष्ट्र के बारे में सोचना शुरू कर दिया. सभी अपने लिए
एक स्वतंत्र और सार्वभौम राज्य चाहने लगे थे. उन्नीसवीं सदी के यूरोप के इतिहास का
अध्ययन करें तो आप एक नए प्रकार का राष्ट्रीय आन्दोलान की सुगबुगाहट महसूस करेंगे.
यही प्रतिक्रया यहूदियों और फिलिस्तीनियों में भी हुयी. दोनों ने खुद के लिए एक
सार्वभौम और संप्रभु राज्य के लिए अपने अपने लोगों को जगाना शुरू कर दिया. उस समय तक यहूदियों का कोई देश नहीं था. वे पूरी
दुनिया में बिखरे हुए थे. उनके अन्दर भी एक संप्रभु और सार्वाभौम राज्य के निर्माण
की भावना जागृत हुयी. दुनिया भर में बिखरे और खानाबदोश यहूदियों के लिए जब जगह की
तलाश हुयी तो यही क्षेत्र सामने आया. इस क्षेत्र का नाम इस्राइल ओल्ड टेस्टामेंट
के युग से भी था, और इसी क्षेत्र को यहूदियों ने खुद के लिए
उपयुक्त पाया.1882 में पहला यहूदी आन्दोलन जिसे जीयोनिस्ट आन्दोलन
के नाम से इतिहास में जाना जाता है, प्रारम्भ हुआ. पहली
बार इस भूभाग पर दुनिया भर में विखरे और भटक रहे यहूदीयों का एक जत्था यहाँ
पहुंचा. यह् उसी प्रकार का पुनर्वास माना गया जैसा कि ओल्ड टेस्टामेंट में वर्णित
है.
उस समय फिलिस्तीन ओट्टोमान
साम्राज्य का ही भाग था. मध्य एशिया का यह एक विशाल और सुगठित साम्राज्य था. यह
भूभाग कोई स्वतंत्र भाग नहीं था और न ही कोई स्वतंत्र राजनैतिक ईकाई थी. इसके
उत्तरी जिले एकर और नबुलुस बेरूत प्रांत के, जेरुसलम, और बेथेल्हेम अपनी धार्मिक विशिष्टता के कारण
सीधे ओटोमान सामाराज्य की राजधानी इस्ताम्बुल से शासित थे. जेरुसलम यहूदियों
ईसाइयों और मुस्लिमों तीनों के लिए पवित्र था, जब कि बेथेल्हेम में
ईसा का जन्म हुआ था. 1878 के ओट्टोमान साम्राज्य के अभिलेखों के अनुसार, जेरूसलम, एकर, और नाबुलुस की कुल आबादी 4,62,465 थी. जिसमें 4,30,795 मुस्लिम इनमें ड्रुज़
भी शामिल थे,
43,659 ईसाई और 15,011 यहूदी थे. इसके अतिरिक्त 10000 वे यहूदी भी थे जो
बाहर से आये थे और उनकी नागरिकता उन देशों की थी जहां से वे आये थे. साथ ही हज़ारों
की संख्या उनकी थी जो अरब कबीले के जन जातियों के थे
और घुमक्कड़ थे. बहुत बड़ी संख्या में अरब के सैकड़ों गाँव में मुस्लिम और ईसाई दोनों
ही साथ रहते थे. जफा और नेबुलुस दोनों ही बड़े शहर थे रहते थे और आर्थिक रूप से
समृद्ध भी थे.
बीसवी सदी के पूर्वार्ध तक
फिलिस्तीन में जो यहूदी रहते थे उनकी संख्या बहुत कम थी और वे मुख्यतः यहूदियों के
धार्मिक नगर जेरूसलम, हेब्ब्रोन, सफ़ेद और टिब्रीस में ही केन्द्रित थे. यह सब
मूलतः धार्मिक थे. इनका जीवन यापन दुनिया भर में फैले यहूदियों द्वारा दिए गए दान
पुण्य से चलता था. इनकी गतिविधियाँ मूलतः धार्मिक ही थीं. इनका इस भूभाग से लगाव
धार्मिक था, राष्ट्रीय नहीं. ये
किसी भी प्रकार के जिओनिस्ट आन्दोलन से जुड़े नहीं थे. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के
प्रारम्भ (1914) होते होते इस भूभाग की जनसँख्या में उल्लेखनीय परिवर्तन आया. और
इनकी जनसँख्या 60,000 तक बढ़ गयी. जिसमें 36, 000 वे थे जो हाल ही में
इस भूभाग पर आये थे. उस समय यहाँ अरबों की जनसँख्या 1914 में 6,83,000 थी.
(क्रमशः )
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