Friday, 25 April 2014

फ़हमीदा रियाज़ और उनकी नज़्म 'तुम बिल्कुल हम जैसे निकले '


कभी कभी कुछ रचनाएँ अपनी सीधी सादी शैली में बहुत ही गहरी बात कह जाती हैं।  ऐसी ही एक रचना है फ़हमीदा रियाज़ की 'तुम बिलकुल हम जैसे निकले '
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फ़हमीदा, उर्दू की एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं वह पाकिस्तान के प्रगतिशील लेखकों में अग्रणी हैं।  इनका जन्म मूल रूप से मेरठ में जुलाई 26 को एक साहित्यकार परिवार में हुआ था। इनके पिता रियाज़ उद दीन सिन्ध प्रान्त के शिक्षा विभाग में थे।  बंटवारे के बाद वे वहीं हैदराबाद में ही बस गए

पिता के बचपन में ही निधन हो जाने के कारण इनकी माता ने इन्हे पाला।  प्रारम्भ में यह बीबीसी की उर्दू सेवा से जुडी रहीं। उन्होंने कराची एक एडवरटाइजिंग एजेंसी में भी काम किया और 'आवाज़' नाम से एक प्रकाशन भी खोला। हालांकि तब तक इनकी एक शादी हो चुकी थी और उनसे एक बेटी भी थी पर यह सम्बन्ध बहुत दिनों तक चला नहीं और तलाक़ भी हो गया। कराची में इनकी मुलाक़ात, वामपंथी विचारक और लेखक ज़फर उल उजान से हुए और जिनसे इनका विवाह हुया। 'आवाज़' एक वामपंथी विचारधारा का प्रकाशन था।  इस पर  जिया  उल हक़ के शासन में पाबंदिया भी लगी और ज़फर को गिरफ्तार कर लिया गया।  फ़हमीदा अपने बच्चों के साथ एक मुशायरे के निमंत्रण के बहाने भारत आ गयी. और यहां सात साल रहीं।   इसी बीच वे दिल्ली विश्वविद्यालय से भी जुडी रहीं।

जब बेनज़ीर भुट्टो कि सरकार आयी तो वह स्वदेश लौट गयीं और नेशनल बुक फाउंडेशन की प्रबन्ध निदेशक बनीं। बाद में जब नवाज़ शरीफ की सरकार बनी तो वह भारतीय एजेंट कह कर बहुत हीं प्रताडित की गयीँ। जब पुनः बेनज़ीर की सरकार आयी तो वह कायदे आजम अकादमी में नियुक्त हुयीं। पर जैसे ही बेनज़ीर की सरकार गयी वह पकिस्तान में अवांछित व्यक्ति घोषित कर दी गयीं।  

अक्टूबर 2007 में उनके बड़े पुत्र कबीर का तैरते समय डूब कर निधन हो गया। यह उनके लिये बहुत बड़ा सदमा था. उसी समय उन्होंने रूमी कि 50 रचनाओं का फारसी से उर्दू अनुवाद किया जो शम्स तबरेज़ के नाम से प्रकाशित हुआ। वह उर्दू डिक्शनरी बोर्ड कि भीं 2000 से  2011  तक एम ड़ी रहीं  

फ़हमीदा , एक लेखक तो थीं ही लेकिन सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलनों में भी वह काफी सक्रिय रहीं हैं. सिंध विश्वविद्यालय में स्टूडेंट्स यूनियन में भी वे सक्रिय रही है।  उन्होंने जनरल अयूब खान के समय विश्वविद्यालय यूनियन के खिलाफ़ पाकिस्तान सरकार के अध्यादेश का विरोध भी किया था।  उन्हें पाकिस्तान सरकार ने कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया है। उनकी पहली रचना फुनूँ पत्रिका में जब वे केवल 15 वर्ष की थीं तो प्रकाशित हुयी थी और उनका पहला कविता संग्रह उनकी 22 वर्ष की आयु में

उनकी यह कविता बहुत  ही प्रसिद्ध है और धर्म के आधार पर गठित राज्यों की विडम्बना को दर्शाती भी है।  फ़हमीदा उन साहित्यकारों मैं रही हैं जिन्होंने धर्म के विकृत स्वरुप को न केवल भोगा है बल्कि उन्हे शब्द भी दिये हैं।  आज जब सेक्युलर शब्द एक मज़ाक का रुप ले रहा है तो उनकी कविता प्रासंगिक हो जाती है।

तुम बिलकुल हम जैसे निकले... 
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तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।

प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी

कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी

माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले

हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश् करो तुम, जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।

आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत

फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।


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