Wednesday, 2 April 2014

दरख़्त - विजय शंकर सिंह


हवा  जो  दरख्तों की,  
सांस  थी ,                      
रात  हुयी  बारिश  में,  
धुल  गयी ,
अब  पेड़,  
चुपचाप  और  गुमसुम ,
खामोशी  की  चादर,  
ओढ़े  खड़ें  हैं ,
साधनारत,
या मूक किंकर्तव्यविमूढ़

मैं , जो  इस  सन्नाटे  और  वीराने  से ,
ऊब  चुका  हूँ  ,
लबरेज़  हूँ  आक्रोश  से ,
सब्र चुक गया ताप  से,
थक  गए  हैं  स्वर ,
आँखे  अन्धकार को  छीजती  हुयी ,
रोशनी  की  तलाश  में  मुब्तिला  हैं .

फूँक   मार   कर ,
जान  डाल  रहा  हूँ ,
इस  दरख़्त  में ,
जो  हरा  भरा  तो  है ,
पर  हो  चला  है  ठूंठ  सा ,

मेरी  कोशिश ,जो  नाकाम तो है ,
पर नातमाम नहीं
एक  भी  पत्ते  में ,
हल्की  सी  जुम्बिश भी  नहीं अभी ,

ग़ुरूर  और  अहंकार  में  डूबा,
सारी   शाखें, पत्ते, खुद   ही  में  समेटे,
खुदगर्ज़
ठस, अकर्मण्य,और  अना  से  भरा ,
ये  दरख्त,
व्यंग्य  से  मुस्कुराता  है,
मुझे  देख  कर.
मेरी  साँसों  की सामर्थ्य   पर ,
मेरी  फूँक  की ताकत  पर .

मैं  पूरी  हिम्मत  से ,
सीने  में  भर  कर  हवा ,
फूँक पर फूँक  मारने  की  कोशिश  में  हूँ ,
पर  दरख़्त  तो  दरख़्त ,
आस  पास  खड़े  पेड़  भी ,
देख  कर  चुप  हैं , मुझे 

पर  मैं  चुका नहीं  हूँ  मेरे  दोस्त ,
जिजीविषा  जीवित  है  अभी ,
हवाएं कुछ साथ हैं मेरे   ,
और  मैं ,
दरख़्त  को  तंद्रा  से  निकालने  के  लिए ,
फूँक  मारता रहूंगा ,
तुम  मेरे  साथ  रहोगे ,  
मेरे दोस्त .
-vss


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