हवा जो दरख्तों की,
सांस
थी ,
रात हुयी बारिश
में,
धुल गयी ,
अब पेड़,
चुपचाप और गुमसुम ,
खामोशी की चादर,
ओढ़े खड़ें हैं ,
साधनारत,
या मूक किंकर्तव्यविमूढ़ ?
मैं , जो इस सन्नाटे और वीराने
से ,
ऊब चुका हूँ ,
लबरेज़ हूँ आक्रोश
से ,
सब्र चुक गया ताप से,
थक गए हैं स्वर ,
आँखे अन्धकार को छीजती हुयी ,
रोशनी की तलाश
में मुब्तिला हैं .
फूँक मार कर ,
जान डाल रहा हूँ ,
इस दरख़्त में ,
जो हरा भरा तो है ,
पर हो चला है ठूंठ सा ,
मेरी कोशिश ,जो नाकाम तो है ,
पर नातमाम नहीं,
एक भी पत्ते
में ,
हल्की सी जुम्बिश भी नहीं अभी ,
ग़ुरूर और अहंकार
में डूबा,
सारी शाखें, पत्ते, खुद ही में समेटे,
खुदगर्ज़,
ठस, अकर्मण्य,और अना से भरा ,
ये दरख्त,
व्यंग्य से मुस्कुराता है,
मुझे देख कर.
मेरी साँसों की सामर्थ्य पर ,
मेरी फूँक की ताकत पर .
मैं पूरी हिम्मत
से ,
सीने में भर कर हवा ,
फूँक पर फूँक मारने की कोशिश में हूँ ,
पर दरख़्त तो दरख़्त ,
आस पास खड़े पेड़ भी ,
देख कर चुप हैं , मुझे
पर मैं चुका नहीं हूँ मेरे
दोस्त ,
जिजीविषा जीवित है अभी ,
हवाएं कुछ साथ हैं मेरे ,
और मैं ,
दरख़्त को तंद्रा
से निकालने के लिए ,
फूँक मारता रहूंगा ,
तुम मेरे साथ रहोगे न,
मेरे दोस्त .
-vss
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