Sunday, 13 April 2014

एक कविता , आक्रोश....- विजय शंकर सिंह



तेज़  चले   अंधड़   ने   ,
उड़ा    डाले    सारे  पत्ते ,
जो   चिपके   हुए   थे   पेड़ों   से   किसी   तरह  ,
हो  रहे  थे  पल्लवित ,
दे  रहे  थे  छाया  पथिक  को ,
अचानक  उन्हें  गिरा  गया ,
एक  पागल  चक्रवात ,
फिर  पूछा ,
एक  शैतानी  मुस्कराहट  से ,
अलग  हो  कर  शजर  से  तुम ,
क्या  सोचते  हो .
क्या  कहें , सूखे  और  गिरे  पत्ते ,
एक  मौन , जिसमें  भरा  है 
केवल  आक्रोश ....
-vss















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