Thursday 27 February 2014

नैतिकता की अपेक्षा भी अब केवल सैनिकों से ही ?

नौवहन की एक गौरवपूर्ण परम्परा रही है.  जब भी कोई  पोत सागर में डूबने लगता था तो पोत का  कमांडर सबसे अंत में पोत से उतरता था. सबसे पहले बचाव कार्य में बच्चे , महिलायें वृद्ध आदि और अंत में क्रू तथा सबसे अंत में कमांडर बचने के लिए उतरता था. अगर किन्ही कारणों से वह बच नहीं पाता था तो वह भी उस जल पोत के साथ डूब जाता था. एडमिरल जोशी का त्यागपत्र इस परम्परा को याद दिलाता है।  " शं नौ वरुणः " वरुण तो शांत हैं पर असमंजस , अशांति , ढुलमुलपन कहीं और है यह त्यागपत्र उसी सड़ांध को बताता है


नौसेना की पनडुब्बी हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए, नौ सेना प्रमुख ने त्याग पत्र दे दिया है. पर नौ सेना में संसाधन नहीं बढ़ रहे थे क्या इस की जिम्मेदारी रक्षा सचिव और रक्षा मंत्री पर नहीं है ? अगर इस की पड़ताल की जाय तो यही तथ्य सामने आयेगा कि आधुनिकीकरण के अनेक प्रस्ताव सचियावालय की फाइलों में धूल खा रहे हैं. लेकिन हर सचिवालय की अपनी ही गति है. एक अत्यंत सम्मानित वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने एक बार एक गोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा था कि, " वह एक बार गृह सचिव के यहाँ उनके कार्यालय में गए थे. गृह सचिव के कार्यालय में उनकी मेज़ पर एक ऐश ट्रे रखा था. उस ऐश ट्रे का आकार एक कछुए के समान था. उक्त पुलिस अधिकारी ने मजाक में कहा कि सरकार की गति कछुए की तरह है. वह हर प्रस्ताव पर इसी गति से चलती है. " बात व्यंग्य  और हलके फुल्के वातावरण में कही गयी थी. पर इसके निहितार्थ स्पष्ट है. सेना का कोई अंग हो, अर्ध सैनिक बल हों, या राज्य पुलिस हों सबके प्रमुखों को सरकार के इस विलंबित गति से रू ब रू होना पड़ता है.

दो महायुद्धों के बाद और उसमें हुए महा विनाश के वाद, दुनिया की मानसिकता बदल गयी थी  . साम्राज्यवाद का चेहरा और उसकी प्रकृति बदल गयी थी  मध्य युग तक, सेनायें विजय अभियान चलाती थी, और निरंतर एक न एक युद्धों में शामिल रहती थी. सेनापति महामंत्री के बाद राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकारी होता था. फिर साम्राज्यवाद का चेहरा बदला. बाज़ार की खोज में यूरोप के कई देश अपने अभियान पर निकले. उन्होंने व्यापारिक कंपनिया बनायी, और व्यापारी चोले में एशिया की और आयें. इंग्लैंड , पुर्तगाल,हालेंड , फ़्रांस सब ने अपने व्यापारिक हित के लिए अभियान चलाये. ईस्ट इंडिया कंपनी जिस ने सिर्फ व्यापार की इच्छा से देश में अपना मायाजाल फैलाया. और सौ साल में  ही झूठ , षड्यंत्र , फरेब और जालसाजी से कंपनी का शासन सीधे ब्रिटिश राज के अंतर्गत आ गया. यह साम्राज्य का एक बेहद बदला हुआ और शातिर चेहरा था. सेना तब से उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही. उसका प्रयोग सीधे नहीं होता था जैसा कि मध्य युग में हुआ था.


अचानक 1914 और 1939 में प्रथम और द्वितीय महा युद्ध क्रमशः शुरू हुए. महा विनाश हुआ. लेकिन, दुनिया में अनेक वैचारिक परिवर्तन भी हुए. कई देश आज़ाद हुए. ब्रिटिश साम्राज्ञी के मुकुट का सबसे चमकदार हीरा भी अंग्रेजों से छिन गया. आज़ादी के बाद जवाहर लाल नेहरू पञ्च शील से प्रभावित थे. वह सैन्य अभियान और सेना को फ़िज़ूल समझते थे.  वह विश्व में भारत की क्षवि एक शान्ति दूत के रूप में स्थापित करना चाहते हैं।  राजनीति, स्वार्थ ,विस्तारवाद की दुनिया में यह एक प्रकार का काल्पनिक आदर्शवाद था और अब भी है। जिन आदर्शों को लेकर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी उसी आदर्शों के हैंगओवर में उस समय हमारे नेतागण थे. इसी कमजोरी को भांपते हुए, तिब्बत और दलाई लामा के मुद्दे पर खार खाए चीन ने अक्टूबर 1962 में भारत पर हमला कर दिया. देश को करारी हार से भुगतना पडा. नेहरू इसे समझ नहीं पाए. और इस सदमे से वे उबर भी नहीं पाए. इस के पश्चात  सेना और सैन्य आधुनिकीकरण देश के एजेंडे में ऊपर आ गया. इसी का परिणाम था कि 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में सेना से अत्यंत गौरव पूर्ण प्रदर्शन  किया और भारत जीता. यह अभियान यहीं नहीं थमा. 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध , और बाद में कारगिल युद्ध में सेना अपराजेय रही.


युद्ध में सैनिकों का मनोबल, रणनीति, और उनका धैर्य महत्वपूर्ण होता है. पर अश्त्र शस्त्र की भी कम भूमिका नहीं होती है. आज कल हथियारों के क्षेत्र में रोज़ नयी नयी खोजें हो रही हैं. सेना को भी उन्ही खोजों के साथ कदम मिला कर कदम ताल करना पडेगा. सेना प्रमुखों को इन हथियारों और आधुनिकीकरण के सम्बन्ध में बहुत अधिक अधिकार नहीं है. यह अधिकार रक्षा मंत्री और मंत्री मंडल को है. रक्षा सचिव जो सरकार के सचिव हैं वह भी इस के लिए जिम्मेदार हैं. जहां तक तकनीकी सलाह और जांच का प्रश्न है, सेना प्रमुख की राय ली जाती है. लेकिन अंतिम निर्णय सरकार का ही होता है. एन डी ए के कार्यकाल जब जॉर्ज फर्नांडिस देश के रक्षा मंत्री थे तो सियाचिन में आइस स्कूटर, और उस भीषण शीत में पहनने वाले वर्दी की आपूर्ति का मामला सचिवालय में लंबित था. जॉर्ज ने सचिवालय के कुछ अधिकारियों को सियाचिन भेजा ताकि वह उन परिथितियों को भोगें और उन मुसीबतों का सामना करें जो हमारे जवान झेल रहे थे. जॉर्ज अकेले रक्षा मंत्री थे, जिन्होंने अत्यंत दुर्गम स्थानों का दौरा किया और जवानों का मनोबल ही नहीं बढाया, बल्कि सैन्य  आधुनिकीकरण को गति भी प्रदान की.


आज एडमिरल जोशी का जो त्यागपत्र है वह शासन के कच्छप गति और मूंदहु आँख कतहु कुछ नाहीं  की मानसिकता का एक उदाहरण है. युद्ध अब आमने सामने नहीं बाज़ार और प्रचार में लड़े जाते हैं. अगर आमने सामने का युद्ध भी होता है तो उसका भी कारण आर्थिक ही है. अमेरिका ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, जहां जहां भी सैन्य अभियान किया वहाँ उसका मक़सद बाज़ारवाद और आर्थिक ही रहा चाहे वह युद्ध वियतनाम , से हुआ हो, या इराक से या अफगानिस्तान में या जिसकी  भूमिका वह ईरान में बना रहा था.  भारत में  सैन्य तैयारियों को तभी प्राथमिकता से लिया जाता है जब सीमा पर कुछ हलचल होती है. 1962 के बाद हमने कोई युद्ध नहीं हारा है. और हम चाहेंगे कि हारें भी नहीं लेकिन नारों, और प्रशंसा से हम युद्ध जीतें या न जीतें शहीद ज़रूर बढ़ा देंगे. ऐसा इस लिए नहीं की बहादुरी के जज्बे की कमी है. यही सेना 1962 में अत्यंत साधनहीनता के बीच लड़ी थी . लेकिन हारी तो कमज़ोर तैयारियों से.

नौ सेना प्रमुख का इस्तीफा एक समाधान नहीं है, यह एक चेतावनी है, देश के लिए. इस इस्तीफे के लिए जो  परिस्थितियाँ  जिम्मेदार हैं उन परिस्थितियों के लिए रक्षा मंत्रालय जिम्मेदार है. इन परिस्थितियों के लिए जो जिम्मेदार हैं अगर उनकी नैतिकता मर गयी है तो उन्हें उनके पद से हटा देना चाहिए. राष्ट्रपति महोदय सशत्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर भी है. उन्हें इन परिस्थितियों में कुछ करना चाहिए.


- विजय शंकर सिंह.

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