Tuesday, 18 February 2014

इस प्रकरण पर किसी भी की चुप्पी ठीक नहीं है

इस प्रकरण पर किसी भी की चुप्पी ठीक नहीं है. देश में बहुत से मूकदमे कायम हुए हैं और कायम होंगे पर जितनी बौखलाहट इस मामले में बड़े दलों में दिख रही है, वह केजरीवाल के आरोपों को ही पुष्ट कर रही है. मुकेश जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि कांग्रेस तो उनकी दूकान है. लेकिन क्या भाजपा भी उनकी दूकान बनेगी अगर पॉवर में आ गयी तो. जिस तरह से रिलायंस का अभूतपूर्व विकास हुआ है उसे देखते हुये यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि उनके उत्थान में कहीं न कहीं राजनीतिक दलों का भी स्वार्थ रहा है. संसार में कुछ भी न तो निःस्वार्थ होता है और न ही निरपेक्ष. सबकी अपनी रण नीति होती है, और विचारधारा भी.

जिस बात ने मुझे बहुत हैरान कर रखा है वह यह कि केंद्र सरकार अदालत में इस मुक़दमे को चुनौती देगी. कानूनी सच यह है कि सरकार ऐसा कर सकती है. पर गैस की आसन्न बढने वाली कीमतों को लेकर जिस तरह से सरकार व्याकुल है, यह व्याकुलता अम्बानी के हित को लेकर है या देश की जनता के हित को लेकर. अम्बानी को घाटा न हो, इस की चिंता सरकार को होनी चाहिए, क्यों कि देश का विकास जुडा है इस मसले से. पर देश पर इस संभावित वृद्धि से क्या प्रभाव पडेगा, इसे भी सरकार को बताना होगा. अगर महंगाई पर, या जीवन स्तर पर या देश के विकास पर क्या असर होगा यह नहीं बताया गया तो देश में इस फैसले को लेकर भ्रम ही फैलेगा और अविश्वास भी फैलेगा.

जितनी चिंता सरकार गैस में घाटे को लेकर अम्बानी के प्रति दिखा रही है, क्या इतनी चिंता उसने किसानों के लिए भी कभीे दिखाई है.? गन्ना किसानों का करोणों नहीं अरबों बकाया है, किसान सड़क और अदालतों तक अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. अदालती आदेश भी उनके पक्ष में है, लेकिन सरकार चिंता में नहीं है. और जब चुनाव आयेगा तो सारे नेता जिन्हेंे धान और गेहूं के पौधे का फर्क भी नहीं मालूम है वह भी कहेंगे कि वे किसान के बेटे हैं, अब ऐसे नालायक बेटों का क्या किया जाय.

सरकारी आकंडा देखें कम से कम सैकड़ों किसानों ने आत्म ह्त्या की होगी. अपनी खडी फसल को आग लगा दिया होगा. लेकिन संसद कभी इस पर उत्तेजित नहीं हुयी. हाँ उत्तेजित हुयी तो, तब जब उनकी 'गरिमा'को ठेस पहुँची, क्या विकास की महायात्रा में किसानों का कोई योगदान नहीं है ? क्या उन मजदूरों का कोई योगदान नहीं है , जिन के बिना कोई औद्योगिक घराना पनप नहीं सकता. अगर फोर्ब्स मैगज़ीन में दुनिया के सर्वाधिक अमीरों की सूची में हमारे देश के कुछ अमीर आ जाते हैं तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. पर जब सैकड़ों किसान अपने फसल की वाजिब कीमत न मिलने के कारण आत्म ह्त्या कर लेते हैं और पचासों एकड़ फसल जब खेत में जला दी जाती है. तो क्या कभी शर्म से देश का सर झुका है. संसद ने इन घटनाओं पर शायद ही कभी शोक मनाया होगा.

कितना अच्छा होता सरकार उन मामलों में भी यही चिंता दिखाती जितना वह अम्बानी मामले में दिखा रही है. कुछ लोग कुछ फीट ऊपर उठें इस से बेहतर है कि पूरा देश कुछ इंच ऊपर उठे. इन्कलाब, क्रान्ति, बदलाव कितने खूबसूरत शब्द हैं ये. लगता है, घोर अंधेरी निशा के बाद कहीं एक सूरज धीरे धीरे प्रगट हो रहा है. आज किसी को चाय याद आ रही है, कोई किसी कलावती के घर खा कर उसकी तुलना शबरी के बेर से कर रहा है.पर जब बात आती है वंचितों के बारे में कुछ सोचने और करने की तो क़ानून की वही धाराएं याद आती हैं जो उनके स्वार्थ का पोषण करती हैं.

-vss

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