इलाहबाद में आर पी द्विवेदी एक बहादुर पुलिस अफसर थे और वह थानाध्यक्ष बारा के पद पर नियुक्त थे . कल एक साहसिक अभियान में वह शहीद हो गए . उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास में न यह पहली शहादत है और न आख़िरी होगी . पुलिस की नौकरी में इस तरह के खतरे पहले भी आते थे और आगे भी आयेंगे .पुलिस में इसी प्रकार के खतरों को देखते हुए , वीर गति प्राप्त पुलिस कर्मियों के परिवार के सम्मानजनक भरण पोषण के लिए , एक मुश्त धनराशि , जीवन पर्यन्त असाधारण पेंशन , एक आश्रित को योग्यतानुसार राजकीय सेवा में लिया जाता है . ऐसा पहले भी होता रहा है . और ऐसा ही शासनादेश भी है .
पर पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में ही एक डी एस पी , जिया उल हक की मृत्यु प्रतापगढ़ में हुयी थी . वह एक गाँव में विवाद की सूचना पर गए थे . पर कुछ सहकर्मियों की कायरता के कारण वह अकेले पड़े और मारे गए . इस घटना ने एक राजनितिक रंग लिया और सरकार के एक मंत्री को त्यागपत्र देना पडा . इस मामले की जांच सी बी आई को दी गयी और वह इस पर जांच कर रही है .जिया की पत्नी परवीन ने अपने पति की शहादत पर , जांच करने और षड़यंत्र का पर्दाफ़ाश करने की मांग की और उचित मुआवजा की भी मांग की . सरकार सक्रिय हुयी . सरकार ने पचास लाख रूपये की आर्थिक सहायता और परवीन तथा जिया के एक भाई को सरकारी नौकरी दिया . इसपर कुछ लोगों ने आपत्ति की और माननीय उच्च न्यायालय इलाहबाद में एक जनहित याचिका भी दायर की . याचिका पर कोर्ट ने सरकार को अपना पक्ष रखने को कहा है . याचिका अभी विचाराधीन है
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जिया का पैत्रिक घर देवरिया जनपद में है . लगभग सभी दलों के नेता वहाँ पहुंचे और शोक संवेदना प्रकट की और कुछ न कुछ आर्थिक सहायता भी दी . जिया एक योग्य कुशल और न्यायप्रिय अधिकारी थे , उनको खोना पुलिस की क्षति तो है ही मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है क्यूँ की वह मेरे बहुत नज़दीक थे
पर एस ओ बारा की मौत ने भी एक सवाल खडा किया है . यह भी जिया की तरह एक एक्शन में मारे गए हैं और युवा हैं . वर्तमान शासनादेश के तहत अगर इनके आश्रितों को लाभ मिलता है तो वह इनके साथ न्याय नहीं हॊगा .जो लाभ जिया की मृत्यु पर दिया गया था वही लाभ इन्हें भी दिया जाना चाहिए . द्विवेदी की विधवा पत्नी को , 50 लाख रुपया की आर्थिक सहायता और परिवार के 2 सदस्यों को नौकरी दी जानी चाहिए . अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका सन्देश पुलिस जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण और संवेदनशील विभाग में बहुत गलत जाएगा . कुछ दल इस में मुस्लिम तुष्टिकरण की बारीकियां खोजेंगे और कुछ इसे अगले चुनाव में मुद्दा बनाने की सोचेंगे .
जो शासनादेश मृतक आश्रितों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया है , उसे भी इसी अनुसार संशोधित किया जाना चाहिए . क्यों कि यह न तो अंतिम शहादत है और न बहादुरी की आखिरी मिसाल .
जिया और आर पी ने एक ही शपथ ले कर इस महकमे में कदम रखा था . एक ही तरह की बहादुरी की मिसाल उन्होंने दी . अब अगर उनकी शहादत को अलग नज़रिए से देखने की कोशिश की गयी तो पुलिस के लिए यह बेहद दुखद होगा और इसके परिणाम देश और प्रदेश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होंगें . जातिगत और सांप्रदायिक बुराइयों , एवं विभाग में इस ज़हर के प्रवेश के बावजूद , पुलिस का स्वरुप और मानसिकता अभी उतनी प्रदूषित नहीं हुयी है जितनी की राजनितिक दलों की .. देश की सुरक्षा , और अखण्डता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि पुलिस भी सेना की तरह अपोलिटिकल रहे . लेकिन दोनों की भूमिकाओं में अंतर होने के कारण पुलिस राजनीति से दूर रहे यह संभव भी नहीं है .
लेकिन , बहादुरी और, शहादत पर , कोई राजनीतिक खेल नहीं खेला जाना चाहिए .
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