Monday, 4 December 2023

स्वामी सहजानन्द सरस्वती - "मेरा भगवान ... किसान है." / विजय शंकर सिंह

स्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका जन्म, ग़ाज़ीपुर जिले के दुल्लहपुर गाँव में हुआ था। वे शंकराचार्य परंपरा के दंडी स्वामी थे। उन्हे भारत में किसान आन्दोलन का जनक कहा जाता है। वे बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे। उन्होने 'हुंकार' नामक एक पत्र भी प्रकाशित किया। 

बिहार में किसान सभा आंदोलन, सहजानंद के नेतृत्व में शुरू हुआ जब, जिन्होंने 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा (बीपीकेएस) का गठन किया था, ताकि, जमींदारी हमलों के खिलाफ किसानो को सागठित किया जा सके। अप्रैल 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ सत्र में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) का गठन हुआ , जिसमें स्वामी जी, इसके पहले अध्यक्ष हुए। अन्य प्रमुख नेताओं में, एनजी रंगा और ईएमएस नंबूदरीपाद थे।  

बाद में स्वामी जी ने, कांग्रेस को त्याग दिया और उन्होंने नेताजी सुभाष बोस, के नेतृत्व में गठित एक नई पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गए। किसान आंदोलन के दौरान, स्वामी जी के कॉमरेड, ईएमएस नंबूदरीपाद भी कांग्रेस से बाहर आ गए और वे बाद में, कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। साल 1936 - 37 में कांग्रेस से एक और समाजवादी धड़ा अलग हुआ था, जिसमे, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन और डॉ राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता शामिल थे। समाजवादी  विचारधारा और इस धड़े के, यह सब नेता, भारत छोड़ो आंदोलन के समय, अग्रिम पंक्ति में शामिल थे, जब कांग्रेस के सभी बड़े नेता, 9 अगस्त 1942 को,  जेल में डाल दिए गए थे और नेताजी सुभाष बाबू, देश से बाहर निकल कर आजाद हिंद फौज की योजना बना रहे थे। 

एक किसान घोषणापत्र, अगस्त 1936 में जारी किया गया था, जिसमें, जमींदारी प्रथा को समाप्त करने और  ग्रामीण ऋणों को रद्द करने की मांग की गई थी। अक्टूबर 1937 में, AIKS ने लाल झंडे को अपने बैनर के रूप में अपनाया। स्वामी जी, ने 1937-1938 में बिहार में बकाश्त आंदोलन की शुरुआत की। "बकाश्त" का अर्थ है स्व-संवर्धित। यह आंदोलन जमींदारों द्वारा बकाश्त भूमि से किरायेदारों को बेदखल करने के खिलाफ था और इसके कारण बिहार किरायेदारी अधिनियम और बकाश्त भूमि कर पारित हुआ। उन्होंने बिहटा में डालमिया चीनी मिल में सफल संघर्ष का भी नेतृत्व किया, जिसकी, किसान-मजदूर एकता सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी। 

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के बारे में सुनकर, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश राज द्वारा उनकी कैद के विरोध में 28 अप्रैल के दिन को, अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था। कांग्रेस छोड़ कर, स्वामी जी, नेताजी सुभाष चंद्र बस के नेतृत्व मे गठित, आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़ गए थे। 26 जून 1950 को, स्वामी सहजानंद सरस्वती की मृत्यु हो गई। 

भारत छोड़ो आंदोलन मे जब स्वामी सहजानंद गिरफ्तार हुए तो, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो तब, देश के बाहर थे ने, स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के विरोध मे कहा था .... 

"स्वामी सहजानंद सरस्वती, हमारी धरती पर, एक ऐसा नाम है जिसे याद किया जा सकता है। भारत में किसान आंदोलन के निर्विवाद नेता, वह आज जनता के आदर्श और लाखों लोगों के नायक हैं। रामगढ़ में अखिल भारतीय समझौता-विरोधी सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्हें पाना वास्तव में एक दुर्लभ सौभाग्य था। फॉरवर्ड ब्लॉक के लिए उन्हें वामपंथी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक और फॉरवर्ड ब्लॉक के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में पाना एक विशेषाधिकार और सम्मान की बात थी। स्वामीजी के नेतृत्व के बाद, बड़ी संख्या में किसान आंदोलन के अग्रणी नेता फॉरवर्ड ब्लॉक के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।"

यह अंश स्वामी सहजानंद के एक लेख का है, जिसे मैंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक पोस्ट से लिया है.... 

"कहते हैं कि वह (ईश्वर) सब काम पलक मारते कर देता है और जिस बात को नहीं चाहता उसे कदापि नहीं होने देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने और भक्तों का हुक्म बजाने से पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान् या सब कुछ कर सकने वाला है - सब कुछ करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान् के मन्दिर में दीप मत जलाइये और भगवान् से कह दीजिये कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है। देखें, आपके घर में - मन्दिर में - मस्जिद में - अँधेरा ही रहता है या उजाला भी होता है। रात भर देखते रहिये। मन्दिर का फाटक बन्द करके छोटे से सूराख से रह-रहकर देखिये कि कब चिराग जलता है ! आप देखेंगे कि जलेगा ही नहीं, रात भर अँधेरा ही रहेगा !

इसी प्रकार एक दिन न घण्टी बजे, न आरती हो और न भोग लगे ! किसान के गेहूँ, दूध और उसके पैसे से खरीदी घण्टी, आचमनी आदि हटा लीजिये। फिर देखिये कि दिन-रात ठाकुरजी भूखे रहते और प्यासे मरते हैं या उन्हें भोजन उनकी लक्ष्मीजी पहुँचाती हैं, दिन-रात मन्दिर सुनसान ही और मातमी शक्‍ल बनाये रह जाता है या कभी घण्टी वगैरा भी बजती है ! पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या महादेव बाबा को ‘सोलहों दण्ड एकादशी’ करनी पड़ी ! एक बूँद जल तक नदारद-आरती, चन्दन, फूल आदि का तो कहना ही क्या ! सभी गायब ! वे बेचारे जाने किस बला में पड़ गये कि यह फाकामस्ती करनी पड़ी।

और ये मन्दिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से? जब मन्दिर का कोना टूट जाय, तो ललकार दीजिये ठेठ भगवान् को ही जरा खुद-ब-खुद मरम्मत तो करवा लें। नये मन्दिर बनाने की तो बात ही दूर रही ! वह कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और मजदूर का हाथ उसमें न लगे ! यदि कोई मन्दिर भूकम्प से या यों ही अकस्मात् गिर गया हो और भगवान् उसी के नीचे दब गये हों तो उनसे कह दीजिये कि बाहर निकल आयें अगर शक्तिमान् हैं ! पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न लगायें, तब तक भगवान् उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो या नये-नये मन्दिर बनें - सभी केवल मेहनत करने वालों के ही पैसे या परिश्रम से तैयार होते हैं।

आगे बढ़िये ! गंगा को तीर्थ, मन्दिर को मन्दिर, जगन्नाथ धाम को धाम किसने बनाया है? किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने? सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में स्नान न करें, उन्हें गंगा माई न मानें, मन्दिरों में न जायँ, जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जायँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने, दर्शन करने या तीर्थ-यात्रा से गंगा आदि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व रह सकता है? उनका काम चल सकता है? गरीबों ने यदि बहिष्कार कर दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि राजों-महाराजों और सत्ताधारियों की लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोई अन्तर न रह जायगा, मन्दिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता खत्म हो जायगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मन्दिरों और धामों का काम और खर्च भी नहीं चल सकता यदि गरीबों के पैसे-धेले न मिलें। जल्द ही दिवाला बोल जायगा और पण्डे-पुजारी मन्दिरों, तीर्थों और धामों को छोड़कर भाग जायँगे !

यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल-चरण रज-की ही महिमा है, यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँचकर धुल जाती है तो वह गंगा माई कहाती है; जब मन्दिरों में वही धूल पहुँच जाती है तो वहाँ भगवान् का वास हो जाता है, पत्थर को भगवान् व गोबर को गणेश कहने लगते हैं; जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मन्दिरों में जा पहुँचती है तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरम्पार हो जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की धूल ही वहाँ पहुँच कर सबों को महान् बनाती है।

कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र और नंगे-धड़ंगे श्मशान में पड़े रहते हैं, मगर भक्तों को सब सम्पदायें देते हैं - उन्हें बड़ा बनाते हैं ! पता नहीं, बात क्या है? किसी ने आँखों से देखा नहीं। मगर ये किसान और कमाने वाले तो साफ ही ऐसे 
‘महादेव बाबा’
हैं कि स्वयं दिवालिये होते हुए भी, ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और खिलाते-पिलाते हैं !

ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है, ऐसा माना जाता है - सही। मगर किसने उसे हल चलाते, गेहूँ, बासमती उपजाते, गाय-भैंस पाल कर दूध-घी पैदा करते, हलुवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो बराबर यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है !

इतना ही नहीं। कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को खिलाता और पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसिलए वह एक प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उल्टी बात है ! वह तो जालिमों और सतानेवाले जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को ही हलुवा-मलाई खिलाता है और खुद बाल-बच्चों के साथ या तो भूखा रहता है या आधा पेट सत्तू अथवा सूखी रोटी खाकर गुजर करता है ! ऐसी दशा में असली भगवान् तो यह किसान ही हैं !

दुनिया माने या न माने। मगर मेरा तो भगवान् वही है और मैं उसका पुजारी हूँ। खेद है, मैं अपने भगवान् को अभी तक हलुवा और मलाई का भोग न लगा सका, रेशम और मखमल न पहना सका, सुन्दर सजे-सजाये मन्दिर में पधरा न सका, मोटर पर चढ़ा न सका, सुन्दर गाने-बजाने के द्वारा रिझा न सका और पालने पर झुला न सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ - इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि एक-न-एन दिन यह करके ही दम लूँगा; सो भी जल्द !"

- विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 


Sunday, 3 December 2023

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को आरोपी को गिरफ्तारी के कारण लिखित रूप में बताने होंगे / विजय शंकर सिंह

जब किसी भी संस्था की साख, चाहे राजनीतिक दखलंदाजी या संस्था प्रमुख की बेजा महत्वाकांक्षा या राजनीति का स्वतः एक उपकरण बन जाने की लालसा, या कोई और कारण से हो, तो उसके हर एक्शन पर लोगों की निगाह उठती है, सवाल खड़े किए जाते हैं, और उक्त संस्था द्वारा उठाया गया कदम यदि नेकनीयती तथा विधि सम्मत हो तो भी, लोग, उसे संदेह की दृष्टि से ही देखते है। यदि वह संस्था, सीधे जनता से जुड़े सरोकारों के संबंध में कोई जांच या छानबीन कर रही हो, तो उसकी चर्चा वे भी करने लगते हैं, जो, उक्त संस्था के किसी भी एक्शन से सीधे प्रभावित नहीं होते। मैं बात कर रहा हूं, देश की शीर्ष जांच एजेंसी, प्रवर्तन निदेशालय यानी एनफोर्समेंट डायरेक्टोरेट जिसे सामान्यतया ईडी के नाम से जाना और पुकारा जाता है। 

पिछले दस सालों में यदि किसी महत्वपूर्ण जांच एजेंसी की प्रतिष्ठा हानि या बुरी तरह साख गिरी है तो, वह जांच एजेंसी, पीएमएलए यानी प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट के अंतर्गत सर्वाधिकार प्राप्त एजेंसी, ईडी है। आज ऐसी स्थिति हो गई है कि, सामान्य पुलिस की जांचों की तरह से ईडी की जांच पर सवाल उठ रहे हैं, उनकी गिरफ्तार करने की शक्ति को अदालतों में चुनौती दी जा रही है, उनकी, मुल्जिम को, रिमांड पर रखने के अधिकार पर संशय खड़ा किया जा रहा है, और तो और सुप्रीम कोर्ट में ईडी को राजनीतिक प्रतिशोध और उत्पीड़न का एक हथियार कहा जा रहा है। 

ईडी को गिरफ्तारी की कितनी शक्तियां हैं और क्या ईडी को, गिरफ्तारी के संबंध में, पुलिस की शक्तियां प्राप्त हैं या नहीं, इस पर अभी भी कुछ याचिकाएं, सुनवाई हेतु सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, पर गिरफ्तारी की शक्ति के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने, पवन बंसल मामले में सुनवाई करते हुए कहा है कि, "प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को आरोपी को गिरफ्तारी के कारण लिखित रूप में बताने होंगे..." यानी गिरफ्तार व्यक्ति को, क्यों और किस कारण से गिरफ्तार किया गया है, इसका विवरण, लिखित रूप में उसे अवगत कराना होगा। 

इस तरह का आदेश देते हुए, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस पीवी संजय कुमार की पीठ ने कहा कि, "मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम (पीएमएलए) की धारा 19, ईडी के अधिकारियों को मनी लॉन्ड्रिंग अपराध के दोषी किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देती है। लेकिन, इस अधिकार का उपयोग करते हुए, अभियुक्त को 'ऐसी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाएगा'।  हालांकि, उक्त धारा में यह, निर्दिष्ट नहीं किया गया कि, गिरफ्तारी के आधार की जानकारी कैसे दी जानी चाहिए।  

इस मामले में सुनवाई करते हुए, पीठ ने यह भी कहा कि, "विजय मदनलाल चौधरी मामले में, यह माना गया था कि "किसी दिए गए मामले में ईसीआईआर (मनी लॉन्ड्रिंग मामलों में दर्ज होने वाली एफआईआर को ईसीआईआर कहते है) की गैर-आपूर्ति को गलत नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि ईसीआईआर में विवरण शामिल हो सकते हैं।  ईडी के कब्जे में मौजूद सामग्री और उसका खुलासा करने से जांच या पूछताछ के अंतिम नतीजे पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।  साथ ही, यह भी माना गया था कि जब तक व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में 'सूचित' किया जाता है, तब तक यह संविधान के अनुच्छेद 22(1) के आदेश का पर्याप्त अनुपालन होगा।"

तो, वर्तमान मामले में मुद्दा गिरफ्तारी के आधार को सूचित करने के तरीके के बारे में था - चाहे वह मौखिक हो या लिखित। जस्टिस संजय कुमार द्वारा लिखे गए फैसले में संविधान के अनुच्छेद 22(1) का उल्लेख किया गया है जिसमें प्रावधान है कि, "गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को, ऐसी गिरफ्तारी के आधार के बारे में जितनी जल्दी हो सके सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जाएगा।"
फैसले में कहा गया, "गिरफ्तार व्यक्ति को दिया गया, यह एक मौलिक अधिकार है, इसलिए गिरफ्तारी के आधार की जानकारी देने का तरीका, आवश्यक रूप से सार्थक होना चाहिए ताकि इच्छित उद्देश्य की पूर्ति हो सके।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आगे कहा कि, "पीएमएलए की धारा 19 के अनुसार, ईडी के अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं यदि उनके पास "विश्वास करने का कारण" है कि आरोपी पीएमएलए के तहत अपराधों का दोषी है।  पीएमएलए की धारा 45 के तहत जमानत पाने के लिए, आरोपी को यह स्थापित करना होगा कि यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि वह दोषी है। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए, गिरफ्तार व्यक्ति को उन आधारों के बारे में पता होना आवश्यक होगा जिन पर अधिकृत अधिकारी ने उसे धारा 19 के तहत गिरफ्तार किया है, और अधिकारी के 'विश्वास करने के कारण' के आधार पर कि, वह 2002 के अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को इन तथ्यों की जानकारी है तभी, वह विशेष अदालत के समक्ष, अपने बचाव में, दलील देने और खुद को निर्दोष साबित करने की स्थिति में होगा कि, यह मानने का आधार है कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है, ताकि जमानत से, उसे राहत मिल सके। इसलिए, गिरफ्तारी के आधार की सूचना, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 22(1) और 2002 के अधिनियम की धारा 19 द्वारा अनिवार्य है, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए, रखी गई है, और इसे उचित महत्व दिया जाना चाहिए।"

पीएमएलए की धारा, 19 के अनुसार, प्राधिकृत अधिकारी को यह विश्वास करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना होगा कि, "जिस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना है, वह 2002 के अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। धारा 19(2) के लिए प्राधिकृत अधिकारी को यह बताने की आवश्यकता है कि, धारा 19(1) में निर्दिष्ट, उसके कब्जे में मौजूद सामग्री के साथ गिरफ्तारी आदेश की प्रति, एक सीलबंद लिफाफे में न्यायनिर्णायक प्राधिकारी को भेजें।"

इन प्रावधानों के आलोक में, न्यायालय ने कहा, "हालांकि गिरफ्तार व्यक्ति को धारा 19(2) के तहत जुडिशियल प्राधिकारी को भेजी गई सभी सामग्री प्रदान करना आवश्यक नहीं है, लेकिन उसे गिरफ्तारी के आधार के बारे में 'सूचित' होने का संवैधानिक और वैधानिक अधिकार है।  , जिन्हें अधिनियम 2002 की धारा 19(1) के अधिदेश को ध्यान में रखते हुए प्राधिकृत अधिकारी द्वारा लिखित रूप में अनिवार्य रूप से दर्ज किया जाता है।"

सुप्रीम कोर्ट ने ईडी द्वारा, एक समान परंपरा का पालन नहीं करने पर आश्चर्य व्यक्त किया कि, ईडी आरोपी को गिरफ्तारी के कारणों को लिखित रूप में सूचित करने की किसी सुसंगत और समान प्रथा का पालन नहीं कर रहा है। शीर्ष अदालत ने कहा, "आश्चर्यजनक रूप से, इस संबंध में ईडी द्वारा कोई सुसंगत और समान प्रथा का पालन नहीं किया जाता है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में गिरफ्तार व्यक्तियों को गिरफ्तारी के आधार की लिखित प्रतियां प्रदान की जाती हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों में, उस प्रथा का पालन नहीं किया जाता है और  गिरफ़्तारी के आधार या तो उन्हें पढ़कर सुनाए जाते हैं या उन्हें पढ़ने की अनुमति दी जाती है।"

अभियुक्त को गिरफ्तारी का आधार लिखित रूप में क्यों दिया जाना चाहिए, इस पर अदालत का आधार तार्किक है। न्यायालय ने यह मानने के लिए मुख्य रूप से दो कारण बताए कि गिरफ्तारी के आधार के बारे में आरोपी को लिखित रूप में सूचित किया जाना चाहिए। 

अदालत ने कहा, "सबसे पहले, ऐसी स्थिति में गिरफ्तारी के ऐसे आधार मौखिक रूप से गिरफ्तार व्यक्ति को पढ़े जाते हैं या ऐसे व्यक्ति द्वारा बिना किसी अतिरिक्त जानकारी के पढ़े जाते हैं और यह तथ्य किसी दिए गए मामले में विवादित है, तो यह शब्द के खिलाफ गिरफ्तार व्यक्ति के शब्द तक सीमित हो सकता है  प्राधिकृत अधिकारी से पूछें कि इस संबंध में उचित और उचित अनुपालन है या नहीं।"
न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने के बजाय, उचित स्वीकृति के तहत 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संदर्भ में अधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज गिरफ्तारी के लिखित आधार प्रस्तुत करके अनिश्चित स्थितियों से आसानी से बचा जा सकता है। 

दूसरा कारण यह है कि, "गिरफ्तार व्यक्ति को ऐसी जानकारी देने का, उद्देश्य संवैधानिक अधिकार में निहित है। इस जानकारी का संप्रेषण न केवल गिरफ्तार व्यक्ति को यह बताना है कि उसे क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है, बल्कि  साथ ही ऐसे व्यक्ति को कानूनी सलाह लेने के लिए, सक्षम बनाना और उसके बाद, यदि वह चाहे तो जमानत पर रिहाई के लिए धारा 45 के तहत अदालत के समक्ष, अपना मामला प्रस्तुत कर सकता है। इस संवैधानिक और वैधानिक संरक्षण का उद्देश्य संबंधित अधिकारियों को केवल गिरफ्तारी के आधारों को पढ़ने या पढ़ने की अनुमति देने से निरर्थक हो जाएगा, चाहे उनकी लंबाई और विवरण कुछ भी हो, और अनुच्छेद 22(1) और 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के तहत वैधानिक आदेश की संवैधानिक आवश्यकता के उचित अनुपालन का दावा करें। 

मुल्जिम को गिरफ़्तारी का आधार बताना,  आमतौर पर संवेदनशील जानकारी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, "2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संदर्भ में अधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज की गई गिरफ्तारी का आधार, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत होगा और आमतौर पर, इसे लिखित तौर पर बताने में, कोई जोखिम नहीं होना चाहिए। फिर भी, यदि प्राधिकृत अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए गिरफ्तारी के ऐसे आधारों में ऐसी किसी संवेदनशील सामग्री का उल्लेख मिलता है, तो उसके लिए यह, विकल्प हमेशा खुला रहेगा कि वह दस्तावेज़ में दर्ज ऐसे संवेदनशील हिस्सों को संशोधित करे और गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों की, संशोधित प्रति दे, ताकि जांच की शुचिता की रक्षा की जा सके। 

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि, गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार की जानकारी देने के 2002 के अधिनियम की धारा 19(1) के संवैधानिक और वैधानिक आदेश को सही अर्थ और उद्देश्य देने के लिए, हम मानते हैं कि अब से यह आवश्यक होगा कि इसकी एक प्रति दी जाए। गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधार गिरफ्तार व्यक्ति को निश्चित रूप से और बिना किसी अपवाद के प्रस्तुत किए जाते हैं।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

क्या राज्य को केंद्रीय अधिकारियों के रिश्वत मामले में, कार्यवाही करने का अधिकार है? / विजय शंकर सिंह

तमिलनाडु के भ्रष्टाचार निवारण विभाग ने, प्रवर्तन निदेशालय ED के एक अधिकारी, बीस लाख की रिश्वत लेते गिरफ्तार किया है। इसके पहले, ईडी के अधिकारी का एक ट्रैप, राजस्थान में हुआ और छत्तीसगढ़ में, ईडी के एक छापे पर, ईडी के ही, गवाह और वादी ने सवाल उठा दिया। अमूमन, केंद्रीय एजेंसी के खिलाफ इस तरह की, कार्यवाही, राज्य के सतर्कता या एंटी करप्शन संस्थान नहीं करते हैं। यह घटनाएं, एक नया संकेत हैं, जो आगे चल कर बिगड़ते हुए केंद्र राज्य संबंधों में और खटास ही उत्पन्न करेंगी। 

हुआ यह कि, तमिलनाडु के सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय (डीवीएसी) ने, ईडी के एक अधिकारी को, एक सरकारी कर्मचारी से 20 लाख रुपये की रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इसे ट्रैप कहा जाता है। यह ट्रैप डिंडीगुल में हुआ और ईडी के अफसर को, हिरासत में लिए जाने के बाद, डीवीएसी अधिकारियों की एक टीम ने मदुरै में उप-क्षेत्र ईडी कार्यालय में, अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों से भी  'पूछताछ' की। 

डीवीएसी ने, गिरफ्तार अधिकारी का नाम, अंकित तिवारी बताया है, जो "केंद्र सरकार के मदुरै प्रवर्तन विभाग कार्यालय में एक प्रवर्तन अधिकारी के रूप में कार्यरत है।" अक्टूबर में, अंकित तिवारी ने, डिंडीगुल के एक सरकारी कर्मचारी से संपर्क किया और उस जिले में उनके खिलाफ दर्ज एक सतर्कता मामले का उल्लेख किया, जिसका निस्तारण "पहले ही किया जा चुका था।"
अंकित तिवारी ने "कर्मचारी को सूचित किया कि जांच करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश प्राप्त हुए हैं" और सरकारी कर्मचारी को 30 अक्टूबर को मदुरै में ईडी कार्यालय के सामने पेश होने के लिए कहा।"

एफआईआर के अनुसार, जब वह व्यक्ति मदुरै गया, तो अंकित तिवारी ने मामले में कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए, उक्त कर्मचारी से, 3 करोड़ रुपये रिश्वत देने को कहा। "बाद में, ईडी के अफसर, अंकित तिवारी ने कहा कि, उसने अपने वरिष्ठों से बात की है और उनके निर्देशों के अनुसार, वह रिश्वत के रूप में 51 लाख रुपये लेने के लिए सहमत हुए। अंकित तिवारी ने, उक्त कर्मचारी को व्हाट्सएप कॉल और टेक्स्ट संदेशों के माध्यम से कई बार धमकाया कि उसे 51 लाख रुपये की पूरी राशि का भुगतान करना होगा, अन्यथा उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, ” ऐसा डीवीएसी की विज्ञप्ति में कहा गया है।

ईडी के इस दबाव से, सरकारी कर्मचारी को संदेह हुआ और उसने गुरुवार को डिंडीगुल जिला सतर्कता और भ्रष्टाचार विरोधी इकाई में अपनी शिकायत दर्ज कराई। शुक्रवार को डीवीएसी के अधिकारियों ने अंकित तिवारी को, शिकायतकर्ता से 20 लाख रुपये की रिश्वत लेते हुए, रंगे हांथ पकड़ लिया। उसी विज्ञप्ति के अनुसार, "इसके बाद, अंकित तिवारी को, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत सुबह 10.30 बजे गिरफ्तार कर लिया गया। यह उल्लेख करना उचित है कि अधिकारियों ने उनके कदाचार के संबंध में कई आपत्तिजनक दस्तावेज जब्त किए हैं। यह स्पष्ट करने के लिए जांच की जा रही है कि क्या उन्होंने इस पद्धति को अपनाकर किसी अन्य अधिकारी को ब्लैकमेल/धमकी दी थी या नहीं तमिलनाडु सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी ने कहा, "ऑपरेंडी" और प्रवर्तन निदेशालय के नाम पर धन एकत्र किया।"

डीवीएसी के अनुसार, "ईडी के अन्य अधिकारियों की संभावित संलिप्तता का पता लगाने के लिए भी, पूछताछ की जाएगी, इसमें कहा गया है कि सतर्कता अधिकारी, ईडी के अफसर, अंकित तिवारी के आवास और मदुरै में उनके प्रवर्तन निदेशालय कार्यालय पर तलाशी ले रहे हैं और, "अंकित तिवारी से जुड़े स्थानों पर आगे की तलाशी ली जाएगी।"

ईडी केंद्र सरकार के अंतर्गत आती है तो, मदुरै में केंद्रीय एजेंसी ईडी के कार्यालय में डीवीएसी अधिकारियों के पहुंचने के बाद, भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के जवानों को 'सुरक्षा' उपाय के रूप में ईडी कार्यालय के अंदर अधिकारियों द्वारा तैनात किया गया था। एक ही समय में राज्य पुलिस और केंद्रीय पुलिस बल (आईटीबीपी, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के तहत) की मौजूदगी से मदुरै इलाके में थोड़ा तनाव हो गया था। 

इस घटना और ट्रैप को लेकर यह सवाल उठ रहा है कि, क्या राज्य के सतर्कता निदेशालय और भ्रष्टाचार निवारण विभाग को, केंद्र सरकार के किसी कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार या रिश्वत लेने की घटनाओं पर कार्यवाही करने का अधिकार है?

तमिलनाडु के इस मामले के गुण-दोष को दरकिनार करते हुए, यह कहा जा सकता है कि, सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय, तमिलनाडु, को, यानी राज्य को, रिश्वतखोरी के आरोप में एक ईडी अधिकारी (केंद्र सरकार कर्मचारी) को गिरफ्तार करना, राज्य पुलिस के अधिकार क्षेत्र में है। राज्य सरकार द्वारा डीएसपीई अधिनियम (जिसके अंतर्गत सीबीआई काम करती है, की धारा 6 के तहत सीबीआई के लिए, राज्यों द्वारा दी जाने वाली सामान्य सहमति को रद्द करने के साथ, राज्य पुलिस के पास, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत, अपने क्षेत्र में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों पर भी, कार्यवाही करने का, उसका एकमात्र अधिकार क्षेत्र, बन जाता है।

सीबीआई, भले ही केंद्र सरकार के आधीन आती है, पर किसी भी राज्य में उसे कोई जांच करने, ट्रैप करने या अन्य कोई भी राज्य सरकार से जुड़े कार्य कलाप की जांच करने के पहले, राज्य द्वारा धारा 6 DSPE (डीएसपीई) के अंतर्गत, सामान्य सहमति प्राप्त करनी होती है। तमिलनाडु सरकार ने, सीबीआई को यह जनरल कंसेंट नहीं दिया है तो, फिर सीबीआई, उक्त राज्य में कोई गतिविधि नहीं चला पाएगी। सीबीआई के ऊपर जब राजनैतिक दुरुपयोग की शिकायतें मिलीं, तब गैर बीजेपी राज्यों में से अधिकांश ने, सीबीआई को, इस तरह की दी गई कंसेंट वापस ले लिया। ऐसे में, यदि कोई भ्रष्टाचार या रिश्वत मांगने की शिकायत प्राप्त होती है तो, राज्य का सतर्कता या एंटी करप्शन विभाग, अपने राज्य की सीमा में, ट्रैप कर सकता है। 

इस संबंध में, केरल हाईकोर्ट ने, 2023 के एक फैसले में, कहा है कि, 

"पीसी अधिनियम या डीएसपीई अधिनियम का कोई भी प्रावधान केंद्र सरकार के कर्मचारियों से संबंधित मामलों में जांच के लिए अकेले सीबीआई या केंद्रीय सतर्कता आयोग या किसी अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसी को अधिकृत नहीं करता है। किसी अन्य सक्षम कानून के तहत अपराधों की जांच करने के लिए नियमित पुलिस अधिकारियों की शक्ति को विघटित करने वाले डीएसपीई अधिनियम या पीसी अधिनियम में किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में, यह नहीं कहा जा सकता है कि, राज्य पुलिस या किसी विशेष एजेंसी की शक्ति को, अपने राज्य में केंद्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा, कथित तौर पर किए गए अपराध को दर्ज करने और उसकी जांच करने का अधिकार छीन लिया गया है।  इन कारणों से, मेरा मानना ​​है कि वीएसीबी, मुख्य रूप से पी.सी. के तहत रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और कदाचार की जांच करने के लिए एक विशेष रूप से गठित निकाय है। अधिनियम को हमेशा राज्य के भीतर होने वाले भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों की जांच करने का अधिकार दिया गया है, चाहे वह केंद्र सरकार के कर्मचारी द्वारा किया गया हो या राज्य सरकार के कर्मचारी द्वारा।"

यानी, इन दोनो कानून में कहीं भी राज्य सरकार को, किसी केंद्र सरकार के अधिकारी/कर्मचारी के खिलाफ, करप्शन के अपराध में, कार्यवाही करने पर रोका नहीं गया है। हालांकि, व्यवहारतः ऐसा होता नहीं है। राज्य सरकार के सतर्कता या एंटी करप्शन विभाग को, यदि केंद्र सरकार के किसी कर्मचारी के खिलाफ रिश्वत मांगने की सूचना आती भी है तो, उसे सीबीआई को रेफर कर दिया जाता है, और फिर यह ट्रैप, सीबीआई करती थी। यह केंद्र और राज्यों के एक अलिखित समझदारी भरा तालमेल है, जो लगता है, अब टूट रहा है। क्योंकि, जबसे केंद्रीय एजेंसियों ने, राजनीतिक दृष्टिकोण से, गैर बीजेपी राज्यों में अपना  तंत्र फैलाना शुरू किया तो राज्यों ने भी इस अधिकार का उपयोग करना शुरू कर दिया। 

एक बात और, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत धारा 17 ए की मंजूरी की आवश्यकता के संबंध में: पीसी अधिनियम की धारा 17 ए के तहत प्रावधानों में प्रावधान है कि रंगे हाथों पकड़े गए रिश्वत के मामले में किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। यानी ट्रैप के मामले में किसी की अनुमति की जरूरत नहीं है। ऐसा इसलिए किया गया है, जिससे ट्रैप की गोपनीयता बनी रहे और जल्दी से जल्दी ट्रैप की कार्यवाही पूरी हो सके। 

धारा 17ए सरकारी कर्मचारियों को, उनके द्वारा राज कार्य में किए गए कार्यों के संबंध में, बिना सरकार की अनुमति के जांच करने से रोकती है। उक्त धारा के अनुसार, 

"कोई भी पुलिस अधिकारी इस अधिनियम के तहत किसी लोक सेवक द्वारा कथित तौर पर किए गए किसी अपराध की कोई जांच बिना पूर्व अनुमोदन के नहीं करेगा, जहां कथित अपराध ऐसे लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कार्यों के निर्वहन में की गई किसी सिफारिश या लिए गए निर्णय से संबंधित है। 

(ए) ऐसे व्यक्ति के मामले में जो उस सरकार के या संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) के मामलों के संबंध में उस समय कार्यरत था या कार्यरत है जब अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था;

(बी) ऐसे व्यक्ति के मामले में, जो किसी राज्य के मामलों के संबंध में, उस सरकार में उस समय कार्यरत था या कार्यरत है, जब अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था;

(सी) किसी अन्य व्यक्ति के मामले में, उस समय जब, अपराध किए जाने का आरोप लगाया गया था।

लेकिन, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई भी अनुचित लाभ (रिश्वत) स्वीकार करने या स्वीकार करने का प्रयास करने के आरोप में किसी व्यक्ति की मौके पर ही गिरफ्तारी से जुड़े मामलों के लिए ऐसी कोई मंजूरी आवश्यक नहीं होगी। 

इस प्रकार रिश्वत मांगने वाला व्यक्ति यदि केंद्र सरकार का अधिकारी हो तब भी राज्य की एंटी करप्शन एजेंसी को, उसे सूचना पर ट्रैप करने का अधिकार है। 

पिछले कुछ सालों से ईडी, सीबीआई, आयकर के गंभीर दुरुपयोग की शिकायतें मिलने लगी हैं। चाहे ऑपरेशन लोटस जैसे गैर लोकतांत्रिक मिशन के अंतर्गत, राज्यों की चुनी हुई सरकारों को तोड़ना या अस्थिर करना हो, या चाहे अडानी समूह को, कोई नई कंपनी या हवाई अड्डे दिलवाना हो, इन एजेंसियों का दुरुपयोग निर्लज्जता पूर्वक किया गया। राज्यो को मंत्रियों, यहां तक कि मुख्य मंत्रियों को भी ईडी के छापों से अर्दब में लेने की कोशिश की गई और अब भी की जा रही है। ईडी इस समय देश की सबसे अधिक विवादित जांच एजेंसी है और अब, जब राज्य सरकारों को, ईडी के अफसरों के खिलाफ रिश्वत मांगने डराने धमकाने की शिकायत मिली तो उन्होंने भी एक नया मोर्चा खोल दिया। इससे केंद्र और राज्य सरकार की जांच और प्रवर्तन एजेंसियों के बीच जो तनाव और शत्रुता फैलेगी, वह, एक आदर्श गवर्नेंस के लिए, बेहद नुकसानदेह होगी। 

- विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Wednesday, 29 November 2023

सीबीआइ जज लोया की मौत पर, नौ साल बाद भी, पड़ा है रहस्य का पर्दा / विजय शंकर सिंह

प्रसिद्ध पत्रकार, निरंजन टाकले Niranjan Takle ने, सीबीआई जज, ब्रजमोहन लोया की संदिग्ध मौत पर, एक  बेहद इन्वेस्टिगेटिव किताब लिखी है, Who Killed Judge Loya. अपराध से जुड़े साहित्य और पुलिस तथा अपराध की जांच से जुड़े लोगों को यह किताब पढ़नी चाहिए। आज जज बीएम लोया की मृत्यु हुए 9 साल हो गए। यह अकेली एक महत्वपूर्ण संदिग्ध मौत है, जिसकी जांच न हो, इसलिए, महाराष्ट्र सरकार, ने देश के सबसे महंगे वकील किए और सुप्रीम कोर्ट तक यह मुकदमा लड़ा। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने, बिना किसी जांच के ही, इस संदिग्ध मौत को, सामान्य मौत मान लिया और मुकदमे को दाखिल दफ्तर कर दिया गया। तब निरंजन टाकले की यह किताब आई और इस किताब में संदेह के जो विंदु दिए गए हैं, उससे साफ पता चलता है मौत सामान्य नहीं थी बल्कि कहीं न कहीं, कुछ ऐसी साजिश थी जो छुपाई जा रही थी। हत्या का अपराध काल बाधित नहीं होता है। जब भी इसकी तफ्तीश होती है तो, यह परत दर परत खुलने लगता है।

अब एक नज़र, इस मृत्यु जो कुछ भी संदेह के विंदु उठे हैं, उनका एक संक्षिप्त विवरण पढ़ें।

सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु पर कारवां मैगजीन ( Caravan ) ने बहुत विस्तार से लिखा है और उन सब कारणों और परिस्थितियों पर चर्चा की है जिससे जज लोया की हत्या या उनकी मृत्यु की संदिग्धता के संकेत मिलते हैं। संभवतः यह देश का पहला ऐसा मामला है जिसकी जांच न हो सके इसलिए सुप्रीम कोर्ट तक राज्य की फडणवीस सरकार अड़ी रही, और सुप्रीम कोर्ट ने भी, बिना किसी पुलिस जांच के ही, यह कह दिया कि मृत्यु का कारण संदिग्ध नहीं है। न एफआईआर, न तफतीश, न पुलिस द्वारा मौका मुआयना, न फोरेंसिक जांच, न पूछताछ, न चार्जशीट और न फाइनल रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया। अदालत का, जांच और विवेचना के कानूनी मार्ग से अलग हट कर  सीधे इस निष्कर्ष पर कि, कोई अपराध नहीं हुआ ' पहुंचना हैरान करता है।

महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने हर संभव कोशिश की, कि जज लोया के मृत्यु की जांच न हो। सरकार का किसी अपराध के मामले में जांच न होने देने के प्रयास से ही सरकार की उस मामले में रुचि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मृतक एक जज है, वह अचानक एक गेस्ट हाउस में बीमार पड़ता है और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है जहां उसकी मृत्यु हो जाती है। वह गेस्ट हाऊस में अकेले भी नहीं है। उसके साथ चार अन्य जज भी है। यह एक सामान्य और दुर्भाग्यपूर्ण हृदयाघात का मामला भी हो सकता है और कुछ इसे संदिग्ध भी कह सकते हैं। जब तक यह जांच न हो जाय कि, यह एक सामान्य हृदयाघात था, या यह मृत्यु किसी अपराध का परिणाम है, तब तक बिना जांच के कोई भी अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच सकती है कि कोई अपराध ही नहीं हुआ है और मृत्यु स्वभाविक है ।

देश के आपराधिक न्याय तँत्र में केवल न्यायपालिका ही नहीं आती है, बल्कि पुलिस भी इसका एक महत्वपूर्ण अंग है। कानून में किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच करने के लिये सीआरपीसी के अंतर्गत पुलिस को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं। उसे किसी से भी पूछने की ज़रूरत नहीं है। तलाशी, जब्ती, और गिरफ्तारी, ( सर्च सीजर, और ऐरेस्ट ) किसी भी आपराधिक मुक़दमे में जांच या तफतीश करने के लिये पुलिस की कानूनी शक्तियां  है। यह शक्तियां इसलिए पुलिस को दी  गयी हैं ताकि पुलिस अपराध की तह तक जाकर अपराध का रहस्य खोल सके और मुल्ज़िम को पकड़ सके, और उसे विश्वसनीय सुबूतों के साथ अदालत में प्रस्तुत कर सके । पुलिस की विवेचना में अदालतें दखल नहीं देती हैं। वे मुल्ज़िम की गिरफ्तारी पर जमानत आदि के मामले में भी सुनवायी करते समय, केस के मेरिट पर नहीं जाती हैं। उनका काम तभी शुरू होता है जब पुलिस आरोप पत्र या अंतिम आख्या अदालत में दाखिल कर दे।

अब थोड़ा जज लोया की मृत्यु और फिर उस बारे में अदालती कार्यवाही पर नज़र डालते हैं। दिसंबर, 2014 में जज ब्रजमोहन लोया की मृत्यु, नागपुर में हुई थी। तब उस मृत्यु को  संदिग्ध माना गया था। जज लोया  गुजरात के सोहराबुद्दीन शेख के मामले की सुनवाई कर रहे थे। 2005 में सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर की मौत, एक मुठभेड़ के दौरान हो गयी थी। इस मुठभेड़ के फर्जी होने का आरोप था।

इसी मामले में, एक गवाह तुलसीराम की भी मौत हो गई थी। इस हाई प्रोफाइल मामले से जुड़े ट्रायल को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में ट्रांसफर कर दिया था। आरोप था कि गुजरात मे हो सकता है, इस मामले में जज पर कोई दबाव हो। इस मामले की सुनवाई, पहले जज उत्पल कर रहे थे, बाद में उनका तबादला हो गया और जज लोया के पास इस मामले की सुनवाई आई थी। दिसंबर, 2014 में जस्टिस लोया की नागपुर में मृत्यु हो गई । तब भी जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध कहा गया था। जज लोया की मौत के बाद जिन जज साहब को इस मामले की सुनवाई मिली उन्होंने अमित शाह को लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया था । सरकार ने आरोपो से बरी करने के बावजूद हाईकोर्ट में अपील तक नहीं की। यही इस बात का प्रमाण है कि सरकार की भूमिका इस मामले में थोड़ी अलग है।

जज लोया की मृत्यु को संदिग्ध बताते हुए कुछ लोगों ने, घटना की निष्पक्ष जांच कराने की मांग सरकार से की और सरकार द्वारा कोई कार्यवाही न किये जाने पर अदालतों की भी शरण ली। सुप्रीम कोर्ट में भी इस संदर्भ में, पीआईएल दायर की गयीं। इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में, जांच का कोई आधार न पाते हुये, किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि " इस मामले के जरिए न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। '

हाल ही में कुछ समय पहले एक मैग्जीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि जस्टिस लोया की मौत साधारण नहीं थी बल्कि संदिग्ध थी। जिसके बाद से ही यह मामला दोबारा चर्चा में आया। लगातार इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी भी जारी रही। हालांकि, जज लोया के बेटे अनुज लोया ने प्रेस कांफ्रेंस कर इस मुद्दे को उठाने पर नाराजगी जताई थी। अनुज ने कहा था " कि उनके पिता की मौत प्राकृतिक थी, वह इस मसले को बढ़ना देने नहीं चाहते हैं। " अपराध के मामले में जांच हो यह अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है न कि अपराध से पीड़ित घर वालों या वारिस पर। अपराध की जांच हो, अभियुक्त को सज़ा मिले यह जिम्मेदारी राज्य की है। घर भर अगर लिख कर दे दे कि, वे किसी मामले में जांच या कार्यवाही नहीं चाहते हैं, तो भी उस मामले की, अगर कोई अपराध का होना पाया गया है तो, जांच होगी ही। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, कानूनी प्राविधान है, यह।

सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायमूर्तियों ने मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के संबंध में जब देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, तब इन न्यायमूर्तियों ने खुले तौर पर जज लोया के केस की सुनवाई को लेकर अपनी आपत्ति उठाई थी। इन न्यायमूर्तियों की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में, यह भी एक शिकायत थी  कि " मुख्य न्यायाधीश सभी अहम मुकदमें खुद ही सुन लेते हैं यानी मास्टर ऑफ रोस्टर होने का फायदा उठाते हैं। "

सीबीआई जज बीएम लोया की मौत के मामले में स्वतंत्र जांच की जाए या नहीं, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी की जांच वाली मांग की याचिका को ठुकरा दिया. साथ ही याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एसआईटी जांच की मांग वाली याचिका में कोई दम नहीं है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की बेंच ने यह मामला सुना था। इस याचिका में, कोर्ट को तय करना था कि लोया की मौत की जांच एसआइटी से कराई जाए या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "जजों के बयान पर हम संदेह नहीं कर सकते।" अदालत ने इस मामले को राजनीतिक लड़ाई का मैदान बनाने पर भी आपत्ति की। कोर्ट ने माना है कि "जज लोया की मौत प्राकृतिक है।" कोर्ट ने यह भी कहा कि "जनहित याचिका का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।"

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में जो कहा उसे संक्षेप में आप यहां पढ़ सकते हैं,
● जज लोया की मौत प्राकृतिक थी.
● सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग की आलोचना की।
● सुप्रीम कोर्ट ने कहा, पीआईएल का दुरुपयोग चिंता का विषय है।
● याचिकाकर्ता का उद्देश्य जजों को बदनाम करना है।
● यह न्यायपालिका पर सीधा हमला है।
● राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताओं को लोकतंत्र के सदन में ही सुलझाना होगा।
● पीआईएल, शरारतपूर्ण उद्देश्य से दाखिल की गई, यह आपराधिक अवमानना है।
● हम उन न्यायिक अधिकारियों के बयानों पर संदेह नहीं कर सकते, जो जज लोया के साथ थे।
● ये याचिका आपराधिक अवमानना के समान है और  याचिका सैंकेंडलस है, लेकिन हम कोई कार्रवाई नहीं कर रहे।
● याचिकाकर्ताओं ने याचिका के जरिए जजों की छवि खराब करने का प्रयास किया।
● यह सीधे सीधे न्यायपालिका पर हमला.
● जनहित याचिकाएं जरूरी लेकिन इसका दुरुपयोग चिंताजनक है।
● कोर्ट कानून के शासन के सरंक्षण के लिए है।
● जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल एजेंडा वाले लोग कर रहे हैं।
● याचिका के पीछे असली चेहरा कौन है पता नहीं चलता।
● तुच्छ और मोटिवेटिड जनहित याचिकाओं से कोर्ट का वक्त खराब होता है।
● हमारे पास लोगों की निजी स्वतंत्रता से जुड़े बहुत केस लंबित हैं.

जबकि इसी मामले की शुरुआती सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
" यह मामला गंभीर है और एक जज की मौत हुई है। हम मामले को गंभीरता से देख रहे हैं और तथ्यों को समझ रहे हैं। अगर इस दौरान अगर कोई संदिग्ध तथ्य आया तो कोर्ट इस मामले की जांच के आदेश देगा। सुप्रीम कोर्ट के लिए यह बाध्यकारी है। हम इस मामले में लोकस पर नहीं जा रहे हैं। चीफ जस्टिस ने दोहराया कि पहले ही कह चुके हैं कि मामले को गंभीरता से ले रहे हैं।"

सीबीआई जज बीएच लोया की मौत की स्वतंत्र जांच को लेकर दाखिल याचिका पर महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार ने जांच का पुरजोर विरोध किया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि
" इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को जजों को सरंक्षण देना चाहिए। ये कोई आम पर्यावरण का मामला नहीं है जिसकी जांच के आदेश या नोटिस जारी किया गया हो. ये हत्या का मामला है और क्या इस मामले में चार जजों से संदिग्ध की तरह पूछताछ की जाएगी। ऐसे में वो लोग क्या सोचेंगे जिनके मामलों का फैसला इन जजों ने किया है. सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालतों के जजों को सरंक्षण देना चाहिए।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश मुकुल रोहतगी ने कहा कि
" ये याचिका न्यायपालिका को स्कैंडलाइज करने के लिए की गई है।  ये राजनीतिक फायदा उठाने की एक कोशिश है। सिर्फ इसलिए कि इस मामले में सत्तारूढ पार्टी के एक बड़े नेता का नाम आ रहे हैं, यह सब आरोप लगाए जा रहे हैं, प्रेस कांफ्रेस की जा रही है। अमित शाह के आपराधिक मामले में आरोपमुक्त करने को इस मौत से लिंक किया जा रहा है। उनकी मौत के पीछे कोई रहस्य नहीं है.  इसकी आगे जांच की कोई जरूरत नहीं है। लोया की मौत 30 नवंबर 2014 की रात को हुई थी और तीन साल तक किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया.। यह सारे सवाल कारवां की नवंबर 2017 की खबर के बाद उठाए गए । जबकि याचिकाकर्ताओं ने इसके तथ्यों की सत्यता की जांच नहीं की।  29 नवंबर से ही लोया के साथ मौजूद चार जजों ने अपने बयान दिए हैं और वो उनकी मौत के वक्त भी साथ थे. उन्होंने शव को एंबुलेंस के जरिए लातूर भेजा था।  पुलिस रिपोर्ट में जिन चार जजों के नाम हैं उनके बयान पर भरोसा नहीं करने की कोई वजह नहीं है। इनके बयान पर भरोसा करना होगा। अगर कोर्ट इनके बयान पर विश्वास नहीं करती और जांच का आदेश देती है तो इन चारों जजों को  सह साजिशकर्ता बनाना पड़ेगा. जज की मौत दिल के दौरे से हुई और 4 जजों के बयानों पर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं है। याचिका को भारी जुर्माने के साथ खारिज किया जाए। "

सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े वकील हरीश साल्वे और मुकुल रोहतगी की ऊपर दी गयी दो दलीलें पढिये। उनका जोर इस विंदु पर अधिक था कि,
● जो चार जज अंतिम समय मे जज लोया के साथ थे, उन्होंने लोया की मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं देखी। अतः उनका कथन माना जाना चाहिये।
● अगर जांच या विवेचना के दौरान, उन जजों से पूछताछ होगी तो इससे जनता में उनके प्रति अविश्वास होगा विशेषकर उन लोगों में जिनके मुक़दमे उन जजों ने निपटाए है।
● इससे न्यायपालिका पर अविश्वास होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इन चार साथी जजों के कथन पर पूरी तरह से भरोसा किया और यह मान लिया कि मृत्यु के संदिग्ध माने जाने का कोई कारण नही है और जांच करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि याचिका राजनैतिक कारणो से दायर की गयी है। यह बाद निराधार नहीं है। वह याचिका राजनैतिक कारणों से भी चूंकि उसमे सरकार के एक बड़े नेता पर संदेह की सुई जा रही थी इसलिए दायर की गयी है, यह मान भी लिया जाय तो जिस तरह से महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार, येन केन प्रकारेण जज लोया के प्रकरण की जांच नहीं होने देना चाहती थी, क्या राजनीति से प्रेरित नहीं है ?

सुप्रीम कोर्ट का, केवल जजों के बयान पर भरोसा करके यह मान बैठना कि, चूंकि जब उन साथी जजों ने मृत्यु में कोई संदिग्धता नहीं बतायी है अतः जांच का कोई आधार नहीं है, एक खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। क्या यह फैसला एक नज़ीर के तौर पर नहीं देखा जाएगा कि जिस मामले में कोई जज गवाह हों तो उन मामलो की तफतीश करने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि गवाह जज ने जो कहा है उसे कैसे नकार दिया जाय !

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1861 में शायद ऐसा कोई प्राविधान नही है जिसमे गवाह की हैसियत से उपस्थित जज साहब की बात को विवेचना में सुबूत के रूप में, माना जाना अनिवार्य है। एक सम्मानजनक पद और कानून के जानकार होने के नाते, एक जज अगर किसी मामले में गवाह है तो उसके बयान की सत्यता का अंश ज़रूर अधिक होगा पर मात्र उसी के बयान पर, एक मृत्यु जिसकी संदिग्धता के संबंध में बार बार सवाल उठाया जा रहा हो, के केस का निपटारा नहीं किया जा सकता है। इस केस में गवाह अगर साथी जज थे तो मृतक भी एक जज थे और जिस मुक़दमे की वह सुनवाई कर रहे थे वह मुक़दमा भी अत्यंत महत्वपूर्ण था।

अपराध का नियंत्रण, अन्वेषण और अभियोजन यह राज्य का कार्य है। इसीलिए सारे मुक़दमे बनाम राज्य ही अदालतों में जाते हैं। सरकारी वकीलों की लंबी चौड़ी फौज जो मजिस्ट्रेट की अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक नियुक्त रहती है उसका काम ही है कि वह आपराधिक मामले में मुल्जिमों को सज़ा दिलाएं। और यह क्रम सुप्रीम कोर्ट तक अपील दर अपील बना रहे।  लेकिन जज लोया के मामले में राज्य की भूमिका अपराध अन्वेषण की ओर कम अपने राजनैतिक स्वार्थ की ओर अधिक थी। इस स्वार्थ का कारण भी छिपा नहीं है।  इस मामले में होना तो यह चाहिये था कि राज्य सरकार अपराध शाखा या किसी भी अन्य एजेंसी से स्वयं जांच करा लेती और जो भी निष्कर्ष निकलता उसे सक्षम न्यायालय में जैसे अन्य आपराधिक मामले जाते हैं, प्रस्तुत कर देती, और जो भी न्यायिक प्रक्रिया होती वह नियमानुसार पूरी की जाती। पर इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि, यह मामला दफन हो जाय। यह कोशिश ही यह सन्देह मज़बूत करती है कि जज लोया की मृत्यु में कुछ न कुछ, कहीं न कहीं असंदिग्धता है।

न्याय से वंचित करना भी न्याय और न्यायालय की अवमानना होती है। लोया और कलिखो पुल के मामले में ऐसा ही हुआ है। सरकार, इन तीनों मामलो में गहराई से जांच कराए और सत्य को सामने लाये। यह सारे तर्क, बहस और संदेह के विंदु अब भी अनुत्तरित है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Saturday, 25 November 2023

तेजस, एचएएल HAL और राफेल, कोई अपराध काल बाधित नहीं होता है, अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी / विजय शंकर सिंह

कल प्रधानमंत्री जी फाइटर जेट तेजस पर सवार थे। बहुत सी फोटो वायरल हुई। किसी फाइटर जेट पर सवार होने वाले वह पीएम घोषित हुए। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी एक बार मिग फाइटर जेट पर सवार हो चुकी है। ऐसे कृत्य सेना और जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए किए जाते हैं। 

तेजस नाम अटल बिहारी वाजपेई जी का दिया हुआ है। यह प्रोजेक्ट धरातल पर साल 2001 में शुरू हुआ था हालांकि इसकी योजना उसके पहले से चल रही थी। ऐसी दीर्घकालीन योजनाएं, सरकार निरपेक्ष होती हैं और अनवरत रूप से चलती रहती है, जब तक कि, कोई सरकार जानबूझकर उसे किसी विशेष कारणवश बाधित करने की कोशिश न करे।

एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि, सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में सरकार को क्लीन चिट दी है। लेकिन, क्लीन चिट जैसा शब्द कानून में कहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि, "सरकार के खरीद प्रक्रिया में कोई अनियमितता नहीं है।" यानी कागज का पेट भरा है। प्रोसीजर लागू किया गया है। कागज के अंदर झांक कर विवेचनात्मक रुचि और निगाह से झांक कर देखेंगे तो, घोटाले के गंभीर संकेत मिलेंगे। यह तभी उजागर होगा तब उसकी तह में जाया जाय। तह में जाकर तफ्तीश करने का हुनर सीबीआई का है और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी किसी तफ्तीश पर रोक नहीं लगाई है। 

याद कीजिए, तभी पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से मिलने गए थे और एफआईआर दर्ज कर जांच करने का अनुरोध किया था और उसी रात, आलोक वर्मा को सरकार ने उसी रात बदल दिया था। यह डर, घोटाले के अपराध के खुल जाने का था। 

घोटाले का आरोप अब भी है। और यह तब तक बना रहेगा जब तक कि, इसकी जांच न हो जाय। अपराध काल बाधित नहीं होता है। अब आप राफेल सौदे की क्रोनोलॉजी पढ़े...

राफेल सौदे में कुछ ऐसे विंदु हैं जो इस सौदे में घोटाले के आरोप की ओर शक की सूई ले जाते हैं। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और राफेल मामले में, सरकार या प्रधानमंत्री की भूमिका के बारे में कहे और लिखे गए अनेक लेखों और बयानों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण विंदु मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनसे घोटाले का शक उभरता है। संदेह के विंदु तब उपजते हैं, जब नियमों का पालन किए बगैर, मान्य और स्थापित कानून तथा परम्पराओ को दरकिनार कर के, कोई मनमाना निर्णय ले लिया जाता है और किसी को, या बहुत से लोगों को अनुचित लाभ पहुंचाया जाता है। यहां भी अनुचित लाभ पहुंचाने के कदाशय को ही, घोटाले के अपराध का मुख्य विंदु माना गया है। 

अब उन विन्दुओं की चर्चा की जा रही है,  जिनसे, इस सौदे में शक की गुंजाइश बन रही है। 
● बोफोर्स घोटाला, रक्षा सौदों में, अब तक का सबसे चर्चित घोटाला रहा है। हालांकि 1948 में ही रक्षा से जुड़ा जीप घोटाला सामने आ चुका था। पर बोफोर्स घोटाले के आरोप ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनो ही बदल दी। इस घोटाले के बाद ही सरकारें सतर्क हो गयीं और उसके बाद आने वाली सरकारों ने रक्षा सौदों के लिए एक बेहद पारदर्शी प्रक्रिया और नियम बनाये, जिसके अंतर्गत सेना, रक्षा मंत्रालय, संसदीय समिति और सरकार, सभी की सहमति से ही किसी प्रकार का कोई रक्षा सौदा सम्बंधित समझौता हो सकता है। सबकी स्पष्ट और उपयुक्त भागीदारी के साथ साथ पारदर्शिता को इन रक्षा सौदों के लिये अनिवार्य तत्व माना गया है। लेकिन मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने, जब राफेल के सम्बंध में समझौता किया तो उसने इन नियमों और प्रक्रिया का पालन नहीं किया। 

● रक्षा सौदों के प्रारंभिक नियमों और प्रक्रिया के अनुसार, किसी भी रक्षा खरीद का फैसला भारतीय सेनाओं की मांग के आधार पर शुरू होता है। राफेल खरीद के मामले की भी शुरुआत, वायुसेना द्वारा 126 विमान की आवश्यकता और उससे जुड़े, मांगपत्र से हुयी थी। यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने वायुसेना के इसी 126 विमानों की आवश्यकता के आधार पर, अपनी बातचीत शुरू की थी। लेकिन उसके बाद आने वाली एनडीए की नरेंद्र मोदी सरकार ने 126 विमानों की आवश्यकता को घटा कर, मात्र 36 विमानों का सौदा फाइनल किया। इस बदलाव पर यह आरोप लगता है, कि वायुसेना की जरूरतों को नजरअंदाज करके उसे मजबूत बनाने की जगह उसके मूल मांग 126 लड़ाकू विमानों की उपेक्षा की गयी। वायुसेना ने कभी नहीं कहा कि उसे 126 की जगह अब केवल 36 ही विमान चाहिए, जबकि सेना की मांग ही रक्षा सौदे का मुख्य आधार बनती है। सेना अपनी आवश्यकताओं को घटा बढ़ा सकती है। पर इस जोड़ घटाने का भी कोई न कोई तर्क और आधार होना चाहिए। वायुसेना ने 126 से अपनी ज़रूरतों को कैसे 36 तक सीमित कर दिया, इस पर न तो वायुसेना ने कभी कोई उत्तर दिया और न ही रक्षा मंत्रालय ने। 

● यूपीए सरकार ने, दसॉल्ट कम्पनी से वायुसेना के लिये 126 राफेल विमानों के साथ उनके तकनीकी हस्तांतरण के लिये, ट्रांसफर आफ टेक्नोलॉजी की शर्त भी रखी थी, जिसके तहत यह तकनीक यदि भारत को मिल जाती तो यह विमान भविष्य में स्वदेश में ही बनता, लेकिन, नरेन्द्र मोदी सरकार में जो सौदा हुआ है, उसमे,  ट्रान्सफर ऑफ टेक्नोलॉजी की शर्त ही हटा दी गई है। 

● सरकार या प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर सौदे में जो बदलाव किये उन्हे, कैटेगराइजेशन कमेटी के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजा गया। कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजीशन कॉउंसिल में, रक्षा मंत्री, वित्तमंत्री और तीनों सेनाओं के प्रमुख होते हैं। जो किसी भी प्रस्तावित प्रस्ताव परिवर्तन का परीक्षण कर के  उसे प्रधानमंत्री के पास भेजते हैं। लेकिन इस मामले में यह प्रक्रिया नही अपनाई गयी। बिना कैटेगराइजेशन कम डिफेंस एक्यूजेशन काउंसिल की सहमति के लिया गया यह फैसला स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है। 

● अचानक, इस सौदे में जो बदलाव हुआ उनसे यह आभास होता है कि, इस सौदे के बारे में अंतिम समय तक फ्रांस के राष्ट्रपति, भारत के रक्षा मंत्री और वायुसेना व भारतीय रक्षा समितियों को कुछ भी पता नहीं था. जबकि इन सबकी जानकारी में ही यह सब परिवर्तन होना चाहिए था। 

● समझौते के ठीक पहले मार्च, 2015 में डसाल्ट के सीईओ एलेक्ट्रैपियर कहते हैं कि हम हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के साथ मैन्युफैक्चरिंग का काम करने जा रहे हैं। एचएएल की बेंगलुरू इकाई में, यह सब बातें प्रेस के सामने आती हैं। जब पीएम मोदी इस समझौते के लिए फ्रांस जा रहे थे तो उसके पहले विदेश सचिव, एस जयशंकर जो अब विदेश मंत्री हैं, ने अपने बयान में कहा कि, 
"मोदी जी फ्रांस जा रहे हैं, वे वहां पर 126 राफेल विमान खरीद की वार्ता को आगे बढ़ाएंगे। " 
यानी तब तक इस सौदे में परिवर्तन की कोई भनक तक उन्हें नहीं थी। जिस दिन मोदी जी वहां पहुंचे उस दिन फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंड ने कहा कि, 126 राफेल की डील पर हमारी बात आगे बढ़ेगी। फिर उसी दिन अचानक 36 विमानों पर यह सौदा भारत और फ्रेंच कंपनी दसॉल्ट के बीच पूरी हो गयी। अचानक इस सौदे में अनिल अंबानी का प्रवेश हो गया और एलएएल, जिसके साथ यह करार लगभग तय हो गया था, उसे पीछे हटा दिया गया। इस तरह देश की सुरक्षा एजेंसियों से लेकर रक्षा और वित्त मंत्री तथा दूसरे पक्ष को भी इस सौदा परिवर्तन की भनक तक नहीं लगी। यही मुख्य आरोप है कि, यह सब, एक निजी कंपनी को अनुचित लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया। 

● देश की 78 साल पुरानी सार्वजनिक उपक्रम कम्पनी, एचएएल को हटाकर अनिल अंबानी की कंपनी को नए सौदे में, आफसेट कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया। आरोप है कि, अनिल अंबानी की यह कंपनी सौदे के मात्र दस दिन पहले बनाई गई। इस तरह एक नितांत नयी कंपनी को इतने महत्वपूर्ण सौदे में शामिल कर लिया गया, जिसका रक्षा क्षेत्र में कोई अनुभव ही नहीं है। 

● अनिल अंबानी की, रिलायंस इस सौदे में ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर शामिल हुई। इस डील में ऑफसेट ठेके की राशि है ₹ 30 हज़ार करोड़, जिसका एक बड़ा हिस्सा रिलायंस को मिलेगा। यह बात डसाल्ट और रिलायंस ने सार्वजनिक की, न कि भारत सरकार ने। सरकार ने यह तथ्य क्यों छुपाया ? अनिल अंबानी के प्रवेश के सवाल पर सरकार ने कहा कि अंबानी से पहले से बातचीत चल रही थी, लेकिन यह कंपनी तो, सौदे के मात्र दस दिन पहले ही बनी है, फिर बातचीत किससे चल रही थी ? 

● प्रधानमंत्री ने समझौते के बाद कहा था कि विमान ठीक उसी कॉन्फ़िगरेशन में आएंगे, जैसा पुराने समझौते के तहत आने वाले थे। लेकिन नये समझौते में ₹ 670 करोड़ का विमान ₹ 1600 करोड़ से ज़्यादा कीमत का हो गया। इस पर यह सवाल उठने लगे कि, विमानों कीमत क्यों तीनगुनी हो गयी, तो बाद में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने 'पे इंडिया स्फेसिफिक ऐड ऑन' की बात कहकर बढ़े दाम को जायज ठहराया। इस पर यह आरोप लगा कि, सरकार ने ऐसा करके जनता को गुमराह किया है। सरकार ने अब तक इसका कोई तार्किक जवाब नहीं दिया है। 

● राफेल के दाम बढ़ने घटने की बात पर सरकार ने जितनी बार बयान दिए, वे सब अलग अलग तरह के हैं जो स्थिति साफ करने के बजाय, उसे और उलझा देते हैं। कहा गया कि इंडिया स्पेसिफिक ऐड ऑन के तहत विमानों में 500 करोड़ के हेलमेट लगाने की बात जोड़ी गई इसलिए दाम बढ़ गए। फिर सवाल उठता है कि इसकी अनुमति किससे ली गई ?

● सबसे आपत्तिजनक और हैरान करने वाला कदम यह है कि, इस समझौते से बैंक गारंटी, संप्रभुता गारंटी और एंटी करप्शन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है। इंटीग्रिटी पैक्ट पर सहमति और हस्ताक्षर न करके देश की संप्रभुता से भी समझौता किया गया। राफेल डील से एंटी करप्शन प्रावधानों को हटा देने से भ्रष्टाचार के प्रति संदेह स्वतः उपजता है। 

● द हिंदू अखबार में छपी खबरों के अनुसार, नरेन्द्र मोदी सरकार में 36 रफालों की कीमत, पहले की तय कीमतों से, 41 प्रतिशत अधिक है। इसके अलावा बैंक गारंटी की शर्त हटा देने की वजह से राफेल की कीमतें और बढ़ गईं।  रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों से यह तथ्य भी सामने आए कि रक्षा मंत्रालय के विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने अपने स्तर पर बातचीत करके इस सौदे को अंतिम रूप दिया जो, सभी नियमों और तयशुदा प्रोसीजर सिस्टम का उल्लंघन है। 

● यह भी एक तथ्य सामने आया है कि इंडियन निगोशिएटिंग टीम ( ऐसे सौदों में समझौता करने वाली समिति जिसमें, सेना, रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसर रहते हैं, को इंडियन निगोशिएटिंग टीम, आईएनटी कहते हैं। यह एक औपचारिक वैधानिक प्रक्रिया का अंग होता है ) ने, अपनी टिप्पणी में कहा था कि यूपीए सरकार के समय की शर्तें बेहतर थीं, लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया। तत्कालीन रक्षा सचिव ने भी इस सौदे में पीएमओ द्वारा सीधे हस्तक्षेप किये जाने पर आपत्ति जताई थी। इसके अतिरिक्त, प्राइस निगोसिएशन कमेटी ( यह भी एक औपचारिक वैधानिक प्रोसीजर के अंतर्गत दाम पर बारगेनिंग और उसे तय करने के लिये गठित कमेटी होती है ) के तीन विशेषज्ञों ने भी अपना तीखा विरोध जताया था कि सरकार ने बेंचमार्क प्राइस जो कि पांच बिलियन यूरो था, उसे बढ़ाकर आठ बिलियन यूरो क्यों कर दिया ? 

● इन आपत्तियों में यह भी कहा गया था कि, नये सौदे में पिछले सौदे के मुकाबले विमानों की कीमत अधिक देनी पड़ रही है, इसलिए इसका टेंडर फिर से होना चाहिए। बिना टेंडर के गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट रूट में तभी यह समझौता हो सकता था, अगर यह उसी दाम में या उससे कम दामों में होता।  लेकिन सौदे में कीमतों में अंतर आ रहा है और वह कीमतें बढ़ रही हैं, अतः इस मूल्य बदलाव के बाद, इस सौदे के संबंध में, दोबारा टेंडर की प्रक्रिया की जानी चाहिए थी, जो नहीं अपनाई गई है। 

● जिस मामले में प्रधानमंत्री को अपने स्तर पर फैसला लेने का अधिकार ही नहीं था, उस संदर्भ में, उन्होंने अपने स्तर से ही फैसला ले लिया जिसके कारण, भारत सरकार की अनुभवी कंपनी एचएएल को नुकसान पहुंचा और निजी कंपनी को जानबूझकर लाभ पहुंचाया गया। 

● एक आरोप यह भी है कि अनिल अंबानी रक्षा से जुड़े किसी भी तरह का निर्माण नहीं कर सकते, इसलिए उनकी मौजूदगी एक तरह से कमीशन एजेंट के तौर पर ही देखी जाएगी।  एचएएल को यह दायित्व, मेक इन इंडिया के अंतर्गत दिया जा सकता था। प्रशांत भूषण का मानना है कि कमीशन एजेंट के रूप में अनिल अंबानी की मौजूदगी की वजह से भी राफेल के दाम बढ़ाने पड़े। 

कीमत का विवरण दाखिल किया। इनमे यह भी उल्लेख था कि, राफेल सौदे को किस प्रकार से, अंतिम रूप दिया गया। 
● 14 नवंबर - राफेल सौदे में अदालत की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा। 
● दिसंबर 14 - सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, सरकार की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है और जेट सौदे में कथित अनियमितताओं के लिए सीबीआई को प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया।
● जनवरी 2, 2019 - यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने 14 दिसंबर के फैसले की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की। 
● फरवरी 26 - सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत हुआ। 
● मार्च 13 - सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि समीक्षा याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर किए गए दस्तावेज राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हैं। 
● अप्रैल 10 - सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं द्वारा समीक्षा के लिए दस्तावेजों पर विशेषाधिकार का दावा करने वाली केंद्र की आपत्ति को खारिज किया। 
● मई 10 - सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखा। 
● नवंबर 14 - सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे में अपने फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया। 

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में राफेल सौदे के मामले में जांच की मांग को लेकर, याचिका दायर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, प्रशांत भूषण, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और प्रसिद्ध पत्रकार अरुण सौरी का कहना हैं कि, राफेल विमान सौदे में केंद्र सरकार ने जानबूझकर अनिल अंबानी को लाभ पहुंचाने के लिये, दसॉल्ट कम्पनी पर दबाव डाला। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Tuesday, 21 November 2023

बाबा रामदेव को चेतावनी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -भ्रामक विज्ञापन फैलाना बंद करें, नहीं तो अदालत एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगा सकती है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने, आज मंगलवार, 21 नवंबर को, आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ भ्रामक दावे और विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए, बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि आयुर्वेद को फटकार लगाई। पतंजलि के भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने बाबा रामदेव द्वारा स्थापित इस कंपनी को कड़ी चेतावनी जारी की।

शीर्ष अदालत जो, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया|  डब्ल्यू.पी.(सी) द्वारा दायर याचिका की सुनवाई कर रही थी, ने कहा, “पतंजलि आयुर्वेद को, ऐसे सभी झूठे और भ्रामक विज्ञापनों को तुरंत बंद करना होगा।  न्यायालय, इस आदेश के, किसी भी उल्लंघन को बहुत गंभीरता से लेगा, और न्यायालय, एक करोड़ रुपये तक, जुर्माना लगाने पर भी विचार करेगा।" 
जस्टिस अमानुल्लाह ने, मौखिक रूप से कहा, "प्रत्येक उत्पाद पर 1 करोड़ रुपये,का जुर्माना, हर उस झूठे दावे, पर किया जाएगा, जिसके बारे में झूठा दावा किया जाता है कि यह एक विशेष बीमारी को "ठीक" कर सकता है।"

इसके बाद कोर्ट ने निर्देश दिया कि, "पतंजलि आयुर्वेद भविष्य में ऐसा कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं करेगा और यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रेस में उसके द्वारा, इस प्रकार के, आकस्मिक बयान न दिए जाएं।"

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि, "वे इस मुद्दे को "एलोपैथी बनाम आयुर्वेद" की बहस नहीं बनाना चाहते, बल्कि भ्रामक चिकित्सा विज्ञापनों की समस्या का वास्तविक समाधान ढूंढना चाहते हैं।"
यह कहते हुए कि, "हम इस मुद्दे की गंभीरता से सुनवाई कर रहे है," पीठ ने भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि, "केंद्र सरकार को समस्या से निपटने के लिए एक व्यवहार्य समाधान ढूंढना होगा।  सरकार से विचार-विमर्श के बाद उपयुक्त सिफारिशें पेश करने को कहा गया।"  
इस मामले पर अगली सुनवाई 5 फरवरी 2024 को होगी।

पिछले साल आईएमए की याचिका पर नोटिस जारी करते हुए कोर्ट ने एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ बयान देने के लिए बाबा रामदेव की खिंचाई की थी.

भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने, जिनके समय में आईएमए की याचिका पर सुनवाई शुरू हुई थी, ने तब कहा था, "बाबा रामदेव को क्या हुआ? वह अपनी प्रणाली को लोकप्रिय बना सकते हैं, लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना क्यों करनी चाहिए? हम सभी उनका सम्मान करते हैं। उन्होंने योग को लोकप्रिय बनाया लेकिन उन्हें अन्य प्रणालियों की आलोचना नहीं करनी चाहिए। क्या गारंटी है कि उनका सिस्टम काम करेगा? वह नहीं कर सकते।"  

आईएमए द्वारा एलोपैथी और चिकित्सा की आधुनिक प्रणाली के बारे में "गलत सूचना के निरंतर, व्यवस्थित और बेरोकटोक प्रसार" पर चिंता जताते हुए यह रिट याचिका दायर की गई थी।  याचिका में दावा किया गया है कि, पतंजलि के भ्रामक विज्ञापन एलोपैथी की निंदा करते हैं और कुछ बीमारियों के इलाज के बारे में झूठे दावे करते हैं। याचिका में 10 जुलाई, 2022 को प्रकाशित आधे पेज के विज्ञापन का हवाला दिया गया, जिसका शीर्षक था "एलोपैथी द्वारा फैलाई गई गलतफहमियां: फार्मा और मेडिकल उद्योग द्वारा फैलाई गई गलतफहमियों से खुद को और देश को बचाएं।"

आईएमए का तर्क है कि, "जबकि प्रत्येक वाणिज्यिक इकाई को अपने उत्पादों को बढ़ावा देने का अधिकार है, पतंजलि द्वारा किए गए असत्यापित दावे ड्रग्स और अन्य जादुई उपचार अधिनियम, 1954 और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 जैसे कानूनों का सीधा उल्लंघन हैं।"
इसके अतिरिक्त, याचिका पिछले उदाहरणों पर प्रकाश डालती है जहां पतंजलि से जुड़े, रामदेव ने विवादास्पद बयान दिए थे, जिसमें एलोपैथी को "बेवकूफ और दिवालिया विज्ञान" कहना और कोविड ​​​​की दूसरी लहर के दौरान एलोपैथिक दवाओं के कारण लोगों की मौत के बारे में निराधार दावे करना शामिल था।

IMA ने पतंजलि पर COVID-19 टीकों के बारे में झूठी अफवाहें फैलाने और टीके को लेकर झिझक पैदा करने का आरोप लगाया है।  याचिका में स्वामी रामदेव द्वारा दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन सिलेंडर की तलाश कर रहे नागरिकों का कथित उपहास और उपहास का भी हवाला दिया गया है।
याचिका में इस बात पर जोर दिया गया है कि आयुष मंत्रालय द्वारा आयुष दवाओं के भ्रामक विज्ञापनों की निगरानी के लिए भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर करने के बावजूद, पतंजलि ने कानून के प्रति कथित उपेक्षा जारी रखी है और जनादेश का उल्लंघन किया है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Monday, 20 November 2023

कोई राज्यपाल, कितनी अवधि तक, विधानसभा द्वारा पारित किसी बिल को, अपनी सहमति देने के लिए लंबित रख सकते हैं? - सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर, को जनवरी 2020 से राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत बिलों को रोक रखने के प्रश्न पर, तमिलनाडु के राज्यपाल के बारे में यह सवाल अदालत में केंद्र सरकार से पूछा है कि, "कोई राज्यपाल, कितनी अवधि तक, विधानसभा द्वारा पारित किसी बिल को, अपनी सहमति देने के लिए लंबित रख सकते हैं?"

सुप्रीम कोर्ट में, सीजेआई, डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने, इस संदर्भ में एक याचिका की सुनवाई करते हुए कहा, कि, "राज्यपाल ने 10 नवंबर को तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर रिट याचिका पर नोटिस जारी करने के बाद ही दस विधेयकों पर सहमति "रोकने का फैसला किया।  गौरतलब है कि, राज्यपाल की निष्क्रियता "गंभीर चिंता का विषय" है।"

पीठ की तरफ से सीजेआई ने अटॉर्नी जनरल से यह सवाल पूछा, "मिस्टर अटॉर्नी, गवर्नर का कहना है कि उन्होंने 13 नवंबर को इन बिलों का निपटारा कर दिया है। हमारी चिंता यह है कि हमारा आदेश 10 नवंबर को पारित किया गया था। ये बिल जनवरी 2020 से लंबित हैं। इसका मतलब है कि, गवर्नर ने कोर्ट की नोटिस और आदेश के बाद निर्णय लिया । राज्यपाल तीन साल तक क्या कर रहे थे? राज्यपाल को, पीड़ित पक्ष द्वारा, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने तक का, इंतजार क्यों करना चाहिए?"

इस सवाल पर एजी ने जवाब दिया कि, "विवाद केवल उन विधेयकों से संबंधित है जो, राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित राज्यपाल की शक्तियों को छीनने के प्रयास से संबंधित हैं और चूंकि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, इसलिए, इसपर कुछ पुनर्विचार की आवश्यकता है।"

तब पीठ ने कहा कि, "लंबित बिलों में सबसे पुराना बिल जनवरी 2020 में राज्यपाल को भेजा गया था।" 
अपने आदेश में, पीठ ने उन तारीखों को दर्ज किया है, जिन पर दस बिल राज्यपाल के कार्यालय को भेजे गए थे, जो 2020 से 2023 तक लंबित हैं। एजी ने कहा कि, "वर्तमान राज्यपाल आरएन रवि ने नवंबर 2021 में ही पदभार संभाला है।"

पीठ ने कहा कि, "चिंता किसी विशेष राज्यपाल के आचरण से संबंधित नहीं है, बल्कि सामान्य रूप से राज्यपाल के कार्यालय और उनके क्रियाकलाप से संबंधित है।"
फिर पीठ ने आदेश में कहा, "मुद्दा यह नहीं है कि क्या किसी विशेष राज्यपाल ने देरी की, बल्कि यह है कि क्या सामान्य तौर पर संवैधानिक कार्यों को करने में देरी हुई है।"

यह सूचित किए जाने के बाद कि, विधानसभा ने पिछले सप्ताह आयोजित एक विशेष सत्र में, वापस किए गए, दस विधेयकों को फिर से, पारित कर लिया है, पीठ ने राज्यपाल के अगले फैसले की प्रतीक्षा करने के लिए सुनवाई 1 दिसंबर तक के लिए स्थगित कर दी।

तमिलनाडु राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने पीठ को सूचित किया कि, "अदालत द्वारा याचिका पर नोटिस जारी करने के बाद, राज्यपाल ने कहा कि, उन्होंने कुछ विधेयकों पर "अनुमति रोक दी है।" 
इसके बाद, विधानसभा ने एक विशेष सत्र बुलाया और उन्हीं विधेयकों को फिर से पारित कर दिया गया।

राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता, मुकुल रोहतगी ने कहा कि, "राज्यपाल बिना कोई कारण बताए सहमति को "रोक" नहीं सकते हैं और कानून के अनुसार राज्यपाल को पुनर्विचार के लिए एक नोट, सरकार को देना होगा।  हालाँकि, राज्यपाल ने केवल एक पंक्ति का पत्र जारी किया है कि "मैं सहमति रोकता हूँ।" 

पर सहमति क्यों 'रोकता हूं', इस मुद्दे पर राज्यपाल खामोश हैं। उन्हे अपनी असहमति के विंदु सहित, सरकार को सूचित करना चाहिए था, कि वे किन कारणों से सहमति रोक रहे हैं, जो कि, इस एक पंक्ति में, उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है। सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति इसी संक्षिप्त पत्राचार, मैं सहमति को रोकता हूं, को लेकर है।

० क्या राज्यपाल किसी विधेयक को सदन में भेजे बिना उस पर सहमति रोक सकते हैं?

सुनवाई के दौरान, पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 200 के अनुसार विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों पर भी चर्चा की। 
राज्यपाल की शक्तियों के बारे में, संविधान के अनुसार, अनुच्छेद 200 के मूल भाग के तहत राज्यपाल के पास कार्रवाई के तीन तरीके बताए गए हैं - 
० वह अनुमति दे सकता है, 
० वह अनुमति रोक सकता है या 
० वह इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए वापस सरकार को भेज सकता है। 

सीजेआई चंद्रचूड़ ने पूछा, कौन सा प्रावधान कब लागू होता है, जब वह सहमति रोकता है? क्या उसे इसे अनिवार्य रूप से विधायिका को भेजना होगा? परंतु, यह एक सक्षम वाक्यांश "हो सकता है" "shall" का उपयोग करता है। प्रावधान में कहा गया है कि, राज्यपाल एक संदेश के साथ विधायिका को, सहमति के लिए भेजा गया बिल,  दोबारा वापस लौटा सकते हैं। हमारा सवाल यह है कि क्या राज्यपाल यह कह सकते हैं कि, वह सहमति रोक रहे हैं?"

इस पर याचिकाकर्ताओं की ओर से अदालत में सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि, "राज्यपाल को ''जितनी जल्दी हो सके'' विधेयक वापस करना होगा, अन्यथा यह संवैधानिक प्रावधान का मजाक होगा। क्या योर लॉर्डशॉप, राज्यपाल के लिए 'पॉकेट वीटो' जैसी कोई परिकल्पना (संविधान में) है? क्या उनके पास पॉकेट वीटो है?"  
तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने कहा कि, "यदि राज्यपाल को अनिश्चित काल तक बिलों को रोकने की अनुमति दे दी गई, तो शासन पंगु हो जाएगा और संविधान ने राज्यपाल के लिए ऐसी शक्ति की कभी परिकल्पना नहीं की है।"

सीजेआई ने तब आगे पूछा कि, "क्या सदन द्वारा विधेयक दोबारा पारित होने के बाद राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।"  
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी और मुकुल रोहतगी ने सर्वसम्मति से जवाब दिया कि, "विधेयक दोबारा पारित होने के बाद राज्यपाल के लिए ऐसा रास्ता खुला नहीं है।"

बिलों के संबंध में, विवरण देते हुए, अपने आदेश में, पीठ ने लिखा है कि, "राज्यपाल के कार्यालय को कुल मिलाकर 181 विधेयक प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 152 विधेयकों पर सहमति दी गई है।  पांच बिल तो सरकार ने खुद ही वापस ले लिये। नौ विधेयकों को राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित रखा गया है और दस विधेयकों पर सहमति रोक दी गई है।  अक्टूबर 2023 में प्राप्त पांच बिल विचाराधीन हैं।"

उल्लेखनीय है कि पंजाब राज्य द्वारा दायर इसी तरह की एक याचिका से संबंधित पिछली सुनवाई में, अदालत ने कहा था कि, "राज्य सरकार द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने के बाद ही राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर कार्रवाई करने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए।"
केरल राज्य की एक अन्य याचिका में केरल के राज्यपाल के खिलाफ इसी तरह की राहत की मांग की गई है।  इससे पहले, ऐसी ही स्थिति तेलंगाना राज्य में हुई थी, जहां सरकार द्वारा रिट याचिका दायर करने के बाद ही राज्यपाल ने लंबित विधेयकों पर कार्रवाई की थी।

इन सब याचिकाओं और विवरण से यह स्पष्ट होता है कि, राज्यपाल, उन सरकारों को, जो गैर बीजेपी राज्यो में है के वैधानिक कार्यों में जानबूझकर उनके विधानमंडल द्वारा पारित बिलों को, किसी न किसी कारण से लंबित रखते है। चूंकि संविधान में किसी समय सीमा का उल्लेख नहीं है, इसलिए, राज्यपाल पर ऐसा कोई संवैधानिक दबाव या बाध्यता भी नहीं है कि, वे किसी तयशुदा टाइम फ्रेम में, इन बिलों पर अपनी सहमति या असहमति दे ही दें। इस तरह की प्रवृत्ति से, चुनी हुई सरकार हतोत्साहित भी होती है। सुनवाई अभी जारी है और अगली तारीख दिसंबर 1, है।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh