स्वामी सहजानन्द सरस्वती (22 फरवरी 1889 - 26 जून 1950) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका जन्म, ग़ाज़ीपुर जिले के दुल्लहपुर गाँव में हुआ था। वे शंकराचार्य परंपरा के दंडी स्वामी थे। उन्हे भारत में किसान आन्दोलन का जनक कहा जाता है। वे बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे। उन्होने 'हुंकार' नामक एक पत्र भी प्रकाशित किया।
बिहार में किसान सभा आंदोलन, सहजानंद के नेतृत्व में शुरू हुआ जब, जिन्होंने 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा (बीपीकेएस) का गठन किया था, ताकि, जमींदारी हमलों के खिलाफ किसानो को सागठित किया जा सके। अप्रैल 1936 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ सत्र में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) का गठन हुआ , जिसमें स्वामी जी, इसके पहले अध्यक्ष हुए। अन्य प्रमुख नेताओं में, एनजी रंगा और ईएमएस नंबूदरीपाद थे।
बाद में स्वामी जी ने, कांग्रेस को त्याग दिया और उन्होंने नेताजी सुभाष बोस, के नेतृत्व में गठित एक नई पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गए। किसान आंदोलन के दौरान, स्वामी जी के कॉमरेड, ईएमएस नंबूदरीपाद भी कांग्रेस से बाहर आ गए और वे बाद में, कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। साल 1936 - 37 में कांग्रेस से एक और समाजवादी धड़ा अलग हुआ था, जिसमे, आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन और डॉ राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता शामिल थे। समाजवादी विचारधारा और इस धड़े के, यह सब नेता, भारत छोड़ो आंदोलन के समय, अग्रिम पंक्ति में शामिल थे, जब कांग्रेस के सभी बड़े नेता, 9 अगस्त 1942 को, जेल में डाल दिए गए थे और नेताजी सुभाष बाबू, देश से बाहर निकल कर आजाद हिंद फौज की योजना बना रहे थे।
एक किसान घोषणापत्र, अगस्त 1936 में जारी किया गया था, जिसमें, जमींदारी प्रथा को समाप्त करने और ग्रामीण ऋणों को रद्द करने की मांग की गई थी। अक्टूबर 1937 में, AIKS ने लाल झंडे को अपने बैनर के रूप में अपनाया। स्वामी जी, ने 1937-1938 में बिहार में बकाश्त आंदोलन की शुरुआत की। "बकाश्त" का अर्थ है स्व-संवर्धित। यह आंदोलन जमींदारों द्वारा बकाश्त भूमि से किरायेदारों को बेदखल करने के खिलाफ था और इसके कारण बिहार किरायेदारी अधिनियम और बकाश्त भूमि कर पारित हुआ। उन्होंने बिहटा में डालमिया चीनी मिल में सफल संघर्ष का भी नेतृत्व किया, जिसकी, किसान-मजदूर एकता सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के बारे में सुनकर, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने ब्रिटिश राज द्वारा उनकी कैद के विरोध में 28 अप्रैल के दिन को, अखिल भारतीय स्वामी सहजानंद दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था। कांग्रेस छोड़ कर, स्वामी जी, नेताजी सुभाष चंद्र बस के नेतृत्व मे गठित, आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़ गए थे। 26 जून 1950 को, स्वामी सहजानंद सरस्वती की मृत्यु हो गई।
भारत छोड़ो आंदोलन मे जब स्वामी सहजानंद गिरफ्तार हुए तो, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो तब, देश के बाहर थे ने, स्वामी सहजानंद की गिरफ्तारी के विरोध मे कहा था ....
"स्वामी सहजानंद सरस्वती, हमारी धरती पर, एक ऐसा नाम है जिसे याद किया जा सकता है। भारत में किसान आंदोलन के निर्विवाद नेता, वह आज जनता के आदर्श और लाखों लोगों के नायक हैं। रामगढ़ में अखिल भारतीय समझौता-विरोधी सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्हें पाना वास्तव में एक दुर्लभ सौभाग्य था। फॉरवर्ड ब्लॉक के लिए उन्हें वामपंथी आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक और फॉरवर्ड ब्लॉक के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में पाना एक विशेषाधिकार और सम्मान की बात थी। स्वामीजी के नेतृत्व के बाद, बड़ी संख्या में किसान आंदोलन के अग्रणी नेता फॉरवर्ड ब्लॉक के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।"
यह अंश स्वामी सहजानंद के एक लेख का है, जिसे मैंने प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी की एक पोस्ट से लिया है....
"कहते हैं कि वह (ईश्वर) सब काम पलक मारते कर देता है और जिस बात को नहीं चाहता उसे कदापि नहीं होने देता। लेकिन दूसरों का काम सँभालने और भक्तों का हुक्म बजाने से पहले वह अपना काम तो सँभाले। तभी हम मानेंगे कि वह बड़ा शक्तिमान् या सब कुछ कर सकने वाला है - सब कुछ करता है। एक दिन किसान के घी से भगवान् के मन्दिर में दीप मत जलाइये और भगवान् से कह दीजिये कि आपकी सामर्थ्य की परीक्षा आज ही है। देखें, आपके घर में - मन्दिर में - मस्जिद में - अँधेरा ही रहता है या उजाला भी होता है। रात भर देखते रहिये। मन्दिर का फाटक बन्द करके छोटे से सूराख से रह-रहकर देखिये कि कब चिराग जलता है ! आप देखेंगे कि जलेगा ही नहीं, रात भर अँधेरा ही रहेगा !
इसी प्रकार एक दिन न घण्टी बजे, न आरती हो और न भोग लगे ! किसान के गेहूँ, दूध और उसके पैसे से खरीदी घण्टी, आचमनी आदि हटा लीजिये। फिर देखिये कि दिन-रात ठाकुरजी भूखे रहते और प्यासे मरते हैं या उन्हें भोजन उनकी लक्ष्मीजी पहुँचाती हैं, दिन-रात मन्दिर सुनसान ही और मातमी शक्ल बनाये रह जाता है या कभी घण्टी वगैरा भी बजती है ! पता लगेगा कि सब मामला सूना ही रहा और ठाकुरजी या महादेव बाबा को ‘सोलहों दण्ड एकादशी’ करनी पड़ी ! एक बूँद जल तक नदारद-आरती, चन्दन, फूल आदि का तो कहना ही क्या ! सभी गायब ! वे बेचारे जाने किस बला में पड़ गये कि यह फाकामस्ती करनी पड़ी।
और ये मन्दिर बनते भी हैं किसके पैसे और किसके परिश्रम से? जब मन्दिर का कोना टूट जाय, तो ललकार दीजिये ठेठ भगवान् को ही जरा खुद-ब-खुद मरम्मत तो करवा लें। नये मन्दिर बनाने की तो बात ही दूर रही ! वह कोना तब तक टूटा का टूटा ही रहेगा जब तक किसान का पैसा और मजदूर का हाथ उसमें न लगे ! यदि कोई मन्दिर भूकम्प से या यों ही अकस्मात् गिर गया हो और भगवान् उसी के नीचे दब गये हों तो उनसे कह दीजिये कि बाहर निकल आयें अगर शक्तिमान् हैं ! पता लगेगा कि जब तक गरीब लोग हाथ न लगायें, तब तक भगवान् उसी के नीचे दबे कराहते रहेंगे। चाहे मरम्मत हो या नये-नये मन्दिर बनें - सभी केवल मेहनत करने वालों के ही पैसे या परिश्रम से तैयार होते हैं।
आगे बढ़िये ! गंगा को तीर्थ, मन्दिर को मन्दिर, जगन्नाथ धाम को धाम किसने बनाया है? किसके चरणों की धूल की यह महिमा है कि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व हो गया? किसने गोबर को गणेश और पत्थर को विष्णु या शिव बना डाला? क्या अमीरों और पूँजीपतियों ने? सत्ताधारियों ने? यदि नंगे पाँव और धूल लिपटे किसान-मजदूर गंगा में स्नान न करें, उन्हें गंगा माई न मानें, मन्दिरों में न जायँ, जगन्नाथ और रामेश्वर धाम न जायँ तो क्या सिर्फ मालदारों के नहाने, दर्शन करने या तीर्थ-यात्रा से गंगा आदि तीर्थों, मन्दिरों और धामों का महत्त्व रह सकता है? उनका काम चल सकता है? गरीबों ने यदि बहिष्कार कर दिया तो यह ध्रुव सत्य है कि राजों-महाराजों और सत्ताधारियों की लाख कोशिश करने पर भी गंगा और तलैया में कोई अन्तर न रह जायगा, मन्दिर और दूसरे मकान में फर्क न होगा और धामों या तीर्थों की महत्ता खत्म हो जायगी। उन लोगों के दान-पुण्य से ही मन्दिरों और धामों का काम और खर्च भी नहीं चल सकता यदि गरीबों के पैसे-धेले न मिलें। जल्द ही दिवाला बोल जायगा और पण्डे-पुजारी मन्दिरों, तीर्थों और धामों को छोड़कर भाग जायँगे !
यह तो करोड़ों गरीबों के नंगे पाँवों में लगी धूल-चरण रज-की ही महिमा है, यह उसी का प्रताप है कि वह जब गंगा में पहुँचकर धुल जाती है तो वह गंगा माई कहाती है; जब मन्दिरों में वही धूल पहुँच जाती है तो वहाँ भगवान् का वास हो जाता है, पत्थर को भगवान् व गोबर को गणेश कहने लगते हैं; जब वही धूल जगन्नाथ और रामेश्वर के मन्दिरों में जा पहुँचती है तो उनकी सत्ता कायम रहती है और उनकी महिमा अपरम्पार हो जाती है। गरीबों के तो जूते भी नहीं होते। इसीलिए तो उनके पाँवों की धूल ही वहाँ पहुँच कर सबों को महान् बनाती है।
कहते हैं कि महादेव बाबा खुद तो दरिद्र और नंगे-धड़ंगे श्मशान में पड़े रहते हैं, मगर भक्तों को सब सम्पदायें देते हैं - उन्हें बड़ा बनाते हैं ! पता नहीं, बात क्या है? किसी ने आँखों से देखा नहीं। मगर ये किसान और कमाने वाले तो साफ ही ऐसे
‘महादेव बाबा’
हैं कि स्वयं दिवालिये होते हुए भी, ईश्वर तक को ईश्वर बनाते और खिलाते-पिलाते हैं !
ईश्वर सबको खिलाता-पिलाता है, ऐसा माना जाता है - सही। मगर किसने उसे हल चलाते, गेहूँ, बासमती उपजाते, गाय-भैंस पाल कर दूध-घी पैदा करते, हलुवा-मलाई बनाते तथा किसी को भी खिलाते देखा है? लेकिन किसान तो बराबर यही काम करता है। वह तो हमेशा ही दुनिया को खिलाता-पिलाता है !
इतना ही नहीं। कहते हैं कि ईश्वर तो केवल भक्तों को खिलाता और पापियों को भूखों मारता है। वह अपनों को ही खिलाता है। इसिलए वह एक प्रकार की तरफदारी करता है। मगर किसान की तो उल्टी बात है ! वह तो जालिमों और सतानेवाले जमींदारों, साहूकारों और सत्ताधारियों को ही हलुवा-मलाई खिलाता है और खुद बाल-बच्चों के साथ या तो भूखा रहता है या आधा पेट सत्तू अथवा सूखी रोटी खाकर गुजर करता है ! ऐसी दशा में असली भगवान् तो यह किसान ही हैं !
दुनिया माने या न माने। मगर मेरा तो भगवान् वही है और मैं उसका पुजारी हूँ। खेद है, मैं अपने भगवान् को अभी तक हलुवा और मलाई का भोग न लगा सका, रेशम और मखमल न पहना सका, सुन्दर सजे-सजाये मन्दिर में पधरा न सका, मोटर पर चढ़ा न सका, सुन्दर गाने-बजाने के द्वारा रिझा न सका और पालने पर झुला न सका। मगर उसी कोशिश में दिन-रात लगा हूँ - इसी विश्वास और अटल धारणा के साथ कि एक-न-एन दिन यह करके ही दम लूँगा; सो भी जल्द !"
- विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh