Tuesday, 7 March 2023

राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी / होली निरंकुशता के विरुद्ध लोक का जयजयकार है.

होली पर्व है , होली उत्सव है ।  जीवन में मांगलिकभाव की नयी चेतना लेकर एक क्रम के बाद दूसरा क्रम आता है , इसलिये ये त्यौहार  पर्व कहे जाते हैं ।पर्व  जिन्दगी की एकरसता  और  अकेलेपन का अतिक्रम करता है ।पर्व  में सभी सम्मिलित  होते हैं ।    मूल रूप से पर्व  बांस या ईख की गांठ का नाम है । सन्धिस्थान भी पर्व कहलाता है, उँगली में जिसे पोरुआ[पर्व का अपभ्रंश ] कहते हैं ।संधिस्थान के विभाजन से महाभारत में भी  अठारह पर्व हैं।  गुजराती की कहावत  है -बारो मासे तेरो पर्व पार्वण  । पर्व  आमोद प्रमोद है , पर्व उत्सव नृत्य गीत  है ,
 
पर्व के साथ  विश्वास जुड़े हुए हैं । पर्व के साथ   मनोरथ  जुड़े हुए हैं ।  पर्व के साथ   ऐतिहासिक  पौराणिक संदर्भ  जुड़े हुए हैं ।  पर्व में लोकजीवन की परंपरा है , पर्व में  जातीय अस्मिता है ।  पर्व में इतिहास है । पर्व में जीवन दर्शन है । पर्व में अनुष्ठान हैं । पर्व में समष्टिचेतना है , समष्टि-भाव है ।समष्टिजीवन   के एक बिन्दु पर आ कर पर्व और मेले  एकाकार हो गये हैं , इतने अभिन्न कि उनको अलग नहीं किया जा सकता ।जीवन में दुखों का कितना भार है  !अकेले अकेले न उठाया जा सकेगा !लोकमन ने समष्टिभाव को जगाया , और पर्वों का उत्सव-समारोह बना लिया !जीवन में समष्टि का भाव आया , मैं अकेला नहीं हूँ !सब जी रहे हैं , सब के साथ मैं जी रहा हूँ ! पर्व में सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा है । प्रत्येक पर्व के साथ कुछ कथाएं हैं , कुछ गीत हैं , गाथाएं हैं ।  प्रत्येक पर्व का कोई न कोई देवता है । प्रत्येक पर्व से  सामाजिक सरोकार मंगलभाव  और  पुण्य की अवधारणा जुड़ी हुई है । वीरों का गौरव गान जुड़ा  हुआ  है। प्रत्येक पर्व से   उपासनाओं का इतिहास जुड़ा हुआ है ।  उत्सव का भाव जुड़ा  है , उत्सव शब्द का अर्थ है आनन्द की छलकन ।  मन आनन्द से भर जाय और छलकने लगे ।होली के पास वह आनन्द भाव है,जिसमें मन का साधारणीकरण हो जाता है ,चित्त द्रवीभूत हो जाता है।  होली अर्थात्‌ सुख की अदम्य खोज ,प्रणय और सौन्दर्य की अतृप्त प्यास ! मन की उद्दाम तरंग!

हां,यह सच है कि जिस दिन से ब्रज में फागुन आया है,उस दिन से गांव के गांव पागल हो गये हैं!बौरा गये हैं!कैसे कहूं, कि यह टेसू के फूलों का उत्पात है या आम पर आये बौरों की शैतानी है!यह भ्रमरों की गुंजार का नशा है या फागुन की बयार का?ब्रज के वे लोग टोल के टोल नाचते हैं ,गाते हैं,झांझ-मजीरा बजाते हैं,गुलाल के बादल उडाते हैं और केसरिया- रंग बरसा देते हैं।कोलाहल करते हैं,हंसते हैं और हंसते ही चले जाते हैं।ब्रज में आज कोई श्रोता नहीं है,सभी तो गबैया बन गये हैं।कोई दर्शक नहीं है, सभी तो दृश्य बन गये हैं-

सब नाचहिं गावहिं सबै,
सबै उडावत छार। 
सठ पंडित बेस्या बधू 
सबै भये इकसार। 
अहो हरि होरी है!

होली यौवन के उन्माद का त्योहार है। परंतु यह द्वारिका के यदुवंशियों का सर्वनाशी उन्माद नहीं है, जिसमें वे अपने बल, श्रेष्ठता और सुंदरता के अहंकार में व्यष्टि को ही अंतिम समझने लगे थे। होली का उन्माद समष्टि का उन्माद है, जिसमें हास, परिहास बिखर पड़ता है। ऐसा जो समेटे न सिमटे। गरीब को अपनी गरीबी याद है न अमीर को अपनी अमीरी। पंडित को अपनी पंडिताई की सुधि है न ठाकुर को अपनी ठकुराइत की। कलुआ ने उल्फत की दाढ़ी हिला दी और मुहल्ले का जमादार जमींदार का गाल नोचकर भाग गया। अब तक जमींदार देखे, तब तक हंसी फूट पड़ी, होली है , होली है। सबै भये इकसार, अहो हरि होरी है। नाती कहे होरी है, बाबा कहे होरी है। बूढी कहे होरी है और 
बारी कहे होरी है। देवर कहे होरी है और 
भाभी कहे होरी है। चारों ओर एक ही   गूँज - होली है होली है ! द्यौरानी ने तानभरी - ससुर देवरिया सौ लागै और जिठानी ने ढोलक बजायी-मस्त महीना फागुन कौ जी ,कोई जीवै सो खेलै होरी फाग ,भला जी कोई जीवै सो खेलै होरी फाग।

० ऋतूत्सव

मूल रूप से   होली एक ऋतूत्सव है , इसमें कोई संदेह नहीं! संसार के विभिन्न देशों के ऋतूत्सवों को लेकर मानवशास्त्रियों ने अध्ययन किये हैं ! वसन्त के त्यौहार विभिन्न देशों में आनन्द-भाव से मनाये जाते हैं !प्रकृति में परिवर्तन हुआ तो मनुष्य के मन में भी परिवर्तन हुआ ! प्रकृति में उल्लास बिखरा तो मनुष्य के मन में भी उल्लास बिखरा !यह प्रकृति और मन के गहरे संबंध का रहस्य है ! होली के साथ वसन्त का वैभव जुड़ा हुआ है ! वसन्त ऋतु को लेकर जो साहित्य रचा गया है , उसे होली से अलग नहीं किया जा सकता ! वास्तव में तो वह होली की पृष्ठभूमि है !

औरें भाँति बिहग समाजमें अवाज होत, 
ऐसे ऋतुराज के न आज दिन द्वै गये। 
औरें रस औरें रीति ,औरें राग औरें रंग ,
औरें तन औरें मन औरें बन ह्वै गये।"  
 
वसन्त को काम का सखा कहा गया है ! यह प्रकृति और मन के गहरे संबंध का रहस्य है ! होली एक दिन का त्यौहार नहीं है ! यह तो त्यौहारों का त्यौहार है ! माघ शुक्लपक्ष की  पंचमी [वसन्तपंचमी ] से लेकर के चैत्र महीने की रंगपंचमी तक चलने वाला उत्सव ! गाँवों में होलीदंड  [ एरंड ] की स्थापना वसन्तपंचमी के दिन ही हो जाती है !
 
वैदिक-परंपरा में होली नवान्न शस्येष्टि यज्ञ अथवा नवान्न यज्ञोत्सव  है। देव जब कृषि करने लगे तो दो ही फसलें मुख्य थीं, १. धान तथा २. यव (जौ). धान की फसल तैयार होने पर दीपावली तथा जौ की फसल तैयार होने पर होली मनाई जाती थी, इसीलिये दीपावली पर लक्ष्मी पूजा धान की खीलों से होती है, खील और बताशों का आदान प्रदान होता है तथा  होली की अग्नि में जौ की बालें भूनकर वितरित की जाती हैं।

तान्त्रिक-परंपरा  में होली  दारुणरात्रि  के रूप में उपासना का पर्व है । तान्त्रिक-परंपरा में उपासना की चार रात्रियों का उल्लेख हुआ है -

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रय विभाविनी !
कालरात्रि: महारात्रि: मोहरात्रिश्च दारुणा ! 
कालरात्रि शिवरात्रि , मोहरात्रि शरदपूर्णिमा की रास की रात्रि   ,  महारात्रि दीपावली और दारुणरात्रि होली की रात ! 
 
महामहोपाध्याय गिरिधरशर्मा जी ने उल्लेख किया है कि मीमांसा के भाष्यकार शबरस्वामी ने सदाचार के प्रसंग में होली के उदाहरण दिये हैं !
शैवागम से संबंधित एक ग्रन्थ " वर्षक्रियाकौमुदी " में मदनमहोत्सव के अन्तर्गत प्रात:काल से एक प्रहर तक संगीत और वाद्य के साथ शृंगारिक अपशब्दों को बोलते हुए कीच उछालने का उल्लेख हुआ है । हर्षदेव की रत्नावलि में उल्लेख है कि इस उत्सव में चित्र बना कर कामदेव की पूजा होती थी ।  "रत्नावलि "में विदूषक कहता है कि कामिनियाँ रंग डाल रही हैं और पुरुष नाच रहे हैं , जब राजा प्रमदवन में कामदेव की पूजा के लिए जाता है तो विदूषक फिर कहता है कि देखो , एक उत्सव में से दूसरा उत्सव निकल रहा है ! सद्य: सान्द्र विमर्द कर्दम कृत: क्रीडे क्षणं प्रांगणे ! दशकुमार चरित में कलिंगराज कर्दम के  तेरह दिन तक चलने वाले वसन्तोत्सव का उल्लेख है ! 

भविष्यपुराण में कामदेव और रति की मूर्तियां बनवा कर पूजने का विधान है । कामसूत्र ने इसे "सुवसन्तक-उत्सव" बताया है ,जिसमें युवतियां कानों में आम्रमंजरी लगा कर वसन्त का स्वागत करती थीं तथा "सींग की पिचकारी "से किंशुक-जल छिडका जाता था । बौद्धसाहित्य की "कृपण-कोसीय जातककथा" में राजगृह का एक भिक्षु होली के दिन पूआ खा रहा था , तब कोटिपति सेठ के मन में भी पूआ खाने की लालसा उत्पन्न होने का उल्लेख है !

० होलिका दहन

हिरण्यकशिपु  कहता था कि ईश्वर मैं ही हूँ , मेरे अतिरिक्त कोई भी ईश्वर नहीं है ! होलिका दैत्यराज हिरण्यकशिपु की बहिन थी । प्रह्लाद की भुआ ।  देवता के वरदान के रूप में उसके पास एक ऐसी चद्दर थी , जिस पर अग्नि का प्रभाव नहीं होता था । दैत्यराज हिरण्यकशिपु का आदेश था इसलिये वह विवश थी । प्रह्लाद को दंडित करने के लिये उसे गोद में लेकर वह अग्नि में बैठ गयी ,  किन्तु कुछ ऐसा हुआ कि चद्दर तो प्रह्लाद पर आगयी और होलिका जल गयी । शायद यह होलिका का आत्मबलिदान था । राजा बलि परम उदार और दानी था , होलिका के प्रति उसका पूज्य- भाव कहिये ,  उसने होलिका के पूजा-पर्व को त्यौहार का रूप दिया ।  बात तो उस मिथ्यादंभ  और अभिमान की थी ,इस प्रकार से   होली निरंकुशता   के विरुद्ध  लोक का जयजयकार है !

होलिकादहन की रात्रि  में महाराष्ट्र में कोली स्त्रियाँ होलिकादहन की रात्रि को चट्टे बजाकर नाचते हुए गाती हैं-

हॉलु बाय हॉलु बाय तुझी पूजा कराशी करूँ,
तुझे पुंजेला काय काय आणु
आई न कोंकण दे राला फिरीन नारली बनाला,
नारली में नारल आनीन हॉलु बाय तुझे पुंजेला
आईन श्रीवर्धन शहराला फिरीन सोपारी बनाला ,
श्रीवर्धन ची सोपारी आनीन हॉलु बाय तुझे पुंजेला
जाईन बसई शहराला फिरीन केलिया बनाला,
बसई ची केली आनीन हॉलु वाय तुझे पुंजेला
ए होली माता। 

तुम्हारी पूजा किस तरह करूं और तुम्हारी पूजा में क्या-क्या अर्पित करूं। मैं कोंकण और सह्याद्रि जाऊंगी और नारियल के वनों में घूमूंगी और ए होली माता, मैं तुम्हारी पूजा के लिए नारियल लाऊंगी। मैं श्रीवर्धन नगर जाऊंगी और सुपारी के वनों में घूमूंगी। ए होली माता, तुम्हारी पूजा के लिए श्रीवर्धन की सुपारी लाऊंगी। मैं बसई जाऊंगी और केले के वन में घूमूंगी। ए होली माता, तुम्हारे लिए बसई के केले लाऊंगी और तुम्हारी पूजा करूंगी।होली का जैसे -जैसे  जनपदों में विकास हुआ , वैसे वैसे उसके साथ नये नये प्रसंग जुड़्ते चले गये ! 

जैसे राजस्थान में इलोजी की कथा है , जो होली का प्रेमी अथवा मँगेतर था !जब मैं लोकवार्ता का संग्रह-सर्वेक्षण करने निकला तो समामई की अम्माजी से घरगुली की कहानी पूछी , उसका विधिविधान पूछा तो अम्माजी ने घरगुली का गीत गा कर सुना दिया, - राजा बलि के द्वार मची रे होरी ! राजा बलि के ! अब तक तो मैं सोच रहा था , ब्रज की होली का संबंध तो राधा-कृष्ण से है ! अब समझ नहीं आ रहा था कि >> ये राजा बलि होली में कहाँ से आ गये ? लोकस्मृति के सूत्र इसी प्रकार से उलझे हुए होते हैं । स्वयं राजा बलि की ऐतिहासिकता लोकस्मृति के इन सूत्रों में उलझी हुई है ।इतिहास का सत्य अपनी जगह पर है , जहाँ तक उसकी नजर जा सकती है ,वह उसको देखता-परखता भी है किन्तु जीवन का विस्तार इतिहास के उस पार भी है ।

हालाँकि भागवत के सातवें स्कन्ध  में  प्रह्लाद की कथा है ,  हिरण्यकशिपु की निरंकुशता और अहंकार का  बहुत  विस्तार है  ,   किन्तु वहाँ  शंबरासुर का उल्लेख तो है किन्तु होलिका का नाम तक नहीं है ! दसवें अध्याय के अन्त में त्रिपुर-दहन का उल्लेख अवश्य है ! ध्यान रखने की बात है कि  तमिलनाडु में होलिका दहन को कामदहन की पुराण-कथा से जोडा जाता है !  बंगाल में भी  होलिका दहन में एक पुतला जलाया जाता है और श्रीकृष्ण की प्रतिमा के साथ उसकी परिक्रमा की जाती है !  यह पुतला प्राकृत-काम है , जबकि कृष्ण अप्राकृत-काम हैं -साक्षान्मन्मथमन्मथ: ! कामदेव के मन को भी मथने वाले मदनमोहन ! इसलिए आगे चल कर होली अथवा मदनोत्सव के समस्त केलिगीतों के नायक कृष्ण बन गये ! 
 
० मदनोत्सव 
 
वसन्त को काम का सखा कहा गया है ! जब तक यक्षों का प्रभुत्व रहा तब तक काम की पूजा का बहुत अधिक प्रभाव था ! शिव के तीसरे नेत्र से काम के दहन की कहानी के बहुत गहरे अर्थ हैं ! काम के शरीर का जलना और बाद में गौरा के द्वारा उसे अनंग या अशरीरी के रूप में जीवन प्रदान करना ! यह बात काम के इन्द्रिय से अतीन्द्रिय  हो जाने की बात है ! काम तो मदन है , मद !  काम का अशरीरी हो जाना ! पशुस्तर की वासना का जलना !  हालाँकि इतिहास के अध्येता इस कथा की व्याख्या इस प्रकार से भी करते हैं कि शैवों ने यक्षों के मुक्त यौन-संबंधों की परंपरा को समाप्त कर दिया ! आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने  संस्कृतसाहित्य को आधार बना कर अपने उपन्यास > बाणभट्ट की आत्मकथा में मदनोत्सव का वर्णन किया है !" भारत में नाना संस्कृतियों का संगम" शीर्षक निबन्ध में आचार्य क्षितिमोहनसेन ने लिखा है कि -"होलिकादाह के लिये आग अनेक स्थानों पर अन्त्यज [महारों ] के घर से लायी जाती है।" उस जमाने में स्पर्शास्पर्श का   रिवाज प्रचलित था  किन्तु होली पर शास्त्र ने श्वपचस्पर्श का विधान किया है ! इतना ही नहीं , होलिका दहन के लिए जो अंगार आयेगा , वह डोम के यहाँ से लाया जायेगा ! 

० गालियां 

होली- दहन के बाद  उन्माद जैसे रंग में अररर अररर कह कर गाली गायी जाती हैं !सूरदास ने अपने होली-पदों में गालियों का बार-बार उल्लेख किया है -

केकी कोक कपोत और खग करत कुलाहल  भारी !
मानहु  लै लै नाँउ परसपर देत दिबावत गारी !
झूमि झूमि झूमक सब गावत बोलत मधुरी बानी !
देत परसपर गारि मुदित मन तरुनी बाल सयानी ! 
अथवा
छाँडि सकुच सब देत परसपर अपनी भाई गारि !
ग्वारि मदमाती हो !

लोकगीतों में भी नैनन में मोय गारी दई का उल्लेख है !रसखान तो कहते हैं कि  कहि रसखान एक गारी पै सौ आदर बलिहारी !
एक विचित्र लोकविश्वास के अनुसार अश्लील और पशुवृत्ति से संबंधित गालियां सुनाने से " ढुंढा राक्षसी "नष्ट हो जाती है। पता नहीं, लोकविश्वास का यह सूत्र इतिहास के गर्भ में समायी किसी प्राचीन आदिम- संस्कृति का अवशेष है अथवा आदिम वासनाओं के विरेचन का माध्यम है।

होली के उत्सव में यक्ष, राक्षस , पिशाच , देव ,  दैत्य , वैदिक -तान्त्रिक  , आर्य-अनार्य ,वैष्णव, शैव , शाक्त , हिन्दू-मुस्लिम और सिख  , उत्तर-दक्षिण की सभी संस्कृतियों का अन्तर्भाव  या समन्वय है !  यक्षों की कामपूजा है , दैत्यसंस्कृति की होलिका है ,    धूलिवन्दन के समय पिशाच-नृत्य का उल्लेख है , शैवों का मदनदहन है ,  वैदिकों का नवसस्येष्टि-यज्ञ   है ! आगम-परंपरा की दारुण-रात्रि है !

प्राय : सभी कृष्णभक्त-कवियों ने होली के पद लिखे हैं , धमार लिखे हैं । अकेले सूरदास ने ही वसन्तलीला के सौ से अधिक पद लिखे हैं ,जिनसे तत्कालीन ब्रज और गोपों में होली की परंपराओं की विस्तृत जानकारी मिल जाती है ।  कितने प्रकार के गीत गाये जाते थे , कितने प्रकार के वाद्य थे । उद्दाम नृत्य होते थे ।झूम-झूम झूमक सब गावत ।झूमक लोकगीतों की एक  शैली थी ! देति परस्पर गारि मुदित मन ! आम्रमंजरी हाथ में ले कर चांचर खेलते थे,

सूरदास सब चांचर खेलें अपने-अपने टोलें ।
बाजत ताल मृदंग झांझ ढप । 

उन्मुक्त हास-परिहास होता था,

कोउ न रहत घर घूंघटबारी । 
जोबन भार भरीं ।

सूरदासजी  जिनमें  गोपसंस्कृति में रगीपगी होली का सजीव-चित्रण  है।  उन्हॊ ने फाग को सब सुखों का सार बतलाया है।उन्होंने लिखा है कि फाग में हृदय का गुप्त अनुराग प्रकट हो जाता है।सूरदास ने फागुन की पन्द्रह तिथियों का वर्णन किया है,जिसमें सम्राट कामदेव का शासन है,लोकवेद की मर्यादा को टांग दिया है,हरिहोरी है की टेक साथ-साथ चल रही है,

नृपति कहै सोइ कीजिये क्यों राखिये विवेक ।
अहो हरि होरी है!

चतुर्भुजदास ने तो हो-हो-हो-हो को होली का मन्त्र कह दिया है ।होली के वर्णन में सूरदास ने लिखा है कि कुल की मर्यादा खूँटी पर टाँग दी गयी है !
पद्माकर ने होली का वर्णन इस प्रकार से किया है -
फाग के भीर अभीरन तें गहि ,गोबिंदै लै गई भीतर गोरी ।
भायी करी मन की पदमाकर ,ऊपर नाय अबीर की झोरी ।
छीन पितंबर कंबर तें सु बिदा दई मीड कपोलन रोरी ।
नैन नचाय कही मुसकाय , लला फिर आइयो खेलन होरी । 
 
मुगलों के दरबार से लेकर वाजिद अली शाह तक की होलियाँ हैं ! अब्दुल हलीम शरर  ने लिखा है कि नवाब के यहाँ लोग जोगिया वस्त्र पहन कर होली देखने जाते थे ! शाह तोराब अली [काकोरबी ] जो कलन्दर  सूफी थे , उन्होंने  कृष्ण के प्रेम में अनेक रचनाएं लिखी थीं -

इनकी होरी का रंग न पूछो धूम मची है बिंदरावन माँ !
श्यामबिहारी चित्र खेलारी खेल रहा होरी सखियन माँ !
रंग से भीँज गयी सब धरती , बिचलत पाँव चलत कुंजन माँ !
अंग निहारत ताक के मारत दाग लगावत उजले बसन माँ !

अनेक मुस्लिम कवि और गायकों की होली रचनाएं शास्त्रीय-संगीत के रागों में निबद्ध हैं । सूफी-संत बुल्ले-शाह की होली रचना है,

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह 
नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह !
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह ,
नाम नबी की रतन चढी, 
बूँद पडी इल्लल्लाह,
रंग-रंगीली उही खिलावे, 
जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह ,
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह ।
फ़ज अज्कुरनी होरी बताऊँ , 
वाश्करुली पीया को रिझाऊं,
ऐसे पिया के मैं बल जाऊं, 
कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह ,
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी, 
अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी ,
नूर नबी [स] डा हक से जारी, 
नूर मोहम्मद सल्लल्लाह ,
बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह ,
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।

अनेक मुस्लिम कवि और गायकों की होली रचनाएं शास्त्रीय-संगीत के रागों में निबद्ध हैं ।मुस्लिम कवयित्री ताजबीबी ने होली की धमार लिखी थी -  बहुरि , ढप बाजन लागे हेली ! रसखान ने तो होली का बड़ा जीवन्त वर्णन किया है ! जहांगीर के हरम में होली मनायी जाती थी , लन्दन के संग्रहालय में "जहांगीर-अलबम" में अबलहसन के द्वारा बनाया गया होली का चित्र है । इस चित्र में बादशाह और बेगम भी हैं ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक चांचर गीत है -

पियरी सोहै पियरी सोहै ,
अरी पियरी सोहै, 
देख जरे नयना पियरी सोहै ,
अपने बलमवा से मुखवा न खोले ली ,
भला आनक बलम भरि-भरि बयना ,
भरि-भरि बयना ,पियरी सोहै

अरी, तेरी पीले वस्त्रों को देखकर मेरे नयनों में तृषा जग जाती है। आंखें जलने लगती हैं। अपने बालम से तू इतनी लाज करती है कि मुख ही नहीं खोलती। परंतु दूसरे के प्रिय से खुल कर बोलती है। उद्दाम रस से उच्छल नायिका दूसरी ओर से उत्तर देती है-

अरे अपना बलमवा से हरी हरी चुरिय़ां हो ,
हरी हरी चुरिय़ां ,
अरे आनक बलम भरि भरि कंगना भरि भरि कंगना ,
पियरी सोहै। 

अरे अपने बालम से तो मुझे हरी हरी चूडिय़ां ही मिलती है परंतु आनक- बलम तो मुझे भर बांह कंगन पहना जाता है।

० रसिया 

आज जब देश के सुदूरवर्ती अंचलों में लोकमन आनन्द -उल्लास से उमँग रहा है !  सारे भेदभाव जैसे समष्टि-उल्लास के आगे पराजित हो गये हैं !  नाना प्रकार के गीत , नाना प्रकार के नृत्य  नाना प्रकार के रंग !  रंग क्या ,उल्लास की अभिव्यक्ति  कहें !रसिया, फाग, धमार, कबीर, चैता, चहक, तान और चांचर।धरती से आकाश तक का अंतराल आनंद, उल्लास और कोलाहल से भर गया। कहीं ढपयायी होली, कहीं रजपूती होली। कहीं पतोला की होली तो कहीं सुखैया की होली। कहीं चांचर और कहीं धपंग। कहीं झुमका और कहीं वसंता। होरी आई रे वसंता ढप लै लै। जितने सुर उतनी तान। जितने गाम उतनी होली। होली के इतने रंग, इन्हें कौन गिन सकेगा।इनमें एक ब्रज का रसिया भी है ! यों तो रसिया रस और रसिक शब्द का ही विस्तार है । रसिया, ब्रज लोक- संगीत की एक परंपरा ही है । यों इसका एक रूप फूलडोल की गायकी में भी है ,जिसे रसियाई कहा जाता है ।  रसियाई और रसिया में अन्तर है । रसिया लोक का अपना गीत है , किसी दूसरे को सुनाने की उसे जरूरत ही क्या है ?  लेकिन जिसको सुनना ही हो उसे तो ढप बजाने वालों की भीड़ में सौ सौ धक्के खाने ही पड़ेंगे ।  अब रसिया की कुछ पंक्तियाँ गुगुनाने के लिये प्रस्तुत हैं -

होरी खेली न जाय । 
खेली न जाय होरी खेली न जाय।
नैंनन में मोय गारी दई पिचकारी दई ,
होरी खेली न जाय ।
क्यों रे लंगर लंगराई मोते कीनी,
केसर कीच कपोल दीनी ।
लै गुलाल ठाडौ मुसकाय..... 
लै गुलाल ठाडौ मुसकाय , 
होरी खेली न जाय ।
औचक कुचन कुमकुमा मारैं,
रंगसुरंग सीस पै डारे । 
अंग लिपट हँसि  हा हा खाय......
हँसि  हा हा खाय.......... 
होरी खेली न जाय ।
मनुआँ बड़ौ गरीब गुजरिया लै गई बातन में 
रूप सिखर गोरी चढ़ी ,रवि ते तेज अनूप ।
नैन बटोही थकि रहे ,लखि बदरौटी धूप ।
छिपे पलकन के पातन में । 
मनुआँ बड़ौ गरीब गुजरिया लै गई बातन में !
मन में घर करि गई गुजरिया गुन गरबीली सी 
ऐसी पैनी धार की काजर रेख लगाय 
आँजत अँगुरी ना चिरी कट्यौ करेजा जाय ।
न निकरै नोंक नुकीली सी !
०पा लागों कर जोरी श्याम मोसों खेलौ न होरी ।गैया चरावन हौं निकसी हों सास-ननद की चोरी ।श्याम मोसों खेलौ न होरी ।
सिगरी चुंदरिया न रंग में भिगोवौ , इतनी बात सुनों मोरी ।श्याम मोसों खेलौ न होरी ।
रे मत मारै !मत मारै दृगन की चोट रसिया होरी में मेरें लग जायगी !
नैना खेलें नैन खिलावें नैना डारैं रंग ।
नैना मारैं प्रेमप्रीत की पिचकारी पचरंग ।
भिंजोय दें बरजोरी !रे मत मारै !
काजर कौ कांटौ लगौ , बेंदी की लग गयी फांस ।
रसिया के नैना लगे कसि कें बारौ मास ।
मत मारै दृगन की चोट रसिया होरी में मेरें लग जायगी !

० देवर का नायकत्व

किसी प्राचीन -संस्कृति का एक सूत्र होली पर देवर के नायकत्व का है। दाऊजी का हुरंगा हो, नंदगांव बरसाने की लठमार होली हो, अथवा जाव बठैन की सर्वत्र लोकगीतों में देवर का नायकत्व प्रतिष्ठित है।

भमर कारे रे भमर कारे छिटकाय आई केस भमर कारे
कौन पै पहरीं तैनें हरी हरी चुरियां कौन पै नैन करे कारे
देवर पै पहरीं मैंने हरी हरी चुरियां यार पै नैन करे कारे
छिटकाय आई केस भमर कारे।
अथवा
मृगनैनी तेरी यार नवल रसिया।

होली का यह उल्लास भिन्न भिन्न  जगहों पर भिन्नभिन्न प्रकार से  अभिव्यक्त होता है ! जहां देखो वहीं ढोल और ढप बज रहे हैं!धरती से आसमान तक उल्लास!कहीं ढपियायी होली ,तो कहीं रजपूती होली!कहीं पतोला की होली तो कहीं सुखैया की होली ।कहीं चांचर, तो कहीं धपंग! कहीं झुमका तो कहीं बसन्ता!ब्रज को ही लें तो बरसाने की लठामार होली , दाऊजी का हुरंगा ! फालैन की होली ,  जाव बठैन की होली ! ग्राउस ने जाटों का उल्लेख किया है !राजस्थान की होली ! 

० बनारस की होली

दिगंबर खेले मसाने में होरी
खेलैं मसाने में होरी 
दिगंबर खेले मसाने में होरी ,
भूत पिशाच बटोरी ,दिगंबर, 
खेले मसाने में होरी.चिता, 
भस्म भर झोरी,दिगंबर,
खेले मसाने में होरी.
गोप न गोपी श्याम न राधा, 
ना कोई रोक ना, कौनाऊ बाधा,
ना साजन ना गोरी, 
दिगंबर, खेले मसाने में होरी.
नाचत गावत डमरूधारी, 
छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी,पीतैं प्रेत-धकोरी ,
दिगंबर खेले मसाने में होरी.
भूतनाथ की मंगल- होरी, 
देखि सिहाएं बिरिज की गोरी ,
धन-धन नाथ अघोरी ,
दिगंबर खेलैं मसाने में होरी.

० अवध की होली

अवध माँ होली खेलैं रघुवीरा...
ओ केकरे हाथ ढोलक भल सोहै, 
केकरे हाथे मंजीरा।
राम के हाथ ढोलक भल सोहै, 
लछिमन हाथे मंजीरा।
ए केकरे हाथ कनक पिचकारी, 
ए केकरे हाथे अबीरा।
ए भरत के हाथ कनक पिचकारी 
शत्रुघन हाथे अबीरा।

होली की मनोभूमि राग की मनोभूमि है , वह मनोभूमि जिससे कलाओं का उद्भव होता है !लाल-पीला-हरा-नारंगी-नीला और गुलाबी ।जैसे होली के रंग अनेक हैं ,वैसे ही होली के बोल भी अनेक हैं ।होली के संगीत का अध्ययन अनुसंधान का विषय बनाया जा सकता है !  होली के गीतों की कितनी विधाएं और शैलियाँ हैं >  ध्रुपद धमार रसिया चाँचर तान राग काफ़ी दीपचन्दी ताल ! धमार का तो अर्थ ही ऊधम है ! धमगज्जर या हुड़दंग !होली के अवसर पर कितने वाद्य बजाये जाते हैं ? ढप , ढोलक . मजीरे , नगाड़े , बैन , मुंहचंग , किन्नर , महुआ , हुड़का ।गोप-ग्वालों के मृदंग-पखावज और ढप हों अथवा विंध्याचल के जंगलों में अपने आदिम-विश्वासों और अनेक अभावों के बीच जीने वाले मुसकराते-गाते भील-भीलनियों के धिन्न-धिन्न करते हुए मादल और ढोल हों ,प्रत्येक ताल और लय में वही शाश्वत तरंग है । होली पर कितने  प्रकार के नृत्य  होते हैं ? थावल- चौंडनी हो ,शेखावाटी का गींदड या भीलवाडा का गेर हो !ब्रज का चरकुला हो । करमा नाच , लहराओबा नृत्य , वसन्त की मदमाती बयार में चांदनी के दूध में नहाये युवा-हृदय की सौन्दर्यचेतना उमंगती है , तो पैर अपने-आप थिरकने लगते हैं । असम के बिहू का प्रणय-उन्माद से तरंगित गीत है >> नाचने की लालसा है , नाचती ही रहूं , मगन रहूं , ओ साथी ! बिहू नाचते -नाचते मुझे भगा कर मत ले जाना ! 

भविष्यपुराण और भविष्योत्तर-पुराण में होली का वर्णन है ! पिशाच-नृत्य की बात आयी है , होली की भस्म , धूलि और कुंकुम को लेकर पिशाच जैसा नृत्य हो रहा है ! 

फागुन, होरी के खिलैया यार, 
जाय मत रे! 

होली के पास वह आनन्द भाव है,  जिसमें मन का साधारणीकरण हो जाता है ,  चित्त द्रवीभूत हो जाता है।  सुख की अदम्य खोज ,प्रणय और सौन्दर्य की अतृप्त प्यास !  मन की उद्दाम तरंग!  जब होली के दिन बीतने को होते हैं तब रसिक-मन की प्यास बुझती नहीं,  वह कहता है > फागुन, होरी के खिलैया यार, जाय मत रे!

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी
© Rajendra Ranjan Chaturvedi

लेखक एक प्रसिद्ध साहित्यकार है। आप सबको होली की अनंत शुभकामनाएं। 

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