कैंब्रिज में राहुल गांधी के पेगासस के बयान पर कि उनकी जासूसी की गई पर सरकार समर्थक मित्रो ने एतराज जताया है। उन्हे भी एतराज जताने का उतना ही हक है जितना राहुल गांधी को अपनी बात कहने का। पर सरकार समर्थक मित्रो की याददाश्त थोड़ी कमज़ोर होती है। जिस पेगासस पर राहुल के बयान के बाद वे इसे देश की इज्जत से जोड़ कर देख रहे है, उस पेगासस के भारत में आने और जासूसी की खबरों का खुलासा करने का शुरुआत ही विदेशी खोजी पत्रकारिता से हुई है। उसी खोजी पत्रकारिता ने यह रहस्य खोला था कि भारत में इजराइल की एनएसओ कंपनी ने पेगासस नामक एक ऐसा मालवेयर बेचा है, जिसका इस्तेमाल, बड़े राजनीतिक नेताओं, पत्रकारों, जजों और तो और पूर्व सीजेआई और अब सदस्य राज्यसभा रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला अधिकारी तक की जासूसी के लिए किया गया। पर इन सबसे देश की इज्जत नहीं गई, पर इन्ही आरोपों को एक व्याख्यान में उल्लेख कर देने से, देश की इज्जत कैंब्रिज में नीलाम हो गई! मूर्खता और पाखंड की कोई सीमा नहीं होती है।
मैं आप को थोड़ा पीछे ले जाना चाहता हूं। साल 2021 में, विदेशी अखबार द गार्डियन और वाशिंगटन पोस्ट सहित भारतीय वेबसाइट, द वायर और 16 अन्य मीडिया संगठनों द्वारा एक 'स्नूप लिस्ट' जारी की गयी, जिसमें बताया गया कई मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनेता, पत्रकार, न्यायाधीश और कई अन्य लोग इजरायली फर्म एनएसओ ग्रुप के पेगासस सॉफ्टवेयर के माध्यम से साइबर-निगरानी के टारगेट थे। द वायर ने इस जासूसी के संबंध में लगातार कई रिपोर्टें प्रकाशित की जिनसे यह ज्ञात होता है कि, "पेगासस सॉफ्टवेयर, केवल सरकारों को बेचा जाता है, और इसका मकसद आतंकी संगठनों के संजाल को तोड़ने और उनकी निगरानी के लिए किया जाता है। पेगासस स्पाइवेयर को एक हथियार का दर्जा प्राप्त है और वह सरकारों को, उनकी सुरक्षा के लिये जरूरी जासूसी हेतु ही बेचा जाता है।"
इन खुलासों से यह निष्कर्ष निकला रहा कि, सरकारों ने, इसका इस्तेमाल राजनीतिक रूप से असंतुष्टों और पत्रकारों पर नजर रखने के लिए भी किया है। इसमे भी, विशेष रूप से, वे पत्रकार जो सरकार के खिलाफ खोजी पत्रकारिता करते हैं और जिनसे सरकार को अक्सर असहज होना पड़ता है।
अब कुछ देशों की खबरें देखें।
● फ़्रांस ने न्यूज़ वेबसाइट मीडियापार्ट की शिकायत के बाद पेगासस जासूसी की जाँच शुरू कर दिया है। यह जासूसी मोरक्को की सरकार ने कराई है।
● अमेरिका में बाइडेन प्रशासन ने पेगासस जासूसी की निंदा की है हालांकि उन्होंने अभी किसी जांच की घोषणा नहीं की है।
● व्हाट्सएप प्रमुख ने सरकारों व कंपनियों से आपराधिक कृत्य के लिए पेगासस निर्माता एनएसओ पर कार्रवाई की मांग की।
● आमेज़न ने एनएसओ से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और अकाउंट बंद किया।
● मैक्सिको ने कहा है कि, एनएसओ से किये गए पिछली सरकार के कॉन्ट्रैक्ट रद्द होंगे।
● भारत में इस पर सरकार अभी भ्रम में है और आईटी मंत्री किसी भी प्रकार की जासूसी से इनकार कर रहे हैं और इसे विपक्ष की साज़िश बता रहे हैं ! हैरानी की बात यह भी है कि नए आईटी मंत्री, अश्विनी वैष्णव का नाम खुद ही जासूसी के टारगेट में हैं।
फ्रांसीसी अखबार ला मोंड ने, भारत को इस स्पाइवेयर के इजराइल से प्राप्त होने के बारे में, लिखा है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब जुलाई 2017 में इजरायल गये थे, तब वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति बेंजामिन नेतान्याहू से उनकी लंबी मुलाकात हुई थी। नेतन्याहू से हमारे प्रधानमंत्री जी के सम्बंध बहुत अच्छे रहे हैं। हालांकि नेतन्याहू बीच में हट गए थे, पर वे फिर गद्दीनशीन हो गए हैं। 2017 की प्रधानमंत्री जी की यात्रा के बाद ही, पेगासस स्पाईवेयर का भारत में इस्तेमाल शुरू हुआ, जो आतंकवाद और अपराध से लड़ने के लिए 70 लाख डॉलर में खरीदा गया था। हालांकि ल मांड की इस खबर की पुष्टि हमारी सरकार ने नही की है। और यही सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है भी, कि हमने उक्त स्पाइवेयर खरीदा भी है या नहीं। हालांकि इस विवाद पर, पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रेस कांफ्रेंस में यह कहा था कि, दुनिया के 45 से ज़्यादा देशों में इसका इस्तेमाल होता है, फिर भारत पर ही निशाना क्यों ? पर खरीदने और न खरीदने के सवाल पर उन्होंने भी कुछ नहीं कहा था।
जैसे खुलासे रोज रोज हो रहा थे, उससे तो यही लगता है कि पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल सिर्फ अपने ही लोगों की निगरानी पर नहीं, बल्कि चीन, नेपाल, पाकिस्तान, ब्रिटेन के उच्चायोगों और अमेरिका की सीडीसी के दो कर्मचारियों की जासूसी तक में किया गया है। द हिन्दू अखबार की तत्कालीन रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने कई राजनयिकों और विदेश के एनजीओ के कर्मचारियों की भी जासूसी की है। पर सरकार का अभी तक इस खुलासे पर, कोई अधिकृत बयान नहीं आया है अतः जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह अखबारों और वेबसाइट की खबरों के ही रूप में है।
तब डॉ सुब्रमण्यम स्वामी पूर्व बीजेपी सांसद ने एक ट्वीट कर के सरकार से पूछा था कि, "पेगासस एक व्यावसायिक कम्पनी है जो पेगासस स्पाइवेयर बना कर उसे सरकारों को बेचती है। इसकी कुछ शर्तें होती हैं और कुछ प्रतिबंध भी। जासूसी करने की यह तकनीक इतनी महंगी है कि इसे सरकारें ही खरीद सकती हैं। सरकार ने यदि यह स्पाइवेयर खरीदा है तो उसे इसका इस्तेमाल आतंकी संगठनों की गतिविधियों की निगरानी के लिये करना चाहिए था। पर इस खुलासे में निगरानी में रखे गए नाम, जो विपक्षी नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों, पत्रकारों, और अन्य लोगों के हैं उसे सरकार को स्पष्ट करना चाहिए।" उन्होंने सरकार से सीधे सवाल किया था कि, क्या उसने यह स्पाइवेयर एनएसओ से खरीदा है या नहीं ?
तभी यह सवाल उठा कि, अगर सरकार ने यह स्पाइवेयर नहीं खरीदा है और न ही उसने निगरानी की है तो, फिर इन लोगों की निगरानी किसने की है और किन उद्देश्य से की है, यह सवाल और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर किसी विदेशी एजेंसी ने यह निगरानी की है तो, यह मामला बेहद संवेदनशील और चिंतित करने वाला है। सरकार से यह सवाल पूछे जाने लगे,
● उसने पेगासस स्पाइवेयर खरीदा या नहीं खरीदा।
● यदि खरीदा है तो क्या इस स्पाइवेयर से विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों और कर्मचारियों की निगरानी की गयी है ?
● यदि यह निगरानी की गयी है तो क्या सरकार के आईटी सर्विलांस नियमों के अंतर्गत की गयी है ?
● यदि निगरानी की गयी है तो क्या सरकार के पास उनके निगरानी के पर्याप्त काऱण थे ?
● यदि सरकार ने उनकी निगरानी नहीं की है तो फिर उनकी निगरानी किसने की है ?
● यदि यह खुलासे किसी षडयंत्र के अंतर्गत सरकार को अस्थिर करने के लिये, जैसा कि सरकार बार बार कह रही है, किये जा रहे हैं, तो सरकार को इसका मजबूती से प्रतिवाद करना चाहिए। सरकार की चुप्पी उसे और सन्देह के घेरे में लाएगी।
एनएसओं के ही अनुसार, "पेगासस स्पाइवेयर का लाइसेंस अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत मिलता है और इसका इस्तेमाल आतंकवाद से लड़ने के लिये आतंकी संगठन की खुफिया जानकारियों पर नज़र रख कर उनका संजाल तोड़ने के लिये किया जाता है।"
पर जासूसी में जो नाम आये हैं, उससे तो यही लगता है कि, सरकार ने नियमों के विरुद्ध जाकर, पत्रकारो, विपक्ष के नेताओ और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ अपने निहित राजनीतिक उद्देश्यों के लिये उनकी जासूसी और निगरानी की है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की भी निगरानी की बात सामने आ रही है। नियम और शर्तों के उल्लंघन पर पेगासस की कंपनी एनएएसओ भारत सरकार से स्पाईवेयर का लाइसेंस रद्द भी कर सकती है। क्योंकि, राजनयिकों और उच्चायोगों की जासूसी अंतरराष्ट्रीय परम्पराओ का उल्लंघन है औऱ एक अपराध भी है । अब वैश्विक बिरादरी, इस खुलासे पर सरकारों के खिलाफ क्या कार्यवाही करती है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।
हंगामा हुआ और सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हुई तो, पेगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज, जस्टिस रवींद्रन की अध्यक्षता में जांच कमेटी बनाई और जांच भी हुई। सुप्रीम कोर्ट ने, अपने आदेश की शुरूआत बिहार के मोतिहारी में जन्मे अंग्रेज लेखक जॉर्ज ऑर्वेल के कथन ‘आप कोई राज रखना चाहते हैं तो उसे खुद से भी छिपाकर रखिए’ से की। केंद्र सरकार की दलील थी कि, यह सुरक्षा का मामला है और बहुत से दस्तावेज सरकार ने जांच के लिए उपलब्ध नहीं कराए। सुरक्षा कवच, देश की सुरक्षा में कितना कारगर होता है, यह तो अलग बात है, पर सरकार को भी एक आवरण दे ही जाता है, जिनके अंदर ऐसी बहुत सी चीजें, तथ्य आदि छुप जाते हैं, जिन्हे गोपनीय रखने की कोई जरूरत नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की इस नीयत को समझ लिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "सरकार को मांगी गई जानकारी गुप्त रखे जाने का तर्क, साबित करना चाहिए कि इसके खुलासे से राष्ट्रीय सुरक्षा पर असर पड़ेगा। उसे अदालत के सामने रखे जाने वाले पक्ष को भी सही ठहराना चाहिए। अगर केंद्र सरकार एक सीमित हलफनामा दाखिल करने के बजाय इस मामले में अपना रुख स्पष्ट कर देती तो यह एक अलग स्थिति होती।"
पीठ ने कहा कि, "आरोपों पर केंद्र ने कोई खंडन नहीं किया।"
केंद्र सरकार ने कहा था कि, "वह यह सार्वजनिक नहीं कर सकती कि उसकी एजेंसियों ने इस्राइल के स्पाइवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं, क्योंकि इस तरह का खुलासा राष्ट्रीय हित के खिलाफ होगा।"
पेगासस जासूसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जस्टिस रवीन्द्रन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, "29 उपकरणों में से 5 उपकरणों में मालवेयर पाए गए हैं। वे पेगासस के हैं, या किसी अन्य स्पाइवेयर के, यह भी स्पष्ट नहीं है। रिपोर्ट में जासूसी रोकने के उपाय भी सुझाए गए हैं और निजता के हनन को रोकने की बात भी की गई है।"
हालांकि, रक्षा मंत्रालय पहले ही इस बात से इनकार कर चुका है कि, रक्षा मंत्रालय और एनएसओ के बीच कोई सौदा हुआ है। न्यूयार्क टाइम्स की खबर के अनुसार, पेगासस रक्षा सौदे का हिस्सा था। सरकार के लाख ना नुकुर के बाद, एक साल पहले यह चर्चा विभिन्न स्रोतों से पुष्ट हो रही थी कि, भारत सरकार ने रक्षा उपकरणों के रूप में, पेगासस स्पाइवेयर की खरीद की थी और उसका उपयोग सुप्रीम कोर्ट के जजों, निर्वाचन आयुक्त सहित, विपक्ष के नेताओ और पत्रकारों सहित अनेक लोगों की जासूसी करने में प्रयोग किए जाने के आरोप लगे थे।
आज तक इस सवाल का जवाब सरकार ने नही दिया कि, पेगासस भारत में आया है कि नही ?
यदि आया है तो उसे किसने खरीदा है?
क्या सरकार ने ?
या सरकार के इशारे पर किसी चहेते पूंजीपति ने?
नही आया है तो फिर पेगासस से जासूसी किए जाने के जो आरोप लगाए गए थे, उनका स्पष्ट खंडन क्यों नही किया गया ?
सर्विलांस, निगरानी और खुफिया जानकारी जुटाना, यह सरकार के शासकीय नियमों के अंतर्गत आता है। सरकार फोन टेप करती हैं, उन्हें सुनती हैं, सर्विलांस पर भी रखती है, फिजिकली भी जासूसी कराती हैं, और यह सब सरकार के काम के अंग है जो उसकी जानकारी मे होते हैं और इनके नियम भी बने हैं। इसीलिए, ऐसी ही खुफिया सूचनाओं और काउंटर इंटेलिजेंस के लिये, इंटेलिजेंस ब्यूरो, रॉ, अभिसूचना विभाग जैसे खुफिया संगठन बनाये गए हैं और इनको इन सब कामो के लिये, अच्छा खासा बजट भी सीक्रेट मनी के नाम पर मिलता है। पर यह जासूसी, या अभिसूचना संकलन, किसी देशविरोधी या आपराधिक गतिविधियों की सूचना पर होती है और यह सरकार के ही बनाये नियमो के अंतर्गत होती है। राज्य हित के लिये की गयी निगरानी और सत्ता में बने रहने के लिये, किये गए निगरानी में अंतर है। इस अंतर के ही परिपेक्ष्य में सरकार को अपनी बात देश के सामने स्पष्टता से रखनी होगी।
पेगासस जासूसी यदि सरकार ने अपनी जानकारी में देशविरोधी गतिविधियों और आपराधिक कृत्यों के खुलासे के उद्देश्य से किया है तो, उसे यह बात सरकार को संसद में स्वीकार कर लेनी चाहिए। लेकिन, यदि यह जासूसी, खुद को सत्ता बनाये रखने, पत्रकारो, विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ब्लैकमेलिंग और उन्हें डराने के उद्देश्य से की गयी है तो यह एक अपराध है। सरकार को संयुक्त संसदीय समिति गठित कर के इस प्रकरण की जांच करा लेनी चाहिए। जांच से भागने पर कदाचार का सन्देह और अधिक मजबूत ही होगा। सच कहिए तो पेगासस मामले की जांच जितनी गंभीरता और गहराई से होनी चाहिए थी, उतनी संजीदा तरह से की ही नहीं गई। कारण, सरकार द्वारा दस्तावेजों का उपलब्ध न कराना भी था। राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है, और उसके लिए यदि ऐसे आधुनिक सर्विलांस उपकरण की जरूरत हो तो, उसे खरीदा भी जाना चाहिए। पर ऐसे संवेदनशील उपकरण का इस्तेमाल, अपने राजनीतिक विरोधियों, जजों, चुनाव आयुक्त, पत्रकारों आदि की निगरानी के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
(विजय शंकर सिंह)
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