Tuesday, 28 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (4)

बचपन में घी-दूध और फलों की कमी नहीं थी। मेरा बचपन पिताजी की मौसी के यहाँ बीता। पिता जी के मौसा कानपुर के एक बड़े ज़मींदार अमरौधा वाले टंडन जी के कारिंदा थे। अंगदपुर गाँव में रहते थे। बीस एकड़ बारानी खेती, आम, केले और अमरूद के बाग अलग। मकान मेरे बचपन में भी दुखंडा बना था और बीघे भर का घेर। घर में नौकर-चाकर। चूँकि वे मौसा जी निस्संतान गुज़र गए थे इसलिए दादी ने पिताजी को वहाँ भेज दिया। 

मौसी का गाँव में रुतबा था। बच्चों के झगड़े में एक लड़की ने पत्थर फेंका जो मेरे सिर पर लगा। सिर से ख़ून भल-भल बहने लगा। मौसी-दादी ने उसके पिता को बुला कर अपने नौकर से जूतों से पिटवाया था। मैं भी सहम गया था। उनके घेर में कई दुधारू पशु थे। सुबह-शाम दूध कढ़ कर आता तो बोरसी में हल्की आँच में रात भर गर्म होता। सुबह वह दूध ललौंछ लिए होता। मलाई, दूध और मक्खन खाते। मट्ठा परजा को चला जाता।

मौसी-दादी की ज़मीन पर उनके पड़ोसी एक ब्राह्मण परिवार के लोग आँख गड़ाए थे। अकेले पिता जी उनसे लड़ नहीं सकते थे। और हमारे दादा ने साफ़ कह दिया कि हमें किसी कारिंदा की ज़मीन नहीं चाहिए। बाद में पिता जी के मामा लोग उस ज़मीन और ज़ायदाद पर क़ाबिज़ हुए। लेकिन मैंने तो छह साल की उम्र तक बचपन वहीं गुज़ारा। फिर कानपुर शहर आ गए। अब जब भी कानपुर जाता हूँ तो NH-2 पर मुंगीसा पुर से एक किमी आगे वह गाँव दिखता है। पर वहाँ कभी जाने की इच्छा नहीं हुई।

( दूध की हाँडी की यह फ़ोटो श्री कुलदीप चौहान के सौजन्य से )

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/3_28.html
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