आज फेसबुक पर एक पोस्ट पर निगाह गयी. एक फ़ोटो था. किसी ने मुझे टैग किया है. टैग करने वालों को मैं कभी मना नहीं करता हूँ. क्यों कि अक्सर उनको मना करते हुए कुछ लोगों को क्रोधित भाव में जब देखता हूँ तो सोच लेता हूँ शायद टैग करना भी एक आदत हो. और आदतें बदलती नहीं. ऐसे ही एक टैग फ़ोटो पर एक बछड़े का चित्र है. बछड़े पर राम लिखा है और उसे माला पहनाया गया. वह बछड़ा टैग करने वाले मित्र को शायद वैदिक गाय नंदिनी या काम धेनु का बछड़ा लगा हो. मैंने अक्सर बक़रीद के अवसर पर भी ऐसे बकरों पर अल्लाह या मुहम्मद या इस्लाम में पवित्र माने जाने वाला 786 अंक उत्कीर्ण होने की बात अखबारों में पढी है. पर बछड़े पर राम लिखे होने की बात मेरी नज़र में पहली बार आयी है. यह भी एक विडम्बना है कि बकरे पर अल्लाह ही उभरे और बछड़े पर राम. पता नहीं यह बंटवारा खुद अल्लाह और राम ने ही किसी शिखर वार्ता में कर लिया या फिर उनके मतवाले मानने वालों में. पर इतना तो स्पष्ट है कि बक़रीद का बकरा, अल्लाह लिखे जाने के बावज़ूद भी कुर्बान हुआ और बछड़ा , राम के नाम से अंकित हो कर भी बछड़ा ही रहा.
ऐसा नहीं कि इस नामोल्लेख से किसी का लाभ हुआ ही नहीं हो. लाभ तो हुआ, पर यह लाभ न बछड़े को मिला और न ही बेचारे बकरे की ही जान बची. लाभ हुए इन्हें बेचने वालों को. लाभ हुआ इन्हें पालने वालों को. लोग मुंहमांगी कीमत दे कर ऐसे बकरे और बछड़े खरीदते हैं. इसी भ्र्म में जीते रहते हैं कि वह पशु उनके लिए शुभ ही होगा. होता भी होगा ऐसा. मैंने ऐसा कोई शोध नहीं किया है. पर इस प्रकार की बात मुझे आस्था की नहीं आस्था के कमी की बात ही लगती है. एक तर्क दिया जाता है वह सर्वव्यापी है और उस के बिना कोई पता तक नहीं हिलता. फिर इस विश्वास के प्रमाण पर इतनी हैरानी क्यों. या तो आस्था दुर्बल है या उसका भय है. जो आस्था भय से उत्पन्न होती है, वह भय के बने रहने तक ही स्थिर होती है. मेरा मानना है अधिकतर लोगों की आस्था अनिश्चित जीवन के प्रति भय से ही उत्पन्न होती है.
मेरा आशय किसी की धार्मिक आस्था पर चोट पहुंचाना या उस की खिल्ली उड़ाना नहीं है पर ऐसे लोगों और ऐसी मानसिकता को हतोत्साहित ज़रूर कारण है, जो धर्म को पाखण्ड का पर्याय मानते हैं. अक्सर सोशल मीडिया पर शनिवार के दिन, शनि की और मंगल को हनुमान जी की तस्वीर विभिन्न मुद्रा में शेयर की जाती है. इसमें भी कोई आपत्ति नहीं है, आपत्ति है उन चित्रों के साथ धमकी भरे वाक्यों पर, जिस में लिखा रहता है, शेयर करो और लाइक करो तो यह मिलेगा नहीं तो नुक्सान होगा. हनुमान जी और शनिदेव कब से बाय वन गेट वन वाले मार्केटिंग के इस ट्रिक के माहिर हो गए यह मुझे पता नहीं है पर इस से उन लोगों के आराध्य का मज़ाक ही उड़ता है जो इसे साझा करते है.
क्या ऐसी बातें आस्था को बौनी नहीं बनाती हैं ? यह जिज्ञासा उन से है जो आस्थावान हों या न हों पर स्वयं को आस्थावान दिखाते अवश्य हैं.
-vss.
-vss.
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