Wednesday, 4 December 2019

Ghalib - Kyon gardish e mudaam se / क्यों गर्दिश ए मुदाम से - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 112.
क्यों गर्दिशे मुदाम से घबरा न जाये दिल, 
इंसान हूँ, प्याला ओ साग़र नहीं हूं मैं !!

Kyon gardishe mudaam se ghabraa na jaaye dil, 
Insaan hun, pyaalaa o saaghar nahiin hun main !!
- Ghalib

जब जीवन मे निरन्तर दुःखों के चक्कर लगते रहें तो दिल तो घबरा जाएगा ही, आखिर मैं एक इंसान ही तो हूँ कोई मदिरा की सुराही और प्याला थोड़े ही जो सबके हांथो में चक्कर काटता रहूं ।

ग़ालिब के जीवन का अगर आप अध्ययन करें तो आप पाएंगे कि उनके जीवन मे इतने  हादसे गुज़रें हैं कि यह सोच कर हैरानी होती है कि, कैसे उन्होंने उन तमाम हादसात के बाद इतनी मर्मस्पर्शी नज़्में और ग़ज़लें लिखी। ग़ालिब किसी गरीब परिवार से नहीं आते थे। वे आगरे के एक रईस जागीरदार खानदान से ताल्लुक रखते थे और दिल्ली के आखिरी मुगल बादशाह, बहादुरशाह ज़फ़र के दरबार से जुड़े थे। हालांकि दरबार के शाही कवि ज़ौक़ थे, पर ग़ालिब का भी सम्मान,  उस दरबार मे कम नहीं था । लेकिन वे दरबार के मुसहिबो की आपसी सियासत में भी फिट नहीं बैठ पाते थे। उनका फक्कड़पन और किसी को अपने से, बेहतर न मानने की आदत उन्हें दुश्मन अधिक और दोस्त कम नवाजती थी। इस शेर में वे अपनी ही व्यथा कह रहे हैं कि आखिर वे भी तो, एक मनुष्य ही हैं। दुनिया के रंजोगम, दुख तकलीफें उन्हें भी व्यापती हैं। ज़रूरतें उन्हें भी चिंतातुर बनाये रखती हैं।  घर परिवार के दुःख उन्हें भी सालते हैं। कब तक वे इन दुःखों का बिना घबराए सामना कर सकते हैं ?  

ग़ालिब का निजी जीवन एक दुःखी जीवन था। कभी अर्थाभाव, तो कभी बेटे के बिछुड़ने का गम, कभी पुलिस की हवालात में कैद तो कभी मैजिस्ट्रेट के सामने पेशी। क्या कुछ बाकी रहा ? उनकी शायरी में यह सारा, दुःख अक्सर झलकता भी है। कुछ परिहास और चुहुल के जो अंश मिलते हैं वे ' मुश्किलें इतनी पड़ीं की आसान हो गयी'  कह कर ग़ालिब ने खुद ही उनकी प्रसांगिकता को स्पष्ट कर दिया है। ग़ालिब मूलतः एक दार्शनिक शायर हैं। इनकी रचनाओं में पोशीदा रहस्यवाद, इसे सूफी कलाम के नज़दीक बार बार ले जाता है। वे खुद को कहते भी हैं कि अगर उन्हें शराब पीने की आदत न पड़ी होती तो वे वली यानी पीर होते। 

ग़ालिब के इस शेर से निराला की एक पंक्ति जो उनकी कृति सरोज स्मृति में लिखी है, याद आती है। वह पंक्ति  है,
" दुःख ही जीवन की कथा रही, 
क्या कहूं आज जो नहीं कही। " 
इन महाकवियों के जीवन मे भौतिक सुख भले ही न रहा हो, पर यश पर्याप्त था। ग़ालिब और निराला, अपने अपने समय में अपनी अपनी भाषा के  शीर्षस्थ कवि रहे हैं। दोनों की ही अंदाज़ ए बयानी अलग तरह की रही है। दोनों ही अपनी अपनी भाषा मे क्लिष्ट और गरिष्ठ हैं। स्वाभिमान दोनों में कूट कूट कर भरा है। चाहे रोमांस से भरी रचनायें हो या दर्शन की परतें उधेड़ती पंक्तियां, दोनों ही कथ्य और शिल्प में बेजोड़ हैं। दोनों ही कालजयी हैं। दोनों ही अतुलनीय हैं। 

© विजय शंकर सिंह 

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