हैदराबाद के एक महिला पशु चिकित्सक डॉ रेड्डी की नृशंसता पूर्वक बलात्कार कर के हत्या कर दी गई और उसे जला दिया गया। रात का समय था। वह चिकित्सक अपने घर लौट रही थी। रात में ही उसकी स्कूटी पंचर हो गई। उसने सहायता मांगी पर उसके साथ यह हादसा हो गया। कहते हैं, जब उसके गायब होने को लेकर शिकायत थाने में की गयी तो पुलिस ने कहा कि वह भाग गई होगी। बाद में उसकी स्कूटी और शव मिला। इस जघन्य अपराध में कुल 4 मुल्ज़िम सामने आए हैं। चारो पकड़े गए और पुलिस इस मामले की तफ्तीश कर रही है। चार पुलिसकर्मी भी लापरवाही बरतने के कारण निलंबित कर दिए गए।
हैदराबाद की घटना के पहले आज से सात साल पूर्व दिल्ली में हुयी एक ऐसी ही नृशंस घटना ने दिल्ली ही नही पूरे देश को हिला दिया था। उसे हम निर्भया कांड के नाम से जानते हैं। तब भी सरकार और पुलिस पर बहुत दबाव था, लोग जागरूकता के साथ इस अपराध के खिलाफ खड़े थे। कैंडिल मार्च से लेकर कहीं कहीं हिंसक प्रदर्शन भी हुये। निर्भया के नाम पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये सरकार ने निर्भय फंड के नाम से बजट में धन की व्यवस्था भी की। पर यह अपराध न तो कम हुआ और न ही रुका।
अब कुछ हाल के आँकड़ों पर नज़र डालते हैं। यह सभी आंकड़े निर्भया कांड के बाद के हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, एनसीआरबी जो देश भर के अपराध के आंकडो का संग्रह, विश्लेषण और अध्ययन करता है के अनुसार, 2017 में कुल, 32,559 बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे । एनसीआरबी ने अभी 2018 के आंकड़े विश्लेषित कर के संकलित नहीं किये हैं । इन आंकडो से यह स्पष्ट होता है कि, दिल्ली का निर्भया मामला न तो बलात्कार का पहला केस था, और हैदराबाद की डॉ रेड्डी का मामला न तो अंतिम केस है। आज हम बिल्कुल वैसी ही परिस्थिति से रूबरू हैं जैसी निर्भया केस के समय थे। घटना के बाद से ही लोग विक्षुब्ध हैं। दुःखी हैं। अपनी अपनी समझ से लड़कियों को सलाह दे रहे हैं। कुछ अपना धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडा भी साध रहे हैं। महिलाएं अधिक उद्वेलित हैं क्योंकि वे भुक्तभोगी होती है। पुलिस की अक्षमता, समाज की निर्दयता आदि को लोग रेखंकित कर रहे हैं। पर मेरा मानना है कि जब तक अपराध और अपराधी का महिमामंडन और समाज की असल विकृति की पहचान कर सका निदान नहीं किया जाएगा तब तक यह अपराध कम नहीं होगा।
जब से समाज बना होगा संभवतः अपराध भी तभी से होना शुरू हुआ होगा। अपराध और मानव विकास दोनों ही एक दूसरे से सम्बंधित है। जिसे हमारे धर्मग्रंथ और समाज के बुजुर्ग पाप कहते हैं वह दरअसल अपराध ही तो है। पहला पाप या अपराध तो तभी हो गया जब स्वर्गोद्यान में आदम और हव्वा ने, ईश्वर की चेतावनी के बाद, वर्जित फल चखा और उन्हें खुद के अस्तित्व के बारे में संज्ञान हो गया और वे स्वर्ग से इस पाप या अपराध के लिये बहिष्कृत कर दिए गए। उसकी सज़ा भी उन्हें इसी दुनिया मे आने की दी गयी। यह कथा सेमेटिक धर्मो की सभी मूल किताबों में हैं। बस अंतर वर्जित फल के स्वरूप का है। कहीं इसे सेव कहा गया है तो कहीं गेहूं। तो गुनाह फितरते आदम है। यह कथा यह बताती है ईश्वरीय आदेश का उल्लंघन एक पाप या अपराध को जन्म देता है। यह कथा यह भी बताती है कि पाप हो या अपराध, मस्तिष्क में ही जन्मता है।
समाज जब व्यवस्थित बना तो राज्य, साम्राज्य, गणतंत्र, और तमाम विकास की लंबी यात्रा कर के हम आधुनिक काल मे पहुंचे। जैसे समाज का विकास हुआ वैसे ही राज व्यवस्था, प्रशासनिक तँत्र का भी विकास हुआ और यह प्रक्रिया निरंतर चल रही है। भारत मे प्राचीन और मध्ययुगीन काल में कुछ कानून ज़रूर थे, जिनके दंड का अधिकार अधिकतर समाज को था। राजा की रुचि व्यक्तिगत अपराधों से अधिक राज्य के विरुद्ध अपराधों में रहती थी। समाज अपने अंदर के अपराध को, अपराधियों को जाति बहिष्कृत, धर्म से वंचित और समाज से निष्कासित कर के यथा संभव नियंत्रित करता था। राज्य की अपराध नियंत्रण और दंड विधान में कोई विशेष रुचि नहीं थी। उसकी रुचि राज्य विस्तार और राजतंत्र सुरक्षित रहे इसमें थी। धर्म अक्सर लगभग सभी अपराधों को पाप की श्रेणी में रख कर देखता था। अपराध नियंत्रण का यह एक अलग और तत्कालीन तरीका था।
भारत में व्यवस्थित रूप से आपराधिक न्याय प्रणाली का प्रारंभ 1861 में जब आधुनिक पुलिस व्यवस्था और दंड विधान, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम बने तब हुआ। तब भी इस संहिता में, राज्य के प्रति अपराध पहले रखे गएऔर व्यक्ति से जुड़े अपराध बाद में आये। इन्ही अपराधों में बलात्कार से जुड़ा अपराध धारा 376 आइपीसी का बना जिसमे बाद में संशोधन कर के अन्य उपधारायें जोड़ी गयी। वैसे तो वे सभी अपराध चाहे वे व्यक्ति के विरुद्ध हों या संपत्ति के विरुद्ध मूलतः समाज से ही जुड़े होते हैं पर यौन उत्पीड़न, के अपराध, सामान्य छेड़छाड़ से लेकर सामुहिक बलात्कार तक के उनका असर समाज पर बेहद अधिक और तत्काल पड़ता है। यह अपराध न केवल पीड़ित के घरवालों को ही बल्कि समाज मे जहां जहां तक यह खबर पहुंचती है लोगों को उद्वेलित, आक्रोशित और डरा भी देता है। समाज एक आत्मावलोकन की स्थिति में आ जाता है और उसकी प्रतिक्रिया सरकार, कानून और तंत्र के खिलाफ आक्रामक होती है। चौराहे पर खम्भे से लटका देने क़ी मांगो के साथ साथ बर्बर और मध्ययुगीन सज़ा की मांग होने लगती है। जब कि सबको यह पता है कि अपराध और दंड की अपनी गति है, और वह अपने नियम और कायदों से चलता है। निर्भया कांड के परिणाम से आप इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं।
आज जो आक्रोश आप देख रहे हैं वह कोई पहला आक्रोश नहीं है। 13 अगस्त 2004 को नागपुर में बलात्कार के एक अभियुक्त अकू यादव को 200 महिलाओं की आक्रोशित भीड़ ने पत्थर मार मार कर अदालत परिसर में ही उसे जान से मार दिया था। 1957 में कानपुर में थाना कलक्टरगंज में एक चौकी बादशाहीनाका में एक महिला शांति के बलात्कार के आरोप में भीड़ ने चौकी घेर ली और आग लगा दी। पुलिस को गोली चलानी पड़ी। हिंसक आक्रोश के कई ऐसे उदाहरण देश भर में और भी होंगे। यह बताता है कि जनता में बलात्कार को लेकर बहुत ही आक्रोश उबलता है फिर यह भी सवाल उठता है कि आखिर समाज, लोग और हम बलात्कार या यौन अपराधो से निपटने के लिये अपने ही घर परिवार के युवाओं को उस कुमार्ग पर जाने से रोकने के लिये क्या कर रहे हैं ? हमारा आक्रोश क्या केवल वक़्ती है, दिखावा है, औपचारिक है या केवल भीड़ की मानसिकता से अभिप्रेरित है ?
यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे अपराध की मनोवृत्ति सबसे अधिक पास पड़ोस या घरों में जन्म लेती है। यह पुरुष प्रधान समाज की ग्रँथि है, या विभिन्न कारणों से उत्पन्न यौन कुंठाओ का असर, या संचार माध्यम जैसे अश्लील फ़िल्म, अश्लील साहित्य का दुष्प्रभाव या सबकी अपनी अपनी दृष्टिबोध, या इन सबका मिलाजुला रूप, यह स्पष्ट तो नहीं कहा जा सकता है पर जब एनसीआरबी के आंकडो का विश्लेषण किया गया तो यह तथ्य सामने आया कि, ऐसी घटनाओं में अधिकतर अभियुक्त या अपराधी पास पड़ोस या जानपहचान के ही होते हैं। उपरोक्त बलात्कार की संख्या में 93.1% मामलों में आरोपित की पीड़ित से पहले से पहचान पायी गयी थी। जिन मामलों में आरोप पत्र दिए गए उनका प्रतिशत, 32.2% था। 93.6% बच्चों के विरुद्ध यौन हिंसा के मामलों में आरोपित की पीड़ित से पहले से पहचान थी। 99.1% यौन हिंसा की घटनाओं की रिपोर्टिंग नहीं होती है। पिछले साल जारी हुए नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे, 2015-16 के अनुसार.पहले छह महीने में नाबालिगों के साथ बलात्कार और यौन हिंसा की 24212 मामले दर्ज हुए हैं।
मीडिया में बलात्कार की खबरों को देखकर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर, राज्यों के हाईकोर्ट में दर्ज बलात्कार के मामलों के आंकड़े मंगाए थे। उनके अनुसार, 1 जनवरी 2019 से लेकर 30 जून 2019 तक 24, 212 बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे। ये सभी मामले केवल नाबालिग बच्चों और बच्चियों से संबंधित थे। इसी रिकार्ड को देखें तो 12,231 केस में पुलिस आरोप पत्र दायर कर चुकी थी और 11,981 केस में जांच कर रही थी।
उपरोक्त आँकड़ों से दो बातें तो स्पष्ट है :
● समस्या की विकरालता किस कदर है । सिर्फ 0.9 % मामले रिपोर्ट हो रहे तब यह आँकड़ा है यदि सभी रिपोर्ट हो जाए तो ? क्या हम एक बीमार और यौन-विकृत समाज हो गए है।
● अधिकतर मामलों में अपराधी जान पहचान का ही होता है ।
● 93% मामलों में जबकि हमारा पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि लड़की अकेली घर से बाहर वक्त - बेवक्त न निकले । तो घर के अंदर ज़्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि जानवर वही छिपा है ।
● पुलिस घर, जान पहचान, पास पड़ोस, के ऐसे अपराधियों के बारे में कैसे पता कर सकेगी कि अपराध की पृष्ठभूमि कब बन रही है ? और जब अपराध हो जाता है तो, स्वाभाविक है पुलिस पर उस अपराध को न रोक पाने का दायित्व तो आता ही है।
यहां समाज से अधिक घर, परिवार, और दोस्त मित्र पर नज़र रखने की जिम्मेदारी भी घर, परिवार, और दोस्त मित्र की ही है। अमूमन घरों में अगर ऐसा कुछ होता रहता भी है तो, उसकी खबर घर मे ही कम ही सदस्यों को हो पाती है, पुलिस की तो बात ही छोड़ दीजिए।
कल से यह सलाह दी जा रही है कि बेटियों को जुडो कराटे आत्मरक्षा के उपाय सिखाये जांय। यह सलाह उचित है। लेकिन बेटियों को जिनसे बचना है उन्हें क्या सिखाया जाय ? समाज मे महिलाएं हो या पुरूष अलग थलग नहीं रह सकते हैं। वे मिलेंगे ही। अपने काम काज की जगहों पर, रेल बस और हाट बाजार और अन्य सार्वजनिक जगहों पर। दोनों को ही एक दूसरे के बारे में क्या सोच रखनी है, मित्रता की क्या सीमा रेखा हो, उस सीमारेखा के उल्लंघन का क्या परिणाम हो सकता है, यह न केवल लड़कियों को ही समझाना होगा बल्कि लड़को को यह सीख देनी होगी। हम पीड़ितों को सीख तो दे रहे हैं कि, समय पर घर से निकलो और वापस आओ, चुस्त कपड़े न पहनो आदि आदि, यह करो या यह न करो की एक लंबी सूची भरी आचार संहिता बेटियों को थमा देते हैं, पर बेटों के बारे में शायद इतने अधिक संवेदनशील होकर हम कोई आचार संहिता उन्हें नहीं बताते हैं। बेटियां अक्सर खीज जाती हैं इन सारे उपदेशों से। कारण वे तो कोई अपराध कर नहीं रही है, और जो अपराध का जिम्मेदार है वह न आचार संहिता से बंधा है और न ही उसे उपदेश सुनना पड़ रहा है। पारिवारिक परामर्श या काउंसिलिंग अगर बेटियों के लिये जरूरी है तो वह बेटों के लिए भी उतनी ही ज़रूरी है।
हर स्त्री पुरूष मित्रता बलात्कार तक नहीं जाती है। बल्कि बहुत ही कम। बेहद कम। मर्जी से यौन संबंधों की मैं बात नहीं कर रहा हूँ। मैं बलात और हिंसक बनाये गए यौन सम्बंध की बात कर रहा हूँ। इन सब के बारे में हमें अपने घरों में जहां युवा लड़के लड़कियां हैं इन सब के बारे में, इनके संभावित खतरे के बारे में खुल कर बात करनी होगी। अगर यह आप सोच रहे हैं कि लैंगिक आधार पर दोनों को अलग अलग खानों में बंद कर दिया जाय तो ऐसे अपराध रुक जाएंगे तो यह सोच इस अपराध को बढ़ावा ही देगी। अधिकतर मुक्त समाजो में बलात्कार कम होते हैं क्योंकि वहाँ लैंगिक कुंठा भी कम होती है। सोशल मीडिया और सूचना क्रांति के इस दौर में दुनियाभर में जो भी अच्छा बुरा हो रहा है उससे न हम बच सकते हैं और न ही अपने घर परिवार समाज को बचा सकते हैं। बलात्कार एक जघन्य अपराध है पर बलात्कार का अपराध जिस मस्तिष्क में जन्म लेता है वह घृणित मनोवृत्ति है। अपराध से तो पुलिस निपटेगी ही, पर इस मनोवृति से तो हमे आप और हमारे समाज को निपटना होगा।
एक और महत्वपूर्ण विंदु है कि हम समाज के रूप में अपराध के बारे में क्या सोचते हैं। अब एक और तरह के आंकड़े पर ज़रा नज़र डालें।एडीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब 4,896 चुनाव हेतु दाख़िल किये गए प्रत्याशियों की छानबीन के लिये 4,845 हलफनामों का अध्ययन किया गया तो, ज्ञात हुआ कि, 33 % जनप्रतिनिधियों ने अपने हलफनामे में अपने खिलाफ आपराधिक मुकदमों का उल्लेख किया है। जिन हलफनामों का अध्ययन किया गया है उनमें, 776 हलफनामे सांसदों के और 4,120 राज्यों के विधायकों के हैं। राजनीतिक दलों द्वारा टिकट देने में प्राथमिकता भी उन्ही अपराधियों को दी गई है जो आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं। यह आंकड़े यह भी बताते हैं कि मतदाता ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाने में कोई ऐतराज नहीं करता है बल्कि वह ऐसे लोगों को साहसी, दबंग और मजबूत रहनुमा समझ बैठता है। क्या कारण है कि राजनीति की बिसात पर, अच्छे भले लोग दरकिनार हो रहे हैं, और हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी, मदन भैया, डीपी यादव, वीरेंद्र शाही आदि आदि जैसे लोग, जिनके खिलाफ आइपीसी की गंभीर धाराओं में मुक़दमे दर्ज हैं, अदालतों में जिनकी पेशी हो रही है, और वे अपने अपने जाति, धर्म और समाज के रोल मॉडल के तौर पर युवाओं में देखे जाते हैं ? क्या समाज की विकृत सोच की ओर इशारा नहीं करती है ?
ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओ के लिये एक शब्द है रंगबाज़। यह शब्द बहुत लुभाता है युवा वर्ग को। थोड़ी हेकड़ी, थोड़ी गोलबंदी, कुछ मारपीट, फिर लोगों और कमज़ोर पर अत्याचार, थोड़े छोटे छोटे अपराध, फिर किसी छुटभैये दबंग नेता या व्यक्ति का संरक्षण, फिर बिरादरी या धर्म से जुड़े किसी आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति का आशीर्वाद, थाना पुलिस से थोड़ी रब्त ज़ब्त, दबंग क्षवि के नाम पर छोटे मोटे ठेके और फिर इस कॉकटेल से जो वर्ग निकलता है वही कल कानून, अपराध नियंत्रण और देशप्रेम और समाज सुधार की बड़ी बड़ी बातें करता है।
जब तक संसद और विधान सभाओं से बड़े और गम्भीर आपराधिक मुकदमों में लिप्त, आरोपी नेताओं को पहुंचने से, चुनाव सुधार कानून बना कर, उसे सख्ती से लागू कर, नहीं रोका जाएगा, तब तक अपराध करने की मनोवृत्ति पर अंकुश नहीं लगेगा। ज़रूरत तो ग्राम पंचायत स्तर से शुरुआत करने की है, पर कम से कम हम संसद और विधानसभा स्तर से इसे शुरू तो करें। अपराध करके स्वयं ही आत्मगौरव का भान करने वाला समाज भी हम धीरे धीरे बनते जा रहे हैं। यह इसी महिमामंडन का परिणाम है।
मैं उन अपराधों के बारे में नहीं कह रहा हूँ जो लोग अपने अधिकार के लिये लड़ते हुए आइपीसी की दफाओं में दर्ज हो जाते हैं, बल्कि उन अपराधों के लिये कह रहा हूँ जो गम्भीर और समाज के लिये घातक है । ऐसा ही एक अपराध है बलात्कार। यह अपराध अपनी गम्भीरता में हत्या से भी जघन्य अपराध है। यह पूरे समाज, स्त्री जाति और हम ज़बको अंदर से हिला देता है। हत्या का कारण रंजिश होती है पर बलात्कार का कारण रंजिश नहीं होती है। बलात्कार का कारण, कुछ और होता है। इसका कारण महिलाओं के प्रति हमारी सोच और समझ होती है। उन्हें देखने का नज़रिया होता है। यौन कुंठा होती है।
समाज मे जब तक यह धारणा नहीं बनेगी कि अपराध और अपराधी समाज के लिये घातक हैं तब तक अपराध कम नहीं होंगे और न अपराधी खत्म होंगे। आज हम जिस समाज मे जी रहे हैं वह काफी हद तक अपराध और अपराधी को महिमामंडित करता है। यह महिमामंडन उन युवाओँ को उसी अपराध पथ पर जाने को प्रेरित भी करता है। एक ऐसा समाज जो विधिपालक व्यक्ति को तो मूर्ख और डरपोक तथा कानून का उल्लंघन करके जीने वाले चंद लोगों को अपना नायक और कभी कभी तो रोल मॉडल चुनता है तो वह समाज अपराध के खिलाफ मुश्किल से ही खड़ा होगा।
हैदराबाद के बलात्कार कांड में मुल्ज़िम पकड़े गए हैं। वे जेल भी जाएंगे। उन्हें सजा भी होगी। पर क्या निर्भया और रेड्डी की त्रासद पुनरावृत्ति नहीं होगी ? छेड़छाड़ से बलात्कार तक एक ही कुंठा अभिप्रेरित करती है। बस अपराधी मन और अवसर की तलाश होती है। यह बात बहुत ज़रूरी है कि लड़कियों को सुरक्षित जीने के लिये बेहतर सुरक्षा टिप दिए जांय। उन्हें परिवार में अलग थलग और डरा दबा कर न रखा जाय। उन्हें पूरे पुरूष जाति से डराना भी ठीक नहीं है पर उन्हें उन जानवरों की आंखे, ज़ुबान और देहभाषा पढ़ना ज़रूर सिखाया जाय जिनके लिये स्त्री एक कमोडिटी है माल है।
अक्सर ऐसी बीभत्स घटनाओं के बाद कड़ी से कड़ी सजा यानी फांसी देने की मांग उठती है। सज़ा तो तब दी जाएगी जब मुक़दमे का अंजाम सज़ा तक पहुंचेगा। अंजाम तक मुक़दमा तब पहुंचेगा जब गवाही आदि मिलेगी। गवाही तब मिलेगी जब समाज मानसिक रूप से यह तय कर लेगा कि चाहे जो भी पारिवारिक दबाव अभियुक्त का उन पर पड़े वे टूटेंगे नहीं और जो देखा सुना है वही गवाही देंगे। एक स्वाभाविक सी बात है कि मुल्ज़िम के घर वाले मुल्ज़िम को बचाने की कोशिश करेंगे। यह असामान्य भी नही है। पर अन्य गवाहों को जो उसी पास पड़ोस के होंगे को पुलिस की तरफ डट कर गवाही के लिए खड़े रहना होगा। अदालत केवल सुबूतों पर ही सज़ा और रिहा करती है, यह एक कटु यथार्थ है।
जैसे हम सब हैदराबाद बलात्कार कांड पर आक्रोशित होकर, अपराधियों को ज़िंदा जला देने, सड़क पर लटका कर फांसी देने, लिंग काट देने, सऊदी अरब का कानून लागू करने की मांग कर रहे है और अपनी अपनी कल्पना से कड़ी से कड़ी सजा का अनुसंधान कर ऐसे बलात्कार आगे न हों, के उपाय सुझा रहे है, उसी तरह से संसद में हमारे रहनुमा भी इस मामले में, मुखर और आंदोलित हैं। जया बच्चन ने मुल्जिमों के लिये लिंचिंग जैसे दंड की मांग की है।
लेकिन हम इस जघन्य अपराध बलात्कार के मुल्ज़िम को दंड देने के लिये, जो कड़े से कड़े दंड सुझा रहे हैं वह न तो हमारे कानून की संहिता में है और न आगे कभी शामिल होने की कोई उम्मीद अभी है । बेहतर हो हम कानूनी दंड देने के लिये, पुलिस और अदालती कार्यवाही को शीघ्रता से पूरी होने वाली, सुगम और प्रभावकारी बनाने के लिएं सरकार और संसद से आग्रह करें । फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बने। साक्ष्य अधिनियम में ऐसे संशोधन किए जांय जिससे मुल्ज़िम को निकल भागने की राह न मिले। फैसला समयबद्ध हो। अनावश्यक रूप से बचाव पक्ष को ऐडजर्नमेंट न मिले। आसानी और उदारता से जमानत न मिले। गवाहों की सुरक्षा के लिये कार्यवाही की जाय।
महिलाओं को आत्मरक्षा के अधिकार के बारे में बताया जाय और उनके इस अधिकार को ऐसी परिस्थितियों में कानूनी संरक्षण भी मिले। फांसी की सज़ा का प्राविधान किया जाय और सबसे बड़ी बात है पुलिस, सरकार और मीडिया का यह स्पष्ट स्टैंड रहे कि उसकी सहानुभूति किसी भी दशा में अभियुक्त की तरफ न रहे, जैसा कि महत्वपूर्ण और राजनीति तथा धनवान रसूखदार मुल्जिमों की तरफ अक्सर हो जाता है, और आज भी है।
अगर आप यह समझते हैं कि पांच लाख की आबादी पर नियुक्त पांच दरोगा, पचास सिपाही आप को अपराधमुक्त रख देंगे तो आप भ्रम में हैं। बलात्कार जैसी घटनाएं केवल और केवल पुलिस के दम पर ही, नहीं रोकी जा सकती है। हाँ बलात्कार के बाद मुल्ज़िम तो पकड़े जा सकते हैं, उन्हें फांसी भी दिलाई जा सकती है, पर आगे ऐसी कोई घटना न हो यह जिम्मा कोई पुलिस अफसर भले ही आप से यह कह कर ले ले, कि, वह अब ऐसा नहीं होने देगा तो इसे केवल सदाशयता भरा एक औपचारिक आश्वासन ही मानियेगा। यह संभव नही है। हमे खुद ही ऐसी अनर्थकारी घटनाओं की पुनरावृत्ति से सतर्क रहना होगा औऱ उपाय करने होंगे।
© विजय शंकर सिंह
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