Friday, 27 December 2019

धर्म आधारित राज्य की विडंबना. / विजय शंकर सिंह

जब धर्म आधारित राज्य की ओर देश बढ़ने लगता है तो सबसे अधिक निरंकुश और स्वेच्छाचारी सुरक्षा बल ही होने लगते हैं। क्योंकि जैसे ही कोई देश धर्म आधारित होने के उपक्रम में होता है वैसे ही धर्म आधारित राज्य यानी थियोक्रैटिक सत्ता निरंकुश और अनुदार होने लगती है। जब सत्ता निरंकुश औऱ अनुदार होने लगती है तो वह सेना और सुरक्षा बलों पर खुद को बचाने के लिये धीरे धीरे और निर्भर होने लगती है। उस समय दो प्रतिक्रियाएं होती हैं। 

एक, जनता में सत्ता की लोकप्रियता पहले तो शिखर पर पहुंच जाती है। यह लोकप्रियता राज्य के जनोपयोगी कार्यो के कारण नहीं बल्कि, सत्ता द्वारा उन्माद बढाने वाले एजेंडों के कारण होने लगती है। यह उन्मदावस्था लंबे समय तक नहीं चल पाती है। क्योंकि उन्माद चाहे धर्म का हो या जाति की श्रेष्ठता का, वह लंबे समय जनता को नशे की पिनक में नहीं रख पाता है। क्योंकि रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के मूलभूत मुद्दों से बहुत अधिक समय तक जनता को बहलाया और भरमाया नहीं जा सकता है। यह तिलस्म टूटता ही है। लेकिन जब टूटता है तो देश और जनता बहुत कुछ गंवा चुकी होती है। 
दूसरे,  थियोक्रैटिक राज्य की सेना और सुरक्षा बलों पर बढ़ती निर्भरता, सेना और सुरक्षा बलों को निरंकुश, स्वेच्छाचारी और उसे एक अपरिहार्य दबाव समूह में बदल देती है। वह दबाव समूह इतना अधिक सबल हो जाता है कि सत्ता इसे नियंत्रित तथा अनुशासित करने और इसके विरोध में खड़े होने की बात डर से सोच भी नहीं पाती है। 

सुरक्षा बलों का मूल चरित्र लोकतांत्रिक नही होता है। हो भो नहीं सकता है। क्योंकि यहां अनुशासन सुरक्षा बलों की ट्रेनिंग और धर्मिता का मूल होता है वहीं अनुशासन लोकतंत्र के लिये उतना ज़रूरी नहीं है जितनी कि लोक जागृति ज़रूरी है। सेना और सुरक्षा बलों को इसीलिए राजनीति से दूर रखा जाता है। लेकिन जब सत्ता धर्म के आधार पर अपनी जड़ जमाने लगेगी तो, वह सेना और सुरक्षा बलों का सहयोग अपनी लक्ष्यपूर्ति के लिये करती ही है। 

पाकिस्तान में बार बार लोकतंत्र को पलट कर के सैनिक तानाशाही का सत्ता में आ जाना और फिर लंबे समय तक बने रहना यह बात प्रमाणित करता है। धर्म आधारित राज्य मूलतः तानाशाही ही होते हैं। क्योंकि वे अन्य धर्मों के प्रति स्वभावतः अनुदार होते हैं, और यह प्रवित्ति उन्हें विपरीत धर्मो में स्वाभाविक रूप से अलोकप्रिय बना देती है। वे इस अलोकप्रियता जन्य आक्रोश से सदैव सशंकित रहते हैं, और यही संशय ही उनकी सेना और सुरक्षा बलों पर निर्भरता बढ़ा देता है। पाकिस्तान का 1947 के बाद का इतिहास पढें तो यह स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि जैसे जैसे वहां लोकतंत्र कमज़ोर होता गया, वैसे वैसे सेना, निरंकुश और स्वेच्छाचारी होती गयी। एक आदर्स, उन्नत और प्रगतिशील समाज मे सेना की भूमिका बहुत अधिक नहीं होती है। 

आज जब हम खुद एक धर्म आधारित राज्य बनने का खतरनाक मंसूबा बांध बैठे हैं तो हमे इसके खतरे भी समझना चाहिये। धर्म, ईश्वर, उपासना के तऱीके, आध्यात्म, आदि बुरे नहीं है। बुरा है इनका राजनीति में घालमेल, जो समाज को इतने अधिक खानों में बांट देता है कि वही धर्म जो कभी मानव ने खुद की बेहतरी के लिये कभी गढ़ा था एक बोझ लगने लगता है। संसार का कोई धर्म बुरा नहीं है, बुरा है धर्म का उन्माद, धर्म के श्रेष्ठतावाद का नशा। 

© विजय शंकर सिंह 

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