सीबीआई, बोफोर्स में मामले में पुनः अपील दायर करने जा रही है। बोफोर्स भारत का वाटरगेट कांड रहा है। अमेरिका के सत्तर के दशक में वाटरगेट कांड ने दुनिया के सबसे ताकतवर संवैधानिक प्रमुख अमेरिकी राष्ट्रपति को पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। अमेरिका का राष्ट्रपति अपने देश के संविधान में प्रदत्त अधिकारों के अनुसार विश्व का सबसे ताकतवर राष्ट्रपति होता है। पर उसे भी वाटरगेट कांड में पद त्याग करना पड़ा। बोफोर्स के कारण किसी ने पद तो नहीँ छोड़ा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ऐतिहासिक बहुमत के बाद में अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में अस्थिर हो गए थे और फिर उन्हें चुनाव हारना पड़ा । बोफोर्स के ही कारण वीपी सिंह को सत्ता मिली थी।
लेकिन उस बोफोर्स कांड में सत्य क्या है इसका कुछ पता भी नहीं चला। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे भूरे लाल के नेतृत्व में एक जांच कमेटी भी बनी थी और सीबीआई जांच भी हुयी पर सत्य का पता नहीं चला तो नहीं चला। यह भी आरोप लगा कि इटालियन व्यापारी क्वात्रोची इस घूस कांड का मुख्य सूत्रधार था पर उसका भी कुछ नही पता लगा। यह भ्रष्टाचार का पहला मामला था जिसमे प्रधानमंत्री पर सीधे आरोप लगा था। अब जब सीबीआई दुबारा इस मामले को खोल रही है तो उम्मीद की जानी चाहिये कि उसके पास इस मामले से जुड़े पुख्ता सबूत होंगे या वह इस आशा में है कि वह आवश्यक सुबूत जुटा लेगी। अगर बोफोर्स का खुलासा होता है तो यह खुशी की बात होगी। कानून की सर्वोच्चता ज़रूरी है।
एक आरोप ज़रूर लगेगा कि सीबीआई इस मामले को इस लिये खोल रही है कि इस मामले में गांधी परिवार की लिप्तता है। यह कहा जायेगा कि यह एक प्रकार का राजनीतिक प्रतिशोध है। यह आरोप नया नहीं है। लगभग 15 सालों तक संसद का हर अधिवेशन बाधित हुआ और खुल कर आरोप लगे। पर वे साबित नहीं हुये। आरोप जब तक साबित नहीं हो तब तक उनका कोई मतलब नहीं है। सीबीआई इस प्रकरण को पुनः खोलना चाहे तो खोले। उसके परिणाम की प्रतीक्षा सबको रहेगी ।
सीबीआई के दुरुपयोग के आरोप सरकारों पर पहले से ही लगते रहे है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को भरी अदालत में पिंजड़े वाला तोता कह दिया था। मज़े की बात जब पत्रकारों ने तत्कालीन सीबीआई निदेशक से यह पूछा कि सीबीआई को अदालत ने पिंजड़े वाला तोता कहा है और आप की क्या प्रतिक्रिया है तो सीबीआई प्रमुख सिन्हा ने कहा कि अदालत ने सही कहा है। यह नहीं पता यह स्वीकारोक्ति सवाल जवाब टालने की गरज से की गयी थी या सीबीआई प्रमुख का क्षोभ था। बाद में वही सीबीआई प्रमुख एक पक्ष को विवेचना में लाभ देने के आरोप में घिर गए।
ऐसा ही आरोप सीबीआई के एक अन्य निदेशक राकेश सिन्हा पर भी लगा है कि उन्हें प्रधानमंत्री का कृपापात्र होने के कारण सभी प्रचलित कानूनों और परम्पराओं को ताख पर रख कर सीबीआई में लाया गया है। इस पर सुप्रीम कोर्ट में प्रशांत भूषण ने एक याचिका भी दायर कर रखी है।
यह सारे उदाहरण यह बतलाने के लिये पर्याप्त हैं कि सीबीआई पर कोई भी सरकार हो अपना नियंत्रण ज़रूर रखना चाहती है। यह भी लोग कह सकते है कि इसमें आपात्तिजनक क्या है ? कानून लागू करने वाली एजेंसियां सरकार के अधीन नहीं रहेगी तो किसके अधीन रहेंगी ? आखिर सरकार, सर कार है। लेकिन यह आपात्तिजनक है। सरकार भी किसी न किसी नियम और कानून के अंतर्गत चुनी गयी है और उसी नियमों के अंतर्गत काम करने के लिये बाध्य भी है। इसी प्रकार, जांच और विवेचना आदि के लिये निर्धारित प्रक्रिया, अधिकार और कानून बहुत स्पष्ट है। जहां तक पुलिस विवेचना का सवाल है , सीआरपीसी जिसके प्राविधानों से पुलिस को विवेचना करने की शक्तियां मिलती हैं वह स्पष्ट रूप से विवेचना के दौरान किसी भी विवेचक को किसी अन्य के दखल से महफूज़ रखता है। यहां तक कि विधि के मामले में सर्वशक्तिसम्पन्न सुप्रीम कोर्ट भी विवेचना के दौरान दखल नहीं देता है। विवेचना के समय यह सुरक्षा केवल इस लिये पुलिस को दी गयी है कि विवेचना, निष्पक्ष, बिना किसी पूर्वाग्रह के और विधिसम्मत हो सके। पर सरकार और सरकारी दल के लोग चाहे वे किसी के दल के हों हस्तक्षेप करते ही रहते हैं। यहां पुलिस सरकार के अधीन होते हुये भी सरकारी काम काज के दौरान सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखी गयी है । केरल के एक डीजी पुलिस शिवकुमार के केरल सरकार द्वारा डीजी के पद से हटाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका के निस्तारण के समय जो निर्णय अदालत ने दिया उसमे सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कहा कि पुलिस अपने काम काज के मामलों में विधि के अधीन और विधि के अनुसार चलने के लिये बाध्य है। वह सरकार और सरकारी दल के राजनैतिक एजेंडा पर चलने के लिये बाध्य नहीं है।
अभी मुम्बई के मृत सीबीआई जज लोया का प्रकरण ज्वलंत है। सीबीआई जज लोया भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की संदिग्ध लिप्तता से घिरे एक हत्या के मामले की सुनवाई कर रहे थे कि अचानक उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। आरोप है कि उनकी हत्या की गयी। उनके स्थान पर जिस जज को वही मुक़दमा सुनवायी के लिये मिला उन्होंने जल्दी से अमित शाह की बरी कर दिया और आनन फानन में उस मामले में सीबीआई ने बड़ी अदालत में अपील करने से मना कर दिया। अब एक याचिका और दायर हुयी है कि सीबीआई को यह निर्देश दिया जाय कि वह इस मामले में अपील दायर करे। उसकी भी सुनवाई चल रही है । जज लोया के संदिग्ध मृत्यु के कारणों की जांच के लिये भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर है। सुनवाई चल रही है।
होना तो यह चाहिये था कि, सीबीआई तुरन्त नियमानुसार सीबीआई जज के अमित शाह को बरी करने के मामले के विरुद्ध हाई कोर्ट में अपील दायर करती। पर जब यह मामला जान बची और लाखों पाये जैसा दिख रहा है तो वह सत्ता के सर्वशक्तिमान व्यक्ति के खिलाफ भला अपील कैसे दायर कर सकती है ? सीबीआई ने अपील को बस्ता ए खामोशी में ही नहीं बल्कि निर्लज्जतापूर्वक यह कह कर कि अपील की कोई आवश्यकता नहीं है यह मामला बन्द कर दिया। जब कि एक सामान्य से हत्या के मामले में भी सीबीआई या पुलिस उच्चतर अदालतों में अपील दायर करतीं हैं। यह प्रकरण सीबीआई की कार्यकुशलता और उसकी साख पर एक आघात है। पर साख की चिंता किसे है ? यह जांच एजेंसी का खुला दुरुपयोग है। यह किसी से छुपा भी नहीं है। इसीलिये जब भी कोई राजनीतिक व्यक्ति से जुड़ा कोई अपराधिक मामला सीबीआई के पास जाता है तो यह माना जाने लगता है कि या तो यह मामला सीबीआई के पास किसी को फंसाने के लिये भेजा गया है या बचाने के लिये। सीबीआई को खुद ही इस स्थापित हो रही दुःखद अवधारणा से निकलना होगा। नौकरशाही को सत्ता के नज़दीक पहुंचने की ललक के ठकुरसुहाती परम्परा से हटना ही होगा। अन्यथा विधि का विधि सम्मत शासन एक मृगमरीचिका ही साबित होगा।
© विजय शंकर सिंह
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