Wednesday, 28 February 2018

श्रीदेवी की राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

श्रीदेवी चली गयी। वही जहां से सब आते हैं और जहाँ सब चले जाते हैं। मृत्यु दुःखद होती ही है। उनकी मृत्यु पर उनको चाहने वालों को दुख है और यह स्वाभाविक भी है।पर एक सवाल उनकी अंत्येष्टि को ले कर उठ रहा है कि उनका राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि क्यों की गयी ? खबरों से पता चलता है महाराष्ट्र सरकार ने राजकीय सम्मान की घोषणा की थी। सरकार की इस घोषणा पर कोई ऐतराज नहीं है क्योंकि यह सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है कि वह किसे राजकीय सम्मान दे और किसे न दे। लेकिन सरकार के इस निर्णय पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि श्रीदेवी को क्यों यह प्रोटोकॉल दिया गया ?

देश मे सबसे पहली बार राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार की घोषणा महात्मा गांधी के लिये की गयी थी। तब तक अंतिम संस्कार के राजकीय सम्मान का प्रोटोकॉल और दिशा निर्देश नहीं बने थे। पहलीं बार एक निर्देश 1950 में बना, और तब यह सम्मान केवल प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्रीगण, केन्द्रीय मंत्रिमंडल के वर्तमान और भूतपूर्व सदस्यगण, के लिये ही था। यह नियम सरदार बल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के पहले ही बना था। सरदार का भी अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से हुआ था। फिर इस सूची में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, उपसभापति राज्यसभा , ( वर्तमान और भूतपूर्व ) भी जोड़े गए। इसके बाद राज्यो को अपने अपने राज्यों में राज्यपाल, मुख्यमंत्री, और मंत्रिमंडल के सदस्यों ( वर्तमान और भूतपूर्व ) के अंतिम संस्कार को भी राजकीय सम्मान से करने की अनुमति दे दी गयी।

1972 में इलाहाबाद में स्वतंत्रता सेनानियों का एक बृहद सम्मेलन आयोजित हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस सम्मेलन का उद्घाटन किया था। उसी सम्मेलन में स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र दिया गया और उन्हें भी उनकी मृत्यु होने पर राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किये जाने का आदेश दिया गया। अभी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानियों का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किया जाता है। हालांकि अब स्वतंत्रता सेनानी बहुत कम ही ज़ीवित होंगे। तभी उनके आश्रितों को सरकारी सेवा में कुछ आरक्षण देने का भी निर्णय हुआ । लेकिन यह आरक्षण उत्तर प्रदेश में तो लागू है पर अखिल भारतीय स्तर पर लागू नहीं है।

सेना में कर्तव्य पालन के दौरान होने वाली मृत्यु पर भी राजकीय सम्मान दिया जाता है। पर इसे सैनिक सम्मान कहते हैं। युद्ध के दौरान होने वाली मृत्यु और अन्य कर्तव्य पालन के दौरान होने वाली मृत्यु में भी अंतर है। जब तक सरकार युद्ध की घोषणा न कर दे तब तक अगर कोई सैनिक कर्तव्य पालन में मरता है तो, उसे युद्ध के नियमों के अनुसार शहीद नहीं माना जाता। युद्ध के दौरान होने वाले शहीदों और युद्धबंदियों के लिये जेनेवा कन्वेंशन के प्राविधान लागू होते है। उनके वीरता पदक भी, वीर चक्र, महावीर चक्र, और परमवीर चक्र अलग होते हैं जब कि अयुद्ध काल मे वीरता के लिये अशोक चक्र का प्राविधान है। पुलिस सेवाओं में पुलिस जन की कर्तव्य पालन में हुयी मौतों को भी राजकीय सम्मान देने की परंपरा है।

राजकीय सम्मान से होने वाले अंतिम संस्कार के सारे बन्दोबस्त राज्य सरकार करती है। शव को अंत्येष्टि स्थल तक ले जाने और अंतिम संस्कार का सारा कर्मकांड सरकार के ही खर्चे पर होता है। शव को राष्ट्रीय ध्वज से सम्मान पूर्वक ढंका जाता है और ठीक अंत्येष्टि के पूर्व सम्मान पूर्वक आर्म्ड गार्ड की सलामी और लास्ट पोस्ट की धुन के बाद सम्मान पूर्वक शव से हटा लिया जाता है।

बाद में राजकीय सम्मान में एक प्राविधान यह जोड़ा गया कि, उपरोक्त महानुभाओं के अतिरिक्त राज्य सरकार अपने विवेक से जिसे चाहे उसे यह सम्मान दे सकती है। ऐसा विवेकाधिकार राज्य और केंद्र सरकार को इस लिये दिया गया कि कुछ महानुभाव बिना किसी पद पर रहे भी देश और राज्य के लिये सम्मनित रहे हैं और उनका योगदान भी अपने अपने क्षेत्रों में कम नहीं रहा है भले ही वे सार्वजनिक जीवन से दूर और एकाकी रहे हों। उनका योगदान समाज औऱ देश के लिये किसी भी पदधारक बीआईपी से कम नहीं होता है। इसी लिये नियमों को शिथिल कर के विशेष परिस्थितियों में राजकीय सम्मान प्रदान करने का अधिकार सरकार को दिया गया। सरकार का यह मानना है कि,  यह सरकार का विवेक और विषेधाधिकार है कि वह यह अपने विवेक से यह निर्णय ले कि राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि मृतक महानुभाव की सामाजिक हैसियत और देश के प्रति उसके योगदान को देखते हुये दे। इस विवेकाधिकार / विशेषाधिकार का प्रयोग मुख्यमंत्री अपने वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों की सलाह से करता है और फिर इसके आदेश सम्बंधित जिला मैजिस्ट्रेट और पुलिस प्रमुख को भेजे जाते हैं जो इसका अनुपालन करते हैं।

राजनीतिक क्षेत्रों के अतिरिक्त जिन महत्वपूर्ण लोगों को यह सम्मान दिया गया है उनमें ये नाम प्रमुख है। मदर टेरेसा (1997)
पूर्व मुख्य न्यायाधीश भारत, न्यायमूर्ति वाय वी चंद्रचूड़ (2008), गंगूबाई हंग़ल (2009), भीमसेन जोशी (2011) सत्य साईं बाबा ( 2011), बाल ठाकरे (2012), सरबजीत सिंह (2013), मार्शल ऑफ द एयरफोर्स अर्जन सिंह (2017)। यह सूची और लंबी है। मैने कुछ ही नामों का उल्लेख किया है।
मदर टेरेसा को यह सम्मान उनके सेवा कार्यो के लिये सत्य साईं बाबा को उनकी आध्यात्मिक हैसियत के लिये दिया गया था। श्रीदेवी को भी महाराष्ट्र सरकार ने राजकीय सम्मान इसी विवेकाधिकार के अंर्तगत दिया है। सरकार ने जनता में श्रीदेवी की लोकप्रियता को इस सम्मान का मापदंड बताया है।

विषेधाधिकार एक असामान्य प्राविधान है जो असामान्य परिस्थितियों में ही सरकार या किसी अधिकारी को यह अधिकार देता है कि वह अपने विवेक से युक्तियुक्त निर्णय ले। पर सामान्यतया ऐसे विशेष प्राविधान का दुरुपयोग भी होता है। शासन में हर परिस्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती है। कभी न कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जब कि उस से निपटने के लिये कोई भी प्राविधान कानून की किताब में नहीं होता है। तब प्रशासक परम्पराओं का दराज खंगालता है और सबसे उपयुक्त और तार्किक परम्परा को ढूंढ कर समस्या का समाधान करता है। जब परम्पराएं भी नहीं मिलती हैं तो विवेक से ऐसा निर्णय लेता है जो उसी समय और परिस्थिति के लिये उसे उपयुक्त लगता है। बाद में फिर उसी परिस्थिति से निपटने के लिये कानून बनता है । फिर भी कानून में ही यह विवेकाधिकार / विशेषाधिकार रखा जाता है जो असामान्य परिस्थितियों के लिये होता है। विशेषाधिकार जिसे अंग्रेज़ी में डिस्क्रिशन कहते हैं वह कोई नियम नहीं होता बल्कि समस्या के समाधान के लिये एक अपवाद स्वरूप प्राविधान होता है।

अब यह सरकार और उस अधिकारी का, जिसे यह विवेकाधिकार प्राप्त है का दायित्व है कि वह अपने विवेक का युक्तियुक्त प्रयोग करें, जिस से विवेकाधिकारों पर कोई विवाद उत्पन्न न हो।

© विजय शंकर सिंह 

Monday, 26 February 2018

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक नज़्म - कोई आशिक किसी महबूब से / विजय शंकर सिंह

याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का

जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है

गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र

दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके

तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!
( फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
***
#vss

Thursday, 22 February 2018

दिल्ली के मुख्य सचिव की आआपा के विधायकों द्वारा पिटाई - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

दिल्ली के मुख्य सचिव की पिटाई बेहद निंदनीय है और शर्मनाक भी। जो भी इस घटना में शामिल हों, उन्हें तत्काल हिरासत में ले कर उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिये। दिल्ली पुलिस ने कुछ गिरफ्तारियाँ की भी है। यह घटना दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की उपस्थिति में हुयी है। यह और भी शर्मनाक है। अगर उनकी भी सहमति मुख्य सचिव से मार पीट करने में रही है तो उनके खिलाफ भी कार्यवाही की जाय।

लेकिन ऐसी स्थिति आयी ही क्यों ? यह भी पहलीं बार है कि चीफ सेक्रेटरी स्तर का कोई बड़ा अफसर पहली बार बदतमीज और गुंडे विधायकों के हांथो पिटा हो। लेकिन देश भर में अक्सर कहीं न कहीं, कभी न कभी, कोई न कोई, सरकारी विभागों के छोटे अफसर इन विधायकों के हांथो पिटते रहते हैं। यहां तक कि पुलिस भी। इस अराजक स्थिति पर कभी भी बड़े अधिकारियों के संगठन या संघो ने सरकार से मिल कर एतराज़ नहीं जताया है। फिरोजाबाद में एक पुलिस कप्तान को तत्कालीन सत्ताधारी दल के रसूखदार गुंडो ने पीटा, एक भी आवाज़ विरोध की नहीं उठी थी तब । जब राजनीतिक दलों में पार्टी के प्रमुख पर जिलाबदर और हत्याकांड में संदेही जैसे फ़र्ज़ी नेता काबिज़ होते रहेंगे तो यह स्थिति आनी ही है। अभी औऱ भयावह परिणामों के लिये तैयार रहिये।

अशोक खेमका हरियाणा कैडर के आईएएस अफसर हैं। उनका यह ट्वीट पढें,

IAS associations' support for Delhi Chief Secretary is an appreciable digression from usual stony silence. They should also speak up on more pressing national issues which affect general populace directly.
#AshokKhemka

अशोक जी का यह ट्वीट आईएएस एसोशिएसन की उस प्रतिक्रिया पर है जो इसने दिल्ली चीफ सेक्रेटरी की पिटाई पर , पिटाई के विरोध पर की गयी थी। अशोसिएसन की प्रतिक्रिया गलत नहीं है और हम सब उनकी प्रतिक्रिया के साथ हैं। पर क्या कभी आईएएस संघ ने अपनी अंतरात्मा नौकरशाही की हो रही दुर्गति पर भी टटोली है ? विभिन्न विभागों के अफसर सरकारी काम काज के दौरान नेताओं और गुर्गों के हांथो पिटते रहे हैं पर कभी यह व्यथा सरकार तक इस शीर्ष नौकरशाही के संघ ने पहुंचायी है ? नौकरशाही संविधान और नियम कानूनों के प्रति प्रतिबद्ध है न कि किसी व्यक्ति के प्रति।  आभिजात्य परम्परा और स्टील फ्रेम के अतीत मोह की पिनक में पड़े पड़े नौकरशाही का यह सिरमौर तन्त्र कब जंग से कबाड़ की ओर अग्रसर हो गया पता ही नहीं चला। कभी किसी भी सरकारी सेवा संघ ( में ट्रेड यूनियन की बात नहीं कर रहा हूँ ) ने अपने कैडर के उन अफसरों का मुद्दा उठाया है जो केवल अपनी नियमों के प्रति प्रतिबद्धता के कारण राजनीतिक आकाओं को रास नहीं आते हैं और उनका उत्पीड़न झेलते हुए अस्पृश्य हो जाते हैं ? महीनों नहीं सालों तक निलंबित या उपेक्षित जिसे हम पनिशमेंट पोस्टिंग के नाम से जानते हैं , पर पड़े हुये समय काटते रहते हैं। यह बात केवल आईएएस संघ की ही नहीं है बल्कि पुलिस में तो और भी हैं। जहां तक अधीनस्थ पुलिस सेवा की बात है वहां तो स्थिति भयावह है। आईएएस सेवा संघ को देश की नौकरशाही का सिरमौर होने के कारण, नौकरशाही में घुस रही बेमतलब की राजनीतिक दखलंदाज़ी और राजनीतिक व्यक्तियों की गुंडागर्दी के खिलाफ खुल कर आवाज़ उठानी चाहिये और सरकार को यह व्यथा बतानी भी चाहिये। नहीं तो नौकरशाही का काम करना मुश्किल हो जाएगा।

इस लघुलेख के फेसबुक पर पोस्ट होने के बाद जो कमेंट्स प्राप्त हुये,  उनमें मेरे मित्र और पूर्व आईएएस अधिकारी हरिकांत त्रिपाठी जी का यह कमेंट प्राप्त हुआ। मैं इस अच्छी टिप्पणी को इस लेख के साथ जोड़ रहा हूँ। हरिकांत जी ने कम शब्दों और बेहद प्रभावोत्पादक शैली में नौकरशाही के रोग की पहचान कर ली है ।

" व्यवस्था टूटकर ध्वस्त हो जाने के कगार पर पहुँच रही है और मुख्य सचिव का पिटना और वह भी मुख्य मंत्री के घर पर उनकी उपस्थिति में पिट जाना व्यवस्था के पतनोन्मुख होने के अनेक लक्षणों में से मात्र एक लक्षण है |
            राजनीतिज्ञों का सरकारी सेवकों से संविधानेत्तर अपेक्षायें रखना और सरकारी सेवकों का तुच्छ फायदे के लिए झुकने की अपेक्षा पर साष्टांग दण्डवत् मुद्रा में आने को तैयार रहना इस बीमारी का मूल कारण है | जो स्वभावतः व्यवस्था विरोधी हैं या ध्वस्तमान व्यवस्था में अपना स्वार्थी मक़सद हासिल करना आसान पाते हैं उन्हें इससे खुश होना स्वाभाविक है और वे अपने मूढ़तापूर्ण तर्क से इसे नजरअंदाज करने अखवा सही साबित करने की कोशिश करेंगे ही पर आमजन जो देश में सफल और जनहित वाली लोक व्यवस्था को बचाना /बनाना चाहते हैं उन्हें निरन्तर संघर्ष कर इस पतनशीलता का मुँह मोड़ देना होगा | "

मैं हरिकांत जी के इस टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ।

© विजय शंकर सिंह

बीएचयू में गोडसे - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में गोडसे पर एक नाटक हुआ है और उस नाटक में गांधी हत्या का औचित्य साबित किया गया है। ऐसे नाटकों के मंचन के रोके जाने के पक्ष में मैं नहीं हूं। क्यों कि गोडसे ने जिस महामानव की हत्या की थी, उसके विचार ऐसे हज़ारों नाटक मंचन कर के खत्म नहीं कर सकते हैं। यह वही मधुर मनोहर अतीव सुंदर परिसर है जहां 1916 की वसन्त पंचमी के दिन, महात्मा गांधी एक विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। आज एक सदी के बाद जब उनके हत्यारे के कृत्य का मंचन हुआ और जब इस पर बीएचयू के डीन ऑफ स्टूडेंट्स से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमे सभी महापुरुषों को याद करना चाहिये। तो महामना के परिसर में गोडसे को याद किया गया । गोडसे एक रोल मॉडल हैं।

रोल मॉडल के अभाव में उन्हें तलाश एक रोल मॉडल की हैं। इसी लिये कभी गोडसे में, कभी शम्भू रैगर में तो कभी किसी न किसी अपराधी में वे रोल मॉडल ढूंढ रहे हैं। रोल मॉडल की तलाश कचरे के डिब्बे में हो रही है। कचरा यानी इतिहास का उच्छिष्ट। इतिहास जिन्हें झटक कर फेंक चुका है। डस्टबिन में गंधाते कचरे के ढेर में जब कभी बहुत उत्कंठित होते हैं उतर कर अपने रोल मॉडल खोजने लगते हैं। कभी कभी अचानक भगत सिंह से वे प्यार करने लगते हैं। पर जब घुसते हैं उस शहीद ए आज़म के जेहन में तो बिलबिला कर बाहर निकल आते हैं। वो ताब और वो आग जो भगत सिंह में सिमटी हैं उसे ये कहाँ सह पाएंगे।

फिर इनकी तलाश खत्म होती है सुभाष बाबू पर। पर जैसे ही इन्हें पता चलता है कि सुभाष तो वामपंथी विचारधारा से प्रभावित है। उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल फॉरवर्ड ब्लॉक दरअसल कांग्रेस के समाजवादी आंदोलन का एक हिस्सा था। बस जहां लाल परचम दिखा, बिदकना शुरू।

फिर ये पकड़ते हैं सरदार पटेल को। लेकिन सरदार तो सरदार थे। वे नेहरू तो थे नहीं। लौह इच्छा शक्ति और स्पष्ट चिंतन वाले। उन्होंने आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया और गोलवलकर को जो चिट्ठी लिखी वह आज तक इनके विचारक राकेश सिन्हा को अपच किये हुये है। पटेल तो इन्हें इस लिये पसंद थे कि, उनका नेहरू से कुछ मामलों में मतभेद था। इसीलिए अब भी वे पटेल के साथ भी ये कभी नीम नीम कभी शहद शहद जैसे ताल्लुकात रखते हैं।

अब कहाँ से लाएं ये रोल मॉडल। हेगड़ेवार और गोलवलकर ज़रूर हैं। पर उनके बारे में कुछ बोलते भी नहीं। न तो बंच ऑफ थॉट जिसका हिंदी अनुवाद विचार नवनीत है, के बारे में और न ही 1940 से ले कर 46 तक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जिन्ना से यारी, और अंग्रेज़ों से दोस्ती के बारे में। फिर क्या करें ।

रोल मॉडल भी इन्हें गांधी का विरोधी चाहिये। गाँधी के सिद्धांतों का खूब विरोध हुआ है। वे मुझे भी काल्पनिक आदर्शवाद की तरह लगते हैं। वे यूटोपिया हैं। पर इन सब के लिये उन्हें गांधी का जीवन और दर्शन पढ़ना पड़ेगा। पर जब पढ़ने से बैर हो तो क्या किया जाय। जब किसी के विचार भयभीत करने लगें और जब उन विचारों की कोई तार्किक काट न हो तो, उसी आदमी को ही काट दो, जिसके विचार से भयाक्रांत हो। फिर गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। और एक नया रोल मॉडल मिल गया, नाथूराम गोडसे।

लेकिन जैसे ही कहिये कि गोडसे आरएसएस का था, तो तपाक से डिनायल मोड़ में आ जाएंगे कि वह तो हमारा नहीं था, हमने उसे निकाल दिया था। हद यह है कि राकेश सिन्हा ने टीवी डिबेट पर यह तक कह दिया कि वे बंच ऑफ थॉट जो संघ की गीता कही जाती है, को भी नकार दिया। यह गैरजिम्मेदारी की पराकाष्ठा है। अब वे गोडसे की मैंने गांधी वध क्यों किया को पढ़ रहे हैं, तालियां बजा रहे हैं, कुर्सियों पर महामना के प्रांगड़ में उछल रहे हैं। अपनी चचेरी बहन के बलात्कारी शम्भू रैगर में धर्म ध्वजा ढूंढ रहे हैं। यह कौन सी संस्कृति है, यह तो वही जानें।

© विजय शंकर सिंह

Friday, 9 February 2018

नेहरू को छोड़ कर, थोड़ा वर्तमान में भी झांकिये सरकार / विजय शंकर सिंह

सरकार को अगर नेहरू के अध्ययन से फुरसत मिल गयी हो तो थोड़ा सीमा और देश के अंदरुनी हालात पर भी देख लें ।

* डोकलां में सड़क और पुख्ता कैम्प बनाने के बाद चीन ने वहां आगे बढ़ कर और टेंट लगा लिये हैं।

* मालदीव में आंतरिक उथल पुथल है और भारत की उदासीनता के कारण चीन वहां अपनी पकड़ मजबूत बना रहा है।

* श्रीलंका में भी उसके नौसैनिक अड्डे बन रहे हैं।

* नेपाल तो हमसे रूठ ही गया है। वह अब खुद को चीन के अधिक निकट पा रहा है। यह भी पहली बार ही है कि नेपाल और चीन दोनों ही साझा सैन्य अभ्यास कर रहे हैं।

* पाकिस्तान तो कमोबेश उसका एक उपनिवेश बन ही रहा है।

* कश्मीर में सेना के कैम्प पर आज फिर हमला हुआ है और 2014 से अब तक पूर्ववर्ती कालों की तुलना में बाद सबसे अधिक सैनिकों को दुश्मन देश ने मारा है। नागरिक भी मरे हैं। यह भी सही है कि आतंकी भी मरे हैं। पर खुद को शहीद कर के दुश्मन को मारना कोई अच्छी सैन्य रणनीति नहीं मानी जाती। दुश्मन का अधिक से अधिक और अपना कम से कम नुक़सान हो यही मान्य और स्थापित सैन्य नीति रही है।

* सरकार और सरकार के समर्थक मानें या न माने, चाहे मामला आर्थिक नीति का हो, या सीमा तनाव का, या विदेश नीति का या आंतरिक सुरक्षा का, या संवैधानिक संस्थाओं के सम्मान और गरिमा का हर तरफ से संकेत उतने उत्साहवर्धक नहीं हैं जितने 2014 में सरकार से उम्मीदें थीं और जितने सुनहरे सपने दिखाए गए थे।

कश्मीर और चीन की समस्या के लिये अक्सर नेहरू को दोषी माना जाता है। बिना किसी बहस में पड़े और नेहरू के बचाव में एक भी शब्द न कहते हुये, उन पर लगा यह आरोप स्वीकार भी कर लिया जाय तो भी, मेरा यह कहना है कि उस लकीर को पीटने से क्या लाभ जो अब अतीत बन गया है। सरकार नेहरू का पुनर्मूल्यांकन या जांच कमेटी या इतिहास लेखन के लिये नहीं चुनी गयी है बल्कि उन समस्याओं के निदान के लिये बनी है जो हमारे सामने है। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है। कोई भी शासक त्रुटिहीन नही होता है। नेहरू भी अपवाद नहीं थे।

9 फरवरी की रात कहते हैं कि अफजल गुरु जो कश्मीरी आतंकी था का एक जश्न मनाया जा रहा था। यह भी कहा गया कि उस दिन ' भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह का नारा भी कुछ लोगों ने लगाया था। बहुत शोर मचा था। पूरा विश्वविद्यालय ही देशद्रोही करार दे दिया गया । यह नारा सच मे देशद्रोही था , है और रहेगा। तीन छात्र गिरफ्तार किये गये। कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान। उनकी गिरफ्तारी भी हुयी। देशद्रोह का मुक़दमा भी चला। अब तीनों जमानत पर है। मुक़दमा अभी भी जेरे तफ़्तीश है। घटना की वीडियो है। गवाह भी हैं। मुल्ज़िम भी है। पर आज तक चार्जशीट पुलिस दाखिल नहीं कर पायी। क्यों ? यह सरकार जाने।

पंद्रह बीस दिन पहले एक टीवी चैनल पर डिबेट के दौरान कश्मीर के दूसरे बड़े मुफ़्ती ने खुले आम देश के बंटवारे की मांग धार्मिक आधार पर की, खूब बावेला मचा पर कश्मीर और देश मे एक ही दल भाजपा की सरकार रहते हुये भी मुफ़्ती के खिलाफ न तो कोई कार्यवाही हुयी और न ही कोई मुक़दमा कायम किया गया।
यह कैसी देशभक्ति है मित्रों ?

रहा सवाल #जवाहरलाल_नेहरू का तो उनकी कितनी भी आलोचना कर ले अब उनका तो कुछ बनना बिगड़ना नहीं है। उल्टे 2014 के बाद उनकी किताबों की बिक्री विशेषकर Discovery Of India की, दसगुना अधिक बढ़ गयी है। उनका पाठक वर्ग जितना भारत मे नहीं है उससे कहीं अधिक पश्चिमी देशों में है। नेहरू पर इस चर्चा से एक बदलाव यह भी आया है कि जो कभी नेहरू इंदिरा के नीतियों के आलोचक थे वे भी अब उन्हें कभी कभी सराहने लगे हैं। क्यों कि मूल्यांकन सदैव सापेक्ष होता है। आइंस्टीन वास्तविक विज्ञान में ही नहीं बल्कि समाज विज्ञान के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं !

© विजय शंकर सिंह

रघुवीर सहाय की एक कविता - हंसो हंसो जल्दी हंसो / विजय

हंसी पर यह कविता बहुत कुछ कह देती है। रघुवीर सहाय , नयी कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर रहे है। अब इसे किसी के मान - अपमान गरिमा - गाथा से जोड़ कर लाठी न भांजने लगियेगा। गरिमा को स्वतःस्फूर्त भाव से जगने दीजिये । उसे ज़िद, और मार्केटिंग द्वारा नहीं पाया जा सकता है।
रघुवीर सहाय की यह कविता पढें।
***
हँसो हँसो जल्दी हँसो

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है

हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूँज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !
***
#vss