ग़ालिब - 9
अपने पै कर रहा हूँ, कयास , अहल ए दहर का,
समझा हूँ, दिल पजीर, मताअ ए हुनर को मैं !!
दहर - समय, काल, वक़्त, युग.
मताअ - पूंजी, सामान.
पजीर - स्वीकार करना, मानना.
Apne pai kar rahaa hoon, qayaas, ahl e dahr kaa,
Samjhaa hoon, dil pazeer mataa'a e hunar ko main !!
-Ghalib.
संसार में जो भी हैं, उनका आकलन मैं अपने ह्रदय या भावनाओं को देखते हुए, उसी के अनुसार कर रहा हूँ. समय के अनुसार कला की मान्यताएं भी बदल जाती हैं.
ग़ालिब का जीवन बहुत विसंगतियों में व्यतीत हुआ था. थे तो वह एक बड़े ज़मींदार के घर के, पर विपन्नता, फक्कडपन और दरियादिली ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. अपनी ज़मींदारी का मुक़दमा लड़ने के लिए, वे कलकता तक गए. कहाँ कहाँ उन्होंने गुहार नहीं लगाई. पर बहुत अधिक सफलता उन्हें नहीं मिली. इस दौरान उनके जो बहुत नज़दीकी थे, उन्होंने भी चोला बदला और उनकी भी पोल खुली. ग़ालिब को दुनिया की वास्तविकता का पता भी चला. इसी अनुभव पर उनका यह शेर है, कि हम किसी भी व्यक्ति का आकलन अपनी भावनाओं के अनुसार ही करते हैं. और वक़्त के साथ साथ मान्यताएं बदलती भी रहती हैं. दुनिया को सब अपने अपने दृष्टिकोण से, और हमें भी दुनिया अपने दृष्टिकोण से ही देखती है.
-vss.
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