Wednesday, 15 June 2016

एक कविता - खोज , एक पथिक की / विजय शंकर सिंह


सामने रखा एक
कोरा कागज़,
कितने भाव जगा गया. मन में
लिखूं कुछ,
या  न लिखूं कुछ,
सोचता हूँ, पन्ने पलट दूं 
खामोशी से। 

पर तुम तक बात अपनी,
पहुँचाऊँ कैसे !
तुम तक पहुँचने की
कोई भाषा नहीं होती है,
न होता है कोई व्याकरण
न कोई पथ.
न कोई पंथ ।
घोर अरण्य,
और कठोरतम पत्थरों के,
स्पंदन के बीच,
बूंदों का एक समूह,
कोई न कोई राह
ढूढ़ ही लेता है,
और फिर यह निर्झर,
सदियों तक 
प्यास बुझाता रहता है ।

विकट जिजीविशा है ,
जल के उस नन्हे से,
विंदु में !

शून्य कुछ भी नहीं है,
कोई मोल भी नहीं,
पर साथ मिले तो छोटा पड़ जाय,
अनंत भी ।

शब्द निःसृत होते हैं,
शून्य से,
फिर समा जाते है,
उसी शून्य में.
सब कुछ उद्गमित है,
जहाँ से ,
विसर्जित भी वहीं, 
हो जाता है । 

शब्द ब्रह्म है, अक्षर है,
अक्षत हैं ।
सहस्र सूर्यों की आभा लिए,
ब्रह्माण्ड को समेटे,
घोर अन्धकार में भी जो,
सब का पथ प्रदर्शित करे,
मुझे उसी पथिक की खोज है !!

( विजय शंकर सिंह )

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