सामने रखा एक
कोरा कागज़,
कितने भाव जगा गया. मन में
लिखूं कुछ,
या न लिखूं कुछ,
सोचता हूँ, पन्ने पलट दूं
कोरा कागज़,
कितने भाव जगा गया. मन में
लिखूं कुछ,
या न लिखूं कुछ,
सोचता हूँ, पन्ने पलट दूं
खामोशी से।
पर तुम तक बात अपनी,
पहुँचाऊँ कैसे !
तुम तक पहुँचने की
कोई भाषा नहीं होती है,
न होता है कोई व्याकरण
न कोई पथ.
न कोई पंथ ।
कोई भाषा नहीं होती है,
न होता है कोई व्याकरण
न कोई पथ.
न कोई पंथ ।
घोर अरण्य,
और कठोरतम पत्थरों के,
स्पंदन के बीच,
बूंदों का एक समूह,
कोई न कोई राह
ढूढ़ ही लेता है,
स्पंदन के बीच,
बूंदों का एक समूह,
कोई न कोई राह
ढूढ़ ही लेता है,
और फिर यह निर्झर,
सदियों तक
सदियों तक
प्यास बुझाता रहता है ।
विकट जिजीविशा है ,
जल के उस नन्हे से,
विंदु में !
जल के उस नन्हे से,
विंदु में !
शून्य कुछ भी नहीं है,
कोई मोल भी नहीं,
पर साथ मिले तो छोटा पड़ जाय,
अनंत भी ।
शब्द निःसृत होते हैं,
शून्य से,
फिर समा जाते है,
उसी शून्य में.
सब कुछ उद्गमित है,
शून्य से,
फिर समा जाते है,
उसी शून्य में.
सब कुछ उद्गमित है,
जहाँ से ,
विसर्जित भी वहीं,
विसर्जित भी वहीं,
हो जाता है ।
शब्द ब्रह्म है, अक्षर है,
अक्षत हैं ।
सहस्र सूर्यों की आभा लिए,
ब्रह्माण्ड को समेटे,
घोर अन्धकार में भी जो,
सब का पथ प्रदर्शित करे,
मुझे उसी पथिक की खोज है !!
ब्रह्माण्ड को समेटे,
घोर अन्धकार में भी जो,
सब का पथ प्रदर्शित करे,
मुझे उसी पथिक की खोज है !!
( विजय शंकर सिंह )
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