Monday 6 June 2016

हुज़ूर, अब आप का इक़बाल बुलंद नहीं रहा / विजय शंकर सिंह

हुज़ूर का इक़बाल बुलंद है ! यह संवाद आज से पचास साल पहले जब कप्तान साहब बहादुर अपने थानेदार साहब बहादुर से यह पूछते थे कि , कैसे मिजाज़ हैं और इलाके का क्या हाल है तो , लंबे तगड़े और रोबीले चेहरे की रोबदार आवाज़ से यही वाक्य निकलता था। इक़बाल का शाब्दिक अर्थ होता है प्रभाव , असर , रुतबा। बुलंद का अर्थ होता है ऊंचा। और यह कहा तो जाता था कि क़ानून और राज्य के लिए पर सम्बोधन कप्तान जो अब पुलिस अधीक्षक शब्द में बदल गया है के लिए था। मैं जब मथुरा में 1982 में अलीगढ़ से तबादले पर गया तो उस समय मेरी नयी नयी नौकरी थी और मेरे एक सहकर्मी थे सोलंकी साहब जो अब नहीं रहे, अपनी सरकारी जीप पर सीओ लिखवा कर चलते थे । मेरी सरकारी जीप पर पुलिस उपाधीक्षक लिखा हुआ था जो मेरा रैंक था। मैंने उनसे एक दिन पूछा कि आप ने सीओ क्यों लिखवाया  है, उसे हिंदी में लिखवा लीजिये। उन्होंने कहा कि उन्हें सीओ , कप्तान और कोतवाल कहने में जो रुतबे और सत्ता की ध्वनि और धमक आती है वह बहुत पसंद है और यह धमक और ध्वनि उन्हें हिंदी के पुलिस उपाधीक्षक में नहीं मिलती है ।  उन्होंने ही यह बताया कि जब वे थानेदार यानी एसओ होते थे तो कप्तान से उनकी मुलाक़ात कम होती थी। लेकिन जब भी मुलाक़ात होती थी तो, यही संवाद अदायगी होती थी । हुज़ूर का इक़बाल बुलंद है और उसे बुलंद रखा भी जाता था ।

पर अब हुज़ूर का इक़बाल बुलंद नहीं रहा ! क्यों यह न सिर्फ हुज़ूर अफसरों के लिए सोचने की बात है बल्कि उन सब के लिए जो एक ही यूनिफार्म में एक ही परेड ग्राउंड पर एक ही आवाज़ पर कदम ताल करते हैं । इक़बाल की बुलंदी की क्या बात की जाय, वह तो तनुज्जली की और जा रहा है और जो कुछ विभाग में हो रहा है उसे तो हम सब देख ही रहे हैं । चार सालों में 1100 बार पुलिस मजाहमत या पुलिस के काम में दखलंदाज़ी की घटनाएं हो चुकी हैं । रोज़ ही अखबारों में कहीं पुलिस से वकील मुल्ज़िम छुड़ा ले रहे हैं तो कहीं दबिश यानी रेड , करने गयी पुलिस पर हमला हो गया है या यातायात नियंत्रण के समय किसी रसूखदार साइकिल हाथी या कमल या पंजे के झंडे लगी गाड़ी वाले ने यातायात सिपाही के गिरेबान पर हाँथ रख दिया, की ख़बरें छपती रहती हैं । पुलिस का मनोबल गिरा हुआ है या नहीं यह तो अलग बात है पर असामाजिक तत्वों का मनोबल ज़रूर बहुत बढ़ा हुआ है । यह मनबढई अब इतनी आम हो गयी है कि पुलिस भी इसकी आदी होती जा रही है ।

अगर कानूनी अधिकारों की बात की जाय तो पुलिस को जो अधिकार 1861 के पुलिस अधिनियम और तब के ही संहिताबद्ध आई पी सी , सीआरपीसी और लॉ ऑफ़ एविडेंस में प्रदत्त हैं उसमे कोई कमी नहीं हुयी है बल्कि उसके बाद बहुत से ऐसे क़ानून पास हुए हैं जिसमे पुलिस को और अधिकार मिले हैं । पुलिस बल की संख्या भी बढी है। गतिशीलता के साथ साथ संचार के साधन भी बढे हैं पर इन सब के बावज़ूद भी पुलिस का रुतबा या सम्मान घटा ही है । ऐसा क्यों है ? यह सवाल अक्सर मेरे और मेरे सहकर्मी मित्र जो पुलिस और प्रशासनिक सेवा में हैं या रह चुके हैं के मन में खदबदाता रहता है ।

अभी हाल ही में मथुरा में एक बड़ी घटना हो गयी । उस घटना में एक एसपी और एक एसओ मारे गए । जवाहर बाग़ नामक एक उद्यान में जो करीब 250 एकड़ का है, 2014 में राम वृक्ष यादव नामक एक व्यक्ति ने सत्याग्रह के नाम पर उस स्थान को देने के लिए जिला प्रशासन से अनुरोध किया । जिला प्रशासन ने उसे 3 दिन के लिए धरने की अनुमति दी । धरना धीरे धीरे कब्ज़ा में। बदल गया । अंदर मकान, आदि बन गए । बाग़ से दस लाख सालाना की आय भी इन्ही सब को होने लगी और स्थिति यह हो गयी कि वह धरना स्थल इसी राम वृक्ष यादव् की निजी संपत्ति हो गयी । पर क्या एक सामान्य व्यक्ति जो वहाँ का  रहने वाला भी न हो और प्रशासन की नाक पर मक्खी की तरह बैठ जाये और प्रशासन उसे उड़ा भी न पाये । 

मथुरा के जवाहर बाग़ काण्ड में हम सब रामवृक्ष यादव पर ही निशाना साध रहे हैं । वही सबसे बड़ा अराजक , नक्सल, भू माफिया आदि न जाने क्या क्या कहा जा रहा है । वह कागजों में और वैसे भी मुख्य अभियुक्त है और इस पूरे कब्ज़े का सूत्रधार भी । पर कल तक उसे मथुरा के बाहर न जानने वाले हम सब  यह नहीं सोच पा रहे हैं कि वह इतना शक्ति संपन्न कैसे हो गया ? वह मूलतः ज़िला ग़ाज़ीपुर के मरदह थाने का रहने वाला था । मथुरा से मरदह की दूरी 600 किमी है । पर वहाँ जा कर पुलिस लाइन के ठीक पीछे 250 एकड़ के उद्यान विभाग के एक हरे भरे बाग़ में तीन साल से कब्ज़ा जमा कर बैठ जाना कोई मज़ाक नहीं है । लेकिन वह बैठा रहा, प्रशासन पुलिस सभी को गरियाता रहा, उसने अपनी एक समानांतर सरकार चला ली, अनाप शनाप मांगे रख ली, स्कूलों में अपनी विचारधारा को पढ़ाना शुरू कर दिया, और अब एक ही चीज़ बाक़ी थी वह जवाहर बाग़ को स्वतंत्र राज्य नहीं घोषित कर पाया ! और जैसा कि पागलपन जैसा उसके आचरण अब सामने आ रहे हैं, वह ऐसा कर भी सकता था । कब्ज़ा तो हटाया जा सकता था । पुलिस है पीएसी है और ज़रूरत पड़ने पर सेना भी । पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि तीन साल का समय उसे दिया ही क्यों गया और दिया किसने ?

एक अखबारी लिंक इंडिया संवाद के अनुसार यह सपा की आंतरिक और अंतःपुर के गुटबंदी का परिणाम है । उक्त समाचार के अनुसार, जय गुरुदेव की हज़ारों करोड़ की संपत्ति के उत्तराधिकार पर अंतःपुर में ही राम गोपाल यादव और शिवपाल यादव के बीच संघर्ष चल रहा था । बाबा लोगों में ज़मीन कब्ज़ियाने की एक आदिम ललक मैंने देखी है । मैं 1982/84 में मथुरा में डीएसपी था। जहां आज यह आश्रम है वहीं पर तब मथुरा की इंडस्ट्रियल एरिया विकसित हो रही थी । तब दिल्ली मथुरा हाई वे उतना व्यवस्थित और प्रशस्त भी नहीं था । उस समय अक्सर यह शिकायत मिलती थी कि बाबा के चेले कभी इस प्लाट तो कभी उस प्लाट पर कब्ज़ा कर रहे हैं। ज़मीनों के कागज़ , खसरा ,खतौनी, मौके पर कब्ज़े और फ़र्ज़ी दस्तावेजों के इतने उलझे हुए मायाजाल होते हैं कि बहुत सी चीज़ें मेरी समझ में भी नहीं आती थीं और पुलिस के अधिकार क्षेत्र भी ज़मीनों के मामले में सीमित होते हैं तो यह विवाद सुलझता भी नहीं  था । धीरे धीरे बाबा का साम्राज्य फैलता गया और ज़मीन कब्ज़े में आती रही । उनके देहांत के बाद इस साम्राज्य को ले कर विवाद हुआ और झगडे शुरू हुए । झगड़े में दो पक्ष हुए और दोनों ही पक्षों ने सपा के अंतःपुर में अपनी पैठ बना ली और अब यह विवाद पारिवारिक रूप ले चुका है ।

राजनीति के असर से धरने की अनुमति मिली , कब्ज़ा हुआ यह तो कोई ख़ास बात नहीं है पर ख़ास बात यह है कि जब उसे खाली कराने का आदेश हाई कोर्ट से हुआ तो पुलिस ने खाली कराने के लिए प्रोफेशनल तरीके से क्या तैयारियां की और कैसे अपनी रणनीति पर अमल किया । सबसे पहले बात उठती है कि अभिसूचना तंत्र विफल रहा। मुझे यह ज्ञात नहीं कि अभिसूचना तंत्र ने अंदर की गतिविधियों के बारे में आगाह किया था नहीं। यह एक दुःखद तथ्य है कि पुलिस का यह विभाग अरसे से उपेक्षित है। न केवल संसाधनों के बारे में बल्कि सूचनाओं के एकत्रीकरण के प्रतिभा के मामले में । ज्यादातर राजनीतिक और वह भी सत्तारूढ़ दल से जुडी अभिसूचनाएं एकत्र करते करते यह विभाग ज़मीनी सूचनाओं से कभी कभी दूर हो जाता है । यह एक प्रकार का अपाहिजपन है । दो साल से अधिक कब्ज़ा है, अंदर स्कूल , अस्पताल चल रहा है, राशन पानी आदि सब आ जा रहा है, बिजली और जलापूर्ति नियमित है फिर भी हम कहें कि सूचना तंत्र विफल है तो यह खुद का निकम्मा पन है । एक बार बाग़ की बिजली काट दी गयी थी तो वह बिजली भी एक जिला मैजिस्ट्रेट के दखल के बाद , जो आभासी दुनिया में अक्सर बड़ी मज़बूत और बोल्ड अफसर की तरह प्रस्तुत होती हैं , पुनः जोड़ दी गयी। फिर भी हम कहते हैं राम वृक्ष ने कब्ज़ा जमा लिया । कुल मिला कर पूरे मथुरा के सभी अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों को यह पता था कि यह कब्ज़ा सत्ता प्रायोजित है। और इसे चलने देना है ।

अक्सर हम कुछ लोगों को न्यायिक सक्रियता की बात करते और अदालतों को कोसते पाते हैं । पर यह न्यायिक सक्रियता न होती तो, यक़ीन मानिए देश भर में सैकड़ों जवाहरबाग नेताओं, अफसरों और भू माफियों के कब्ज़े में आ गए होते । आखिर जब तीन दिन के अनुमति धरने पर बैठने की दी गयी थी तो, उसे निर्धारित तिथि के तुरंत बाद ही क्यों नहीं हटाया गया ? जवाहर बाग़ में धरना की अनुमति देना ही गलत था । वह राजकीय उद्यान है कोई सार्वजनिक धरना केंद्र नहीं । धरने कलेक्ट्रेट में होते हैं और वह भी प्रतीकात्मक न कि किसी उद्यान को ही धरने के लिए दे दिया । जब यही बात याचिका के रूप में अदालत के समक्ष गयी तो उसे खाली कराने का आदेश पारित हुआ । अब यह दायित्व मूलतः पुलिस बल और मैजिस्ट्रेट का था । खबर है कि जिला मैजिस्ट्रेट ने 16 पत्र प्रमुख सचिव गृह को जवाहरबाग के कब्ज़े को खाली कराने के लिए पुलिस बल उपलब्ध कराने की बात कही है । पर सचिवालय में कोई भी सुनगुन नहीं हुयी । शासन भी घोड़े की तरह है और वह भी सवार पहचानता है । जब उसने भी देख लिया कि यह विवाद अंतःपुर के सत्ता संघर्ष या वर्चस्व का है तो उसने भी महठियाना शुरू कर दिया । अतः जब हाई कोर्ट का आदेश मिला तो लोग हरकत में आये ।

सबसे बड़ी प्रोफेशनल गलती यह हुयी कि यह कार्यवाही न केवल जल्दबाज़ी में की गयी पर यह बचाते हुए की गयी कि अंतःपुर किसी बात को दिल पर न ले ले नहीं तो जवाहर बाग़ खाली हो या न हो, तबादला ज़रूर हो जाएगा । हथियारों के बारे में सटीक सूचना एकत्र कर के पूरे बाग़ को पहले घेर कर आइसोलेट करना चाहिए था । बिजली , पानी और आवश्यक सामानों की आपूर्ति सबसे पहले रोक देनी चाहिए थी । इस से उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता और हो सकता था कुछ बूढ़े बच्चे और महिलायें स्वतः बाग़ खाली कर देते । पंजाब के पुलिस महानिदेशक के पी एस गिल के समय हुए स्वर्ण मंदिर को जब आतंकियों से खाली कराने का फैसला लिया गया था तो यही रणनीति अपनाई गयी थी । तीन दिन तक बिना बल प्रयोग के पंजाब पुलिस , स्वर्ण मंदिर को घेरे रही। बिजली पानी रसद आदि के काट दिए जाने से आतंकियों का मनोबल टूटा और उसमे से कमज़ोर लोग जिनकी संख्या हमेशा अधिक होती है बाहर निकल आये और फिर स्वर्ण मंदिर बिना किसी भारी जन हानि के खाली करा लिया गया । यह ऑपरेशन ब्लैक थंडर था । इसी प्रकार की तकनीक रामलाल की गिरफ्तारी के समय हरियाणा पुलिस ने भी अपनाया था   इसी प्रकार जवाहर बाग़ भी लंबी घेरे बंदी में रह सकता था । लेकिन तत्काल जेसीबी ले कर दीवाल तोडना और अल्प प्रशिक्षित अनुभवहीन रिक्रूटों के हाँथ में डंडा थमा कर हम यह उम्मीद करें कि सत्ता का संरक्षण प्राप्त, तीन साल से जमा हुआ व्यक्ति शान्ति से सर झुका कर बाहर आ जाएगा तो यह खुद को ही धोखा देना होगा । मुझे नहीं पता, पूरे ऑपरेशन की योजना ठन्डे दिमाग से सोच कर सारी  भावी संभावनाओं को ध्यान में रख कर बनाई गयी थी या नहीं । अगर तैयारी पूरी नहीं है, अभिसूचनाएं पर्याप्त नहीं हैं , और फ़ोर्स का बैकअप नियोजित नहीं है तो ऐसे ऑपरेशन्स में हाँथ नहीं डालना चाहिए था। कुछ दिन बाद तैयारी से कब्ज़ा हटता, कम से कम पुलिस के दो अफसर तो नहीं मरते और न ही इतने ज़ख़्मी होते । एक असफल ऑपरेशन का असर पुलिस के मनोबल पर बहुत पड़ता है । वास्तविक जीवन् में पुलिस न तो सिंघम है और न ही दबंग। वह सिर्फ एक प्रशिक्षित समूह है इंसानों का ।

इस घटना की जांच आयुक्त अलीगढ मंडल कर रहे हैं । उनकी जांच में क्या आता है इसका इंतज़ार है । इस घटना के दो पहलू है। एक तो राजस्व पहलू कि कब्ज़ा कब से हुआ  , उसे हटाने के लिए राजस्व विभाग ने क्या कार्यवाही की। क्या किया जाना चाहिए था और क्या नहीं किया गया । आदि आदि । पर पुलिस के दृष्टिकोण से इसकी जांच किसी भी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से करा ली जानी चाहिए कि पुलिस एक्शन के समय क्या चूके हो गयीं। अब पुलिस सिर्फ इक़बाल के बल पर नहीं चल सकती है उसे न केवल शस्त्रों , गतिशीलता , संचार आदि मामलो में समय के साथ चलना होगा बल्कि अहम् ब्रह्मास्मि की मानसिकता से उबर कर एक व्यावसायिक सोच वाला पुलिस बल बनना होगा । अफ़सोस , हुज़ूर, अब आप का इक़बाल बुलंद नहीं रहा !

( विजय शंकर सिंह )

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