मीडिया को दो
भागों में बाँट
कर देखिये। अद्वैत
से इसे देखेंगे
तो निराशा ही
हाथ लगेगी। एक
भाग उसका है
जिनका धन इसमें
लगा है। दूसरा
उनका जो अपने श्रम
और विवेक से
लिखते हैं। दोनों
ही एक दूसरे
के पूरक हैं।
जब शुरू में
समाचार पत्रों का जन्म
हुआ था तो
उसका भी कुछ
न कुछ उद्देश्य
रहा होगा। ईसाई
पादरियों ने जो
अखबार शुरू किया
उसका उद्देश्य धर्म
प्रचार और अपने
धर्म को अन्य
प्रतिद्वंद्वी धर्म , मुख्य रूप
से हिन्दू धर्म
के खिलाफ दुष्प्रचार
करना था। फिर
जब आज़ादी की
ललक पैदा हुयी
तो महान
नेताओं, तिलक , गोखले, गांधी आदि ने
अपने अपने अखबार
निकाले। इसका उद्देश्य
सिर्फ देश को
आज़ाद करना और
इसकी अस्मिता को
बचाना था। उस
समय के अखबाट
एक मिशन थे।
वह अधिकतर चंदे
और दान या
सहयोग राशि जो
अमूमन उसकी कीमत
के रूप में
उस पर अंकित
रहता था , से
चलते थे। यह सिलसिला
लम्बे समय तक
चला। अखबार अपने
विचारधारा के अनुसार
अपनी बात कहते
थे। वह निष्पक्ष
खबर तो देते
थे , पर उसकी
व्याख्या वह अपने
विचार धारा के
अनुसार करते थे।
धीरे धीरे यह
मिशन एक व्यापार
बना। अखबार निकालना
, ख़बरें एकत्र करना , उसे
छपाना और उसका
वितरण करना , यह
सब बहुत महंगा
हो गया। छापेखाने
भी आधुनिक होते
गए और नयी
नयी महंगी मशीनों
ने इस मिशन
को व्यवसाय में
परिवर्तित कर दिया।
इसी क्रम में अर्थ क्षेत्र
के नामी गिरामी
घराने भी कूद
गए। आज भी
हर बड़ा अखबार
किसी न किसी
घराने से जुड़ा
है। टाइम्स ऑफ़
इंडिया , साहू जैन
परिवार का , हिंदुस्तान
टाइम्स , बिरला घराने का , स्टेट्समैन
, टाटा का , पोलिटिकल
एंड ओब्सेर्वेर वीकली
रिलायंस का , इंडियन
एक्सप्रेस , गोयनका ग्रुप का
है। इन सभी
घरानों के बड़े
उद्योग हैं और
इन्हे सरकार की
और सरकार के
नीतियों की कृपा
चाहिए ही। धीरे
धीरे , यह मिशन
व्यवसाय में और
और व्यवसाय लाइजनिंग
जिसे
भदेस भाषा में
कहें तो दलाली
में परिवर्तित हो
गया। सरकार और
अखबारी समूहों ने , दोनों
ने अपनी अपनी
ताक़त को रस्सा
कशी की तरह
आजमाया। कभी अखबार
सरकार पर चढ़ते
हैं तो कभी
सरकार उन्हें आँखे
दिखाती है। पर
व्यवसाय का हित
जब जब भी
सामने आया तो
अखबारी समूहों को समझौता
करना पड़ा। इमरजेंसी
के दिनों में
इंडियन एक्सप्रेस ने खुल
कर इंदिरा गांधी
के तानाशाही रवैये
की निंदा की
थी। जिसका खामियाज़ा
उसे भुगतना पड़ा।
पर स्वर्गीय राम
नाथ गोयनका जो
इंडियन एक्सप्रेस के मालिक
थे ने समझौता नहीं
किया। अखबार कुछ
समय के लिए
बंद हो गया
पर झुका नहीं।
पर जब 1977 के
चुनाव घोषित हुए
तो एक समय
में इंडियन एक्सप्रेस
सबसे अधिक बिकने
वाला अख़बार बन
गया था।
ऐसा समाचारपत्रों के ही
साथ नहीं हुआ
था , कुछ अत्यंत
प्रतिष्ठित पत्रिकाएं भी इस
तानाशाही मनोवृत्ति की शिकार
बनी। एक बेहद
गंभीर और विचारोत्तेजक
पत्रिका है , मैन
स्ट्रीम। यह पत्रिका
आज भी छपती
है पर इसका
सर्कुलेशन अब इतना
नहीं है। यह
नेट पर भी
उपलब्ध है। मूलतः
यह वामपंथी विचारधारा
की पत्रिका है।
इमरजेंसी जब घोषित
हुयी तो साथ
ही पहली बार
सेंसरशिप भी लागू
हुयी थी। उस
समय इस पत्रिका
के संपादक थे
निखिल चक्रवर्ती। निखिल
दा ने इस
पत्रिका का प्रकाशन
स्थगित कर दिया
था। यह पत्रिका
अपने पाठकों और
समान विचारधारा के
लोगों के बल
पर ही चल
रही थी और
आज भी चल
रही है। हालांकि
अब वह इतनी
लोकप्रिय नहीं है।
उसी समय एक
अखबार और बहुत
लोकप्रिय था नेशनल
हेराल्ड। मूलतः यह जवाहर
लाल नेहरू द्वारा
संस्थापित था। यह
कांग्रेस की विचारधारा
का ही समर्थक
था। अख़बार के
प्रथम पृष्ठ पर
जहाँ अख़बार का
नाम छपता है
, वहाँ जवाहर लाल नेहरू
के हस्ताक्षर से
उनकी एक सूक्ति
उन्ही के हस्तलेख
में छपी रहती
थी ,वह सूक्ति
अंग्रेज़ी में थी।
लिखा था , फ्रीडम
इस इन पेरिल
, डिफेंड इट विथ
आल योर माइट। पर
जब इमरजेंसी में
आज़ादी प्रतिबंधित की
गयी तो यह
पंक्ति
और सन्देश भी
अखबार से हटा
लिया गया। इस
तरह से सरकार
ने अखबारों और
इन कारोबारी समूहों
को नाथने का एक
रास्ता निकाला।
अख़बारों के मालिकों
के सामने जब
व्यवसाय और मिशन
में एक को
चुनने का वक़्त
आया तो उन्होंने
को प्राथमिकता दी। यह
उनके लिए आवश्यक
भी था। अखबार
के लिए धन
कहाँ से आता।
फिर भी अखबारों
ने अपना मिशन
छोड़ा नहीं। वे
जनता से जुडी
बातें उठाते ही
रहे। लेकिन उनकी
भी मज़बूरी थी
कि इस मिशन
के लिए धन
कहाँ से लाया
जाय। जब इलेक्ट्रॉनिक
चैनल आये और
समाचार सम्प्रेषण में क्रान्ति
हुयी , तो समाचार
और इसके प्रभाव
का पूरा पूरा
परिदृश्य ही बदल
गया। सोशल मीडिया
, व्हाट्सएप्प , फेसबुक , स्मार्ट फोन
और संचार क्रान्ति
ने ख़बरों को इतना
सुलभ और तेज़
बना दिया कि
अब कुछ भी
गोपनीय नहीं रहा।
यह पारदर्शिता का
नया युग है।
हम अक्सर बिकाऊ मीडिया
शब्द का प्रयोग
करते हैं ।
पर यह आरोप
भी निष्पक्ष नहीं
है। जो
ख़बरें हमें पसंद
हैं वह तो
मिडिया की सक्रियता
और जो पसंद
नहीं है वह
बिकाऊ घोषित कर
दी जाती हैं।
एक बात साफ
है , जो ख़बरें
लोकप्रिय होने की
संभावना रखती हैं
, जिनकी न्यूज़ वैल्यू अधिक
होती है , जो
सरकार के मेरुदण्ड
में तरंग पैदा
कर देने की
सामर्थ्य रखती हैं
वही चैनेल या
अख़बार की प्राथमिकता
होती है। मीडिया भी एक
व्यवसाय है , और
एक व्यवसाय बाज़ार
के बिना जीवित
नहीं रह सकता।
बाजार प्रचार
के बिना पनप
नहीं सकता। फिर
भी इन सारी
विसंगतियों के बावजूद
भारतीय मीडिया न केवल
स्वतंत्र और निष्पक्ष
है बल्कि जागरूक
भी। हम
बाज़ारीकरण , कॉर्पोरेटाइज़ेशन के जिस
दौर से गुज़र
रहे हैं , उस
पर यह शेर
शायद उपयुक्त बैठे
,
उसी का माल
तो बिकता है
, ज़माने में ,
जो अपने नीम
के पत्तों को
जाफरान कहे !!
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