जब भी धर्म के नाम पर श्रद्धा का मिथ्या अहंकार ठाठें मारने लगता है , तब कबीर अनायास याद आते है. काशी याद आता है. सनातन धर्म के मर्मस्थल से उठी उनकी साखी शबद रमैनी याद आती है. याद आती है , सारे पाखण्ड के नगाड़ों के बीच उनकी तूती सी आवाज़, जो उन नगाड़ों की ध्वनि पर भी अलग नाद उत्पन्न करती है. आज जब शंकराचार्य का कथन, साईं भक्तों का साईं के उपदेशों के विपरीत आचरण देखने को मिल रहा है तो कबीर का याद आना स्वाभाविक है. कभी सोचता हूँ, अगर कबीर आज पैदा होते, और दशाश्वमेध की गलियों और गंगा घाटों पर अपनी बात कहते तो उनके खिलाफ इतनी रपटें, मुक़दमे, श्रद्धा वीर कायम करा दिए होते कि उन्हें पैरवी के लिए वकीन नहीं मिलते. और उन्हें इन्ही बातो के कहने पर एन एस ए में भी निरुद्ध कर दिया गया जाता. पर कबीर, बिदास रहे, बेलौस बोले, और सबके खिलाफ तंज़ कसा.
संतो देखउ जग बौराना,
सांच कहो तो मारन धावे,
झूठे जग पतियाना,
नेमी देखे, धर्मी देखे,
प्रात करहि असनाना,
आतप मारि पाषण ही पूजे,
उनमें कछू न गयाना,
बहुतक देखे पीर औलिया,
पढ़े, किताब कुराना,
कै मुरीद तदवीर बतावे,
उनमें उहै गियाना,
आसन मारि डिम्भ धरि बैठे,
मन में बहुत गुमाना,
पीतर पाथर पूजन लागे,
तीरथ गरब भुलाना,
माला पहिने टोपी दीन्हे,
छाप तिलक अनुमाना,
साखी सबदै गावत भूले,
आतम खबरि न जाना,
कह हिन्दू मोहिं राम पियारा,
तुरुक कहें रहिमाना,
आपस में दोउ लरि लरि मूए,
मर्म न काहू जाना !!
(कबीर)
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