ईश्वर की कल्पना कब की गयी होगी. यह अनुमान लगाना
कठिन है. लेकिन जब अज्ञात से भय, अपेक्षा, आकांशा का भाव जगा होगा तो ईश्वर का कुछ न कुछ रूप ज़रूर उभरा
होगा. लेकिन वह रूप जटिल नहीं रहा होगा. एक से एक का ही वार्तालाप रहा होगा. कोई संगठन, कोई दर्शन, कोई संघ नहीं रहा होगा. जिनसे उसे भय
दिखा होगा वह भी और जिनसे उसे कृपा मिली होगी वह भी ईश्वर के पद पर प्रतिष्ठापित
हो गया होगा. जैसे जैसे विकास होता गया, जीवन की जयिलाताएं बढ़ती गयीं, और धीरे ईश्वर के साम्राज्य का भी
विधान बनने लगा होगा. इसी से चल कर संगठन बने फिर धर्म, फिर उपासना पद्धति. फिर उपासकों का एक
वर्ग बना और धीरे धीरे इतनी जटिलताएं हो गयीं कि उपासना भी कर्मकांड में बदल गयी.
और कर्मकांड बोझ बन गया. फिर इसका विरोध शुरू हुआ हाँ साधारण से असाधारण जीवन शैली, सामान्य से आरामदेह या सुपर आरामदेह
फिर वहाँ से भी ऊबने लगे तो वापस त्याग की धारणा भी खोज लिए.
जब एक ईश्वर से काम नहीं चला. कल्पना शक्ति ने विविध ईश्वर ढूंढें. और फिर उनकी कहानिया. समाज के सापेक्ष समाज के ताने बाने से बुनती चली गयीं. बीच बीच में इस पर बहस भी हुयी कि वह है या नहीं. बहस अंतहीन समझ कर यह निष्कर्ष निकला होगा कि उस पर बहस करना फ़िज़ूल है. भीतर कहीं बैठे भय से यह तो नहीं कहा किसी ने कि, उसका अस्तित्व ही फ़िज़ूल है, बल्कि यह कहा कि वह अचिन्त्य है. उसके अस्तित्व बारे में बहस नहीं हो सकती. वह विश्वास, faith की चीज़ है. जिन्हें विश्वास था या है उनके अपने तर्क तब भी थे, आज भी हैं, जिन्हें उसके अस्तित्व पर ही विश्वास नहीं है, और न था, तब, उनके पास भी तर्क हैं और थे. इसी लिए बुद्ध इस पचड़े में नहीं पड़े, वह इस विषय पर चुप्पी साथ लेते थे. और अपने चत्वारि आर्य सत्यानि, यानी चार आर्य सत्यों की बात करने लगते थे. वह होशियार थे, अनावश्यक विवाद से दूर रहना चाहते थे.
ईश्वर और धर्म के बारे में एक प्रबल तर्क यह दिया जाता है, कि धर्म मनुष्य को संस्कारित करता है. जीने का आधार प्रदान करता है. धारण करता है. और ईश्वर उसे संबल देता है. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म हमें एक विक्सित शैली से समाज में जीने की बात बताता है, और ईश्वर एक अवलम्ब के रूप में, हमें अनावश्यक अहंकार और अवसाद से भी बचाता है. कुछ काल तक तो यह ठीक चला. समाज , धर्म और मनुष्य की मूल प्रवित्ति पानी की तरह है. अगर इसे कहीं प्रवाह आवागमन का नहीं मिले तो यह प्रदूषित और संकुचित होने लगता है. धर्म बाद में अपने कर्मकांड, और पौरोहित्यवाद के जकडन में इतना जकड गया कि, इसका विकास अवरुद्ध हो गया, और इसका सड़ना शुरू हो गया. लोग बदल गए, समाज बदल गया, मान्यताएं बदलने लगी, भौतिक उन्नति परवान चढ़ने लगी, बौद्धिक व्इकास के अनेक आयाम खुले, लेकिन धर्म की कुछ मान्यताएं आज भी जस की तस बनी रही. इसका एक कारण अज्ञात का भय और धर्म जीविकों का स्वार्थ भी रहा.
आज जब धर्म के नाम पर अंतर्धार्मिक विवाद, इस्लाम, ईसाई, या इस्लाम यहूदी, या हिन्दू इस्लाम, या चीनी ताओ, और बौद्ध, या बौद्ध और इस्लाम, या एक ही धर्म के आतंरिक झगडे, intra religious conflicts, जैसे, शिया, सुन्नी, कैथोलिक प्रोतेस्तेंट्स, या मेथोडिस्ट, या बहुत पहले हिन्दू धर्म के शैव और वैष्णव, शाक्त, कापालिक, नाथ, और नागाओं के होते हैं तो यह अबोध जिज्ञासा उपजती है कि ईश्वर किसका है, और वह किस धर्म का है ? बात यहीं थोड़ा उपहासात्मक हो जाती है कि वह तो सब का पालनहार है, परम पिता है, फिर यह झगडा किसके लिए. वह आ कर यह तो कह नहीं सकता कि तुम मेरे नाम पर खून मत बहाओ. लेकिन एक दुखद और आश्चर्य जनक तथ्य यही है कि संसार के जितने युद्ध हुए है, जितना भी रक्त बहा है,वह सब ईश्वर और धर्म के नाम पर बहा है और आज भी बह रहा है. इसका कारण धर्म का स्वार्थी पौरोहित्यवाद द्वारा अपहरण कर लिया जाना है.
दुनिया में एक धर्म, एक विचार, ईश्वर की एक व्याख्या कभी नहीं रही है. जिस दिन कोई विचार उत्पन्न होता है उसी क्षण उस विचार का प्रति विचार या तो उत्पन्न हो जाता है, या उसके उत्पन्न होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. जिन धर्मों में वाद विवाद और शास्त्रार्थ की परम्परा रहती है वहाँ उत्पन्न बौद्धिक असंतोष राह पा जाता है. या तो कोई नयी धारा फूट पड़ती है, या असंतोष का शमन और समाधान हो जाता है. जहां वाद विवाद का कोई स्कोप नहीं रहता, वहाँ तर्क के स्थान पर प्रतितर्क नहीं बल्कि बल उभरता है. इस से असंतोष का न तो शमन होता है और न ही समाधान, बल्कि बलपूर्वक दमित असंतोष, प्रतिहिंसा से उग्र हो जाता है. आज इस्लाम में जो आतंकवादी तत्व उभर रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है.
अकसर हम पैन इस्लामिक धारणा की बात सुनते हैं. यह भी कहा जाता है कि सारे विश्व को तथाकथित ज़हालत से मुक्त कर के उन्हें सभ्य बनाया जाय. इसी विस्तारवादी सोच के कारण इस्लाम का इसाइयत से जो यहूदी धर्म से निकली एक धारा है का संघर्ष हुआ. बाकायदे युद्ध हुए और भयंकर धन जन की हानि हुयी. सैकड़ों मस्जिदें ज़मींदोज़ हुयी सैकड़ों गिरजे टूटे. आज भी अवचेतन में वह विवाद दोनों ही धर्मावलम्बियों के जेहन में ज़िंदा है. अप तो धर्म की मीठी और आकर्षक खोल के भीतर राजनैतिक स्वार्थ की कडवी दवा भी है. यह धर्म के प्रति अंध आस्था का भयावह दुष्परिणाम है. सुन्नीवाद इसी पैन इस्लामिज्म की एक शाखा वहाबिज्म का विस्तार है.
जब एक ईश्वर से काम नहीं चला. कल्पना शक्ति ने विविध ईश्वर ढूंढें. और फिर उनकी कहानिया. समाज के सापेक्ष समाज के ताने बाने से बुनती चली गयीं. बीच बीच में इस पर बहस भी हुयी कि वह है या नहीं. बहस अंतहीन समझ कर यह निष्कर्ष निकला होगा कि उस पर बहस करना फ़िज़ूल है. भीतर कहीं बैठे भय से यह तो नहीं कहा किसी ने कि, उसका अस्तित्व ही फ़िज़ूल है, बल्कि यह कहा कि वह अचिन्त्य है. उसके अस्तित्व बारे में बहस नहीं हो सकती. वह विश्वास, faith की चीज़ है. जिन्हें विश्वास था या है उनके अपने तर्क तब भी थे, आज भी हैं, जिन्हें उसके अस्तित्व पर ही विश्वास नहीं है, और न था, तब, उनके पास भी तर्क हैं और थे. इसी लिए बुद्ध इस पचड़े में नहीं पड़े, वह इस विषय पर चुप्पी साथ लेते थे. और अपने चत्वारि आर्य सत्यानि, यानी चार आर्य सत्यों की बात करने लगते थे. वह होशियार थे, अनावश्यक विवाद से दूर रहना चाहते थे.
ईश्वर और धर्म के बारे में एक प्रबल तर्क यह दिया जाता है, कि धर्म मनुष्य को संस्कारित करता है. जीने का आधार प्रदान करता है. धारण करता है. और ईश्वर उसे संबल देता है. इसमें कोई शक नहीं कि धर्म हमें एक विक्सित शैली से समाज में जीने की बात बताता है, और ईश्वर एक अवलम्ब के रूप में, हमें अनावश्यक अहंकार और अवसाद से भी बचाता है. कुछ काल तक तो यह ठीक चला. समाज , धर्म और मनुष्य की मूल प्रवित्ति पानी की तरह है. अगर इसे कहीं प्रवाह आवागमन का नहीं मिले तो यह प्रदूषित और संकुचित होने लगता है. धर्म बाद में अपने कर्मकांड, और पौरोहित्यवाद के जकडन में इतना जकड गया कि, इसका विकास अवरुद्ध हो गया, और इसका सड़ना शुरू हो गया. लोग बदल गए, समाज बदल गया, मान्यताएं बदलने लगी, भौतिक उन्नति परवान चढ़ने लगी, बौद्धिक व्इकास के अनेक आयाम खुले, लेकिन धर्म की कुछ मान्यताएं आज भी जस की तस बनी रही. इसका एक कारण अज्ञात का भय और धर्म जीविकों का स्वार्थ भी रहा.
आज जब धर्म के नाम पर अंतर्धार्मिक विवाद, इस्लाम, ईसाई, या इस्लाम यहूदी, या हिन्दू इस्लाम, या चीनी ताओ, और बौद्ध, या बौद्ध और इस्लाम, या एक ही धर्म के आतंरिक झगडे, intra religious conflicts, जैसे, शिया, सुन्नी, कैथोलिक प्रोतेस्तेंट्स, या मेथोडिस्ट, या बहुत पहले हिन्दू धर्म के शैव और वैष्णव, शाक्त, कापालिक, नाथ, और नागाओं के होते हैं तो यह अबोध जिज्ञासा उपजती है कि ईश्वर किसका है, और वह किस धर्म का है ? बात यहीं थोड़ा उपहासात्मक हो जाती है कि वह तो सब का पालनहार है, परम पिता है, फिर यह झगडा किसके लिए. वह आ कर यह तो कह नहीं सकता कि तुम मेरे नाम पर खून मत बहाओ. लेकिन एक दुखद और आश्चर्य जनक तथ्य यही है कि संसार के जितने युद्ध हुए है, जितना भी रक्त बहा है,वह सब ईश्वर और धर्म के नाम पर बहा है और आज भी बह रहा है. इसका कारण धर्म का स्वार्थी पौरोहित्यवाद द्वारा अपहरण कर लिया जाना है.
दुनिया में एक धर्म, एक विचार, ईश्वर की एक व्याख्या कभी नहीं रही है. जिस दिन कोई विचार उत्पन्न होता है उसी क्षण उस विचार का प्रति विचार या तो उत्पन्न हो जाता है, या उसके उत्पन्न होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. जिन धर्मों में वाद विवाद और शास्त्रार्थ की परम्परा रहती है वहाँ उत्पन्न बौद्धिक असंतोष राह पा जाता है. या तो कोई नयी धारा फूट पड़ती है, या असंतोष का शमन और समाधान हो जाता है. जहां वाद विवाद का कोई स्कोप नहीं रहता, वहाँ तर्क के स्थान पर प्रतितर्क नहीं बल्कि बल उभरता है. इस से असंतोष का न तो शमन होता है और न ही समाधान, बल्कि बलपूर्वक दमित असंतोष, प्रतिहिंसा से उग्र हो जाता है. आज इस्लाम में जो आतंकवादी तत्व उभर रहे हैं, उनका एक कारण यह भी है.
अकसर हम पैन इस्लामिक धारणा की बात सुनते हैं. यह भी कहा जाता है कि सारे विश्व को तथाकथित ज़हालत से मुक्त कर के उन्हें सभ्य बनाया जाय. इसी विस्तारवादी सोच के कारण इस्लाम का इसाइयत से जो यहूदी धर्म से निकली एक धारा है का संघर्ष हुआ. बाकायदे युद्ध हुए और भयंकर धन जन की हानि हुयी. सैकड़ों मस्जिदें ज़मींदोज़ हुयी सैकड़ों गिरजे टूटे. आज भी अवचेतन में वह विवाद दोनों ही धर्मावलम्बियों के जेहन में ज़िंदा है. अप तो धर्म की मीठी और आकर्षक खोल के भीतर राजनैतिक स्वार्थ की कडवी दवा भी है. यह धर्म के प्रति अंध आस्था का भयावह दुष्परिणाम है. सुन्नीवाद इसी पैन इस्लामिज्म की एक शाखा वहाबिज्म का विस्तार है.
-vss
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