आस्था, विश्वास, और श्र्स्द्ध,
किसी आदेश, निर्देश, संहिता या व्यवस्था के अनुसार नहीं होती. पूरब में, मेरा तात्पर्य पूर्वी उत्तर प्रदेश और
बिहार से है, गाँव के बाहर किसी पुराने पीपल पेड़ के
नीचे कुछ अनगढ़ सा पत्थर, या मिटटी की ढूही बनी होती है. गाँव
में जब विवाह की रस्म, किसी बच्चे का जन्म, या मुंडन या अन्य कोई उत्सव होता है तो
उस स्थान पर कथा कही सुनी जाती है. इसे हमारे यहाँ डीह बाबा कहते हैं. इसे ग्राम
देवता भी कहा जाता है. यह पूजा किस शास्त्रीय विधान, कर्मकांड के अंतर्गत होती है, नहीं
मालूम. पर जैसा पंडित करा देते हैं हो जाती है. मान्यता यह है कि इस पूजा से
अनिष्ट नहीं होता है. और अनिष्ट का भय, सुखद
भ्स्विश्य की लालसा, और अज्ञात के प्रति जिज्ञासा इश्वर और
धर्म का एक मोटी वेटिंग फैक्टर है. हर संकल्प के पहले जो मन्त्र पढ़े जाते हैं, उनमे ग्राम देवताभ्यो नमः भी कहा जाता
है. इस प्रकार यह प्रथम देवता हुए.
आज
शंकराचार्य का बयान आयी साईं बाबा के बारे में . उन्होंने कहा सनातन धर्म की
परंपरा में साईं अवतार नहीं है. उन्होंने कहा कि वह हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक
नहीं है, क्यों कि उनकी पूजा करने मुस्लिम नहीं
जाते. उन्होंने कहा कि उनके मंदिर नहीं बन्ने चाहिए. इसी बात पर साईं भक्त बिफर
पड़े. दिन भर श्रद्धा और सबूरी की माला जपने वाले सड़कों पर उतर कर सब्र खो दिए और
शंकराचार्य का पुतला फूंकने लगे. किसी साईं भक्त ने शंकराचार्य की इस चुनौती को
नहीं स्वीकार किया कि वह उनसे शास्त्रार्थ करे. उधर दारूल उलूम ने भी साई पूजा को
इस्लाम के विरुद्ध घोषित कर दिया. कहीं किसी परम श्रद्धावान साईं भक्त का सब्र
बिलकुल ही खत्म हो गया तो उन्होंने शंकराचार्य के विरुद्ध मुकदमा कायम करा दिया.
यह कैसी श्रद्धा और यह कैसा सब्र !
शंकराचार्य
ने क्या गलत कहा ? साईं सनातन धर्म परंपरा में अवतार की
कोटि में नहीं आते. साईं का हिन्दू मुस्लिम एकता में कोई योगदान नहीं है. अगर है
तो उनके भक्त बताएं.? उधर दारुल उलूम ने भी कोई बात अनुचित
नहीं की. इस्लामी परम्परा में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है, सो उन्होंने इसे गैर इस्लामिक करार
दिया. लेकिन इन व्यवस्थाओं से उत्तेजित होने के बजाय साईं भक्त अपनी श्रद्धा और
सबूरी बनाए रखते तो उनका मान ही बढ़ता.
साईं
क्या थे, ? हिन्दू या मुस्लिम इस पर भ्रम है. मैं
भी शिर्डी एक बार गया हूँ. साईं से जुडी कुछ किताबें भी खरीदी और पढी. उनसे जुड़े
स्थान भी देखे. उनका इतिहास जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा ही बढी मेरी. वे एक
पीर, या संत की तरह थे. और सबको आशीर्वाद
देते थे. ऐसे बहुत से संत महात्मा इस धरती पर हुए हैं. ऐसे संतों के साथ अक्सर
चमत्कार की अनेक कथाएं भी समय के साथ साथ जुडती जाती है. विश्वास जब अतिशय हो जाता
है तो वह तर्क शक्ति का क्षरण कर देता है. ऐसे चमत्कार और दन्त कथाएं, ऐसे संतों को अवतार समान ही बना देती
है. साईं बाबा के साथ भी यही हुआ.जिसकी श्रद्धा साईं बाबा पर है वह रखे. अगर साईं
भक्ति और साईं पूजा से उनका कल्याण हो रहा हो तो इस में किसी को क्या आपत्ति हो
सकती है ? लेकिन शंकराचार्य के कथन का तार्किक
उत्तर तो दिया ही जा सकता है, न
कि उनका पुतला दहन हो.
साईं
भक्तों की श्रद्धा इतनी आहत हो गयी है कि उनका सब्र समाप्त हो गया है.टी वी पर
शंकराचार्य का पुतला फूंकते हुए और उनके खिलाफ मुक़दमा कायम कराते हुए उनका आचरण
साईं भक्तों का नहीं एक साइन भक्त यूनियन का लग रहा है। जिसकी श्रद्धा ज़रा सी विपरीत बयान बाज़ी पर आहत
हो जाए समझिए कि श्रद्धा में कोई कमी रह गयी है बाबा ने सादगी का उदाहरण प्रस्तुत
किया, भक्तों ने अवैध अर्जित संपत्ति दान कर
उन्हें प्रदूषित कर दिया। बाबा ने सब्र से
जीने का उपदेश दिया इतनी सी बात पर की वह अवतार नहीं हैं और वह हिन्दू मुस्लिम
एकता के दूत नहीं हैं, और मुस्लिम दरगाहों में साईं के भजन
नहीं गाये जाते , लोग श्रद्धा भूल कर सब्र गंवा कर एक
भक्त यूनियन के तर्ज़ पर आचरण करने लगे।
जिसके पूजने से मानवीय मूल्य ही न बचें न उनका विकास हो तो ऐसे पूजन को मैं
पाखण्ड ही कहूँगा।
ऊपर
जो कथा मैंने ग्राम देवता डीह बाबा के बारे में सुनाई है, वह सिर्फ इस लिए कि आस्था और विश्वास
को तर्कों से नहीं तय किया जा सकता. शंकराचार्य सनातन धर्म परम्परा में सर्वोच्च
स्थान पर है. यह धर्म के चार पीठों का एक मंडल है. बद्रिकाश्रम, द्वारिका, पुरी, और कांची काम कोटि. इस शंकराचार्यों के अतिरिक्त एक सुमेरुपीठ काशी
है. लेकिन काशी पीठ अभिशप्त मानी गयी है. इस प्रकार चार ही शंकराचार्य है. लेकिन
इस समय तीन है. बद्रिकाश्रम और द्वारिका पीठ के ही शंकराचार्य हैं. जो स्वामी
स्वरूपानंद हैं . स्वरूपानंद एक प्रखर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रह चुके हैं. वह
आज़ादी के आन्दोलन में 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के दौरान जेल भी
जा चुके है. सारे शंकराचार्य धर्म शास्त्र, दर्शन
आदि के प्रकांड विद्वान् भी होते हैं. ब्रिटिश काल से ही सभी चार शंकराचार्यों का
प्रोटोकोल भी निर्धारित है. और यह आज भी उनके भ्रमण के दौरान निभाया जाता है. पर
कई शंकराचार्य इसे लेने से मना कर देते है. शंकराचार्यों की व्यवस्था, उनका आचार कर्तव्य दायिरव आदि सब निर्धारित है. यह सब निर्धारण
आदि शंकराचार्य के ही समय में हो ग्या था.
रहा
सवाल भगवान् घोषित करने और मंदिर बनाने का तो, हमने
तो क्रिकेट में भी भगवान घोषित कर लिया है, और
शायद कहीं उनका मंदिर भी बना हो तो आश्चर्य नहीं. धोनी का तो मंदिर रांची में बन
ही गया होता, अगर उनके घर वाले आपत्ति न किये होते
तो. जिसे जो श्रद्धा हो जिसकी श्रद्धा हो पूजे, इस
पर कोई ऐतराज़ नहीं है. लेकिन सनातन धर्म के शास्त्रीय विधान से स्वरूपानंद ने अपनी
व्यवस्था दी है. जिसे इस शास्त्रीय रूप और उनके कथन पर आपत्ति हो वह उन्का उत्तर
दे. सारे संत जिन्हीने समाज को कुछ न कुछ दिया है, उनका यह समाज ऋणी है, और
उन पर श्रद्धा रखता है. साईं भी एक संत थे. और संतों की जाति भारतीय परंपरा में
नहीं पूछी जाती. कहा भी गया है, जाति
न पूछो साधु की !!
-vss.
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