..
केजरीवाल के धरने को अराजक न कहिये . यह एक अहिंसक और आजमाई हुयी रण नीति ही थी . सिर्फ इस पर हम यह कह सकते हैं कि क्या सरकार का प्रमुख रहते हुए उन्हें धरना देना चाहिए था या नहीं. इस पर कई मत आयेंगे. और सब के भिन्न भिन्न मत भी हो सकते हैं.
लेकिन जो राज . सुराज या स्वराज हम झेल रहे हैं . इस तरह की अराजक कार्यवाही उन्ही का परिणाम है. पुलिस में अत्यंत सामान्य मामलों में निलम्बन और स्थानान्तरण होते रहते हैं और आगे भी होंगे. इस परम्परा को पहले आसन्न जनरोष के त्वरित समाधान के रूप में देखा गया पर कालान्तर में यही अपवाद एक अघोषित नियम बन गया। राजनैतिक नेत्रित्व चाहे वह किसी भी दल का हो. इस विषय में उन सब का व्यवहार एक ही जैसा है . उत्तर प्रदेश हो या गुजरात. बंगाल हो या तमिलनाडु. कहीं पर भी पुलिस कर्मचारियों और अधिकातियों के निलंबन के स्पष्ट नियम नहीं लागू किये जाते. नेता जैसा चाहता है वैसा ही होता है. यहाँ तक कि आई पी एस अधिकारियों को भी राजनैतिक द्वेष वश निलंबन झेलना पडा है .ऐसा नहीं की विभागीय दंड नियमावली का अभाव है पर उन नियमों को लागू करने में किसी भी दल के नेतृत्व ने अपनी मंशा नहीं जताई। जब कि अन्य किसी भी विभाग में इस प्रकार तुनुक मिज़ाजी से कभी कोई निलम्बन नहीं किये जाते हैं वहाँ उन विभागों द्वारा आंदोलन किये जाने का भय भी रहता है कोई भी दंड अगर नियमों के अनुसार नहीं हों तो . ऐसे शासन को मैं अराजक ही कहूंगा.
उत्तर प्रदेश में पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी सपा और बसपा के दृष्टिकोण से ही देखी जाती है. ऊपर से जाति का एंगल अलग है. गुजरात में 25 पुलिस अफसर राजनैतिक दखल के चलते जेलों में बंद हैं. इनमें आई पी एस और डी जी स्तर के अधिकारी भी हैं. पुलिस अपने अधीन सभी रखना चाहते हैं. रखिये भी. पर जो भी करिए किसी नियम क़ानून के अंतर्गत करिए. अगर मध्ययुगीन शासन की मानसिकता से पुलिस का उपयोग होगा तो न सिर्फ जनता का पुलिस पर से भरोसा हटेगा बल्कि पुलिस बल का मनोबल भी गिरेगा. अपनी अत्यंत विपरीत क्षवि . अनेक आरोप प्रत्यातोपों के बावजूद भी पुलिस राज्य का वह तंत्र है जो सबसे अधिक काम करता है और हर संकट में आगे रहता है.
दोष इसमें भी कम नहीं है. पर दोषियों की सही पहचान और गुण दोष के आधार पर जब बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप या अन्य किसी पूर्वाग्रह के कार्यवाही होने लगेगी तो सुधार होगा. लगातार आरोप. बेहद तनाव पूर्ण ड्यूटी. कदम कदम पर राजनैतिक हस्तक्षेप. हर काम में बिना बात के राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा राय देना इस बल को और अकर्मण्य ही बनाएगा सोमनाथ भारती का थाने में जाना और जांच में हस्तक्षेप करना तो गलत था ही. पर एक मुख्य मंत्री की बात को गंभीरता से न लेना और उनकी बात को उड़ा देना भी सही नहीं था. एक तरफ जिद और दूसरी तरफ आधी सदी से अधिक राज का अहंकार. और इन सब के बीच में पिसता हुआ आम आदमी. यह स्थिति अराजक नहीं तो क्या है.
पूर्व प्रधान मंत्री वी पी सिंह की एक छोटी कविता है.
‘’ पैगाम तुम्हारा और पता उनका .
लिफ़ाफ़े की तरह मैं मुफ्त में फाड़ा गया .’’
दो सरकारों के अहंकार, जिद और अनिश्चयहीनता के कारण दिल्ली पुलिस ही पिटी. इस मामले में दिल्ली पुलिस का कितना दोष है यह तो पूरी जांच के बाद ही सामने आयेगा . लेकिन सी एम् का धरना . केन्द्रीय सरकार पर निशाना. क़ानून व्यवस्था हर हाल में बनाए रखने का पुलिस पर दबाव अंततः सब एक तरफ हो गया और सामने आ गया पुलिस लाठी चार्ज का आरोप ! निर्दोषों और मासूमों पर बर्बर लाठी चार्ज (?) पुलिस में दोष बहुत हैं. और यह सारे दोष समाज का प्रतिविम्ब ही है. यह कोई अवतारी दल नहीं है , उसी समाज से सारे आते हैं जहां ये दोष कभी कभी चतुरता भी समझे जाते हैं !.
लेकिन यह एक कुतर्क है. आप सब यही कहेंगे . आप की बात से सहमत भी हूँ. पर अगर क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए विधि प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करके पुलिस अपना दायित्व निभाती है तो भी दोषी और अगर चुप चाप सब कुछ होते हुए आँखे बंद कर ले तो अकर्मण्यता का दोष तो उस पर लगता ही है. पुलिस सुधार का यह आलम है की मा. सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों और निर्देशों के बाद भी इस विषय पर कोई प्रगति नहीं है. सारे राज्य , सारे दल और सारे राजनेता जो पुलिस को कोसते थकते नहीं हैं इस विषय पर मौन हो जाते हैं। यह विडम्बना है। एक योग्य , व्यावसायिक , निष्पक्ष और तेज़ पुलिस बल किसी भी दल , या सरकार को रास नहीं आती। सिर्फ सामान्य जन ऐसी पुलिस चाहते हैं।
दिल्ली में पुलिस राज्य के पास रहे या केंद्र के पास इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद ही निर्णय लेना चाहिए. लेकिन इस मामले को अनावश्यक रूप से अब लटकाना बिलकुल उचित नहीं है. कच्छप मनोवृत्ति से सरकारें भले राहत पा जाएँ लेकिन इसका असल खामियाजा देश ही भुगतेगा.
(विजय शंकर सिंह Rtd.IPS UP)
लेकिन जो राज . सुराज या स्वराज हम झेल रहे हैं . इस तरह की अराजक कार्यवाही उन्ही का परिणाम है. पुलिस में अत्यंत सामान्य मामलों में निलम्बन और स्थानान्तरण होते रहते हैं और आगे भी होंगे. इस परम्परा को पहले आसन्न जनरोष के त्वरित समाधान के रूप में देखा गया पर कालान्तर में यही अपवाद एक अघोषित नियम बन गया। राजनैतिक नेत्रित्व चाहे वह किसी भी दल का हो. इस विषय में उन सब का व्यवहार एक ही जैसा है . उत्तर प्रदेश हो या गुजरात. बंगाल हो या तमिलनाडु. कहीं पर भी पुलिस कर्मचारियों और अधिकातियों के निलंबन के स्पष्ट नियम नहीं लागू किये जाते. नेता जैसा चाहता है वैसा ही होता है. यहाँ तक कि आई पी एस अधिकारियों को भी राजनैतिक द्वेष वश निलंबन झेलना पडा है .ऐसा नहीं की विभागीय दंड नियमावली का अभाव है पर उन नियमों को लागू करने में किसी भी दल के नेतृत्व ने अपनी मंशा नहीं जताई। जब कि अन्य किसी भी विभाग में इस प्रकार तुनुक मिज़ाजी से कभी कोई निलम्बन नहीं किये जाते हैं वहाँ उन विभागों द्वारा आंदोलन किये जाने का भय भी रहता है कोई भी दंड अगर नियमों के अनुसार नहीं हों तो . ऐसे शासन को मैं अराजक ही कहूंगा.
उत्तर प्रदेश में पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी सपा और बसपा के दृष्टिकोण से ही देखी जाती है. ऊपर से जाति का एंगल अलग है. गुजरात में 25 पुलिस अफसर राजनैतिक दखल के चलते जेलों में बंद हैं. इनमें आई पी एस और डी जी स्तर के अधिकारी भी हैं. पुलिस अपने अधीन सभी रखना चाहते हैं. रखिये भी. पर जो भी करिए किसी नियम क़ानून के अंतर्गत करिए. अगर मध्ययुगीन शासन की मानसिकता से पुलिस का उपयोग होगा तो न सिर्फ जनता का पुलिस पर से भरोसा हटेगा बल्कि पुलिस बल का मनोबल भी गिरेगा. अपनी अत्यंत विपरीत क्षवि . अनेक आरोप प्रत्यातोपों के बावजूद भी पुलिस राज्य का वह तंत्र है जो सबसे अधिक काम करता है और हर संकट में आगे रहता है.
दोष इसमें भी कम नहीं है. पर दोषियों की सही पहचान और गुण दोष के आधार पर जब बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप या अन्य किसी पूर्वाग्रह के कार्यवाही होने लगेगी तो सुधार होगा. लगातार आरोप. बेहद तनाव पूर्ण ड्यूटी. कदम कदम पर राजनैतिक हस्तक्षेप. हर काम में बिना बात के राजनैतिक कार्यकर्ताओं द्वारा राय देना इस बल को और अकर्मण्य ही बनाएगा सोमनाथ भारती का थाने में जाना और जांच में हस्तक्षेप करना तो गलत था ही. पर एक मुख्य मंत्री की बात को गंभीरता से न लेना और उनकी बात को उड़ा देना भी सही नहीं था. एक तरफ जिद और दूसरी तरफ आधी सदी से अधिक राज का अहंकार. और इन सब के बीच में पिसता हुआ आम आदमी. यह स्थिति अराजक नहीं तो क्या है.
पूर्व प्रधान मंत्री वी पी सिंह की एक छोटी कविता है.
‘’ पैगाम तुम्हारा और पता उनका .
लिफ़ाफ़े की तरह मैं मुफ्त में फाड़ा गया .’’
दो सरकारों के अहंकार, जिद और अनिश्चयहीनता के कारण दिल्ली पुलिस ही पिटी. इस मामले में दिल्ली पुलिस का कितना दोष है यह तो पूरी जांच के बाद ही सामने आयेगा . लेकिन सी एम् का धरना . केन्द्रीय सरकार पर निशाना. क़ानून व्यवस्था हर हाल में बनाए रखने का पुलिस पर दबाव अंततः सब एक तरफ हो गया और सामने आ गया पुलिस लाठी चार्ज का आरोप ! निर्दोषों और मासूमों पर बर्बर लाठी चार्ज (?) पुलिस में दोष बहुत हैं. और यह सारे दोष समाज का प्रतिविम्ब ही है. यह कोई अवतारी दल नहीं है , उसी समाज से सारे आते हैं जहां ये दोष कभी कभी चतुरता भी समझे जाते हैं !.
लेकिन यह एक कुतर्क है. आप सब यही कहेंगे . आप की बात से सहमत भी हूँ. पर अगर क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए विधि प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करके पुलिस अपना दायित्व निभाती है तो भी दोषी और अगर चुप चाप सब कुछ होते हुए आँखे बंद कर ले तो अकर्मण्यता का दोष तो उस पर लगता ही है. पुलिस सुधार का यह आलम है की मा. सर्वोच्च न्यायालय के कई आदेशों और निर्देशों के बाद भी इस विषय पर कोई प्रगति नहीं है. सारे राज्य , सारे दल और सारे राजनेता जो पुलिस को कोसते थकते नहीं हैं इस विषय पर मौन हो जाते हैं। यह विडम्बना है। एक योग्य , व्यावसायिक , निष्पक्ष और तेज़ पुलिस बल किसी भी दल , या सरकार को रास नहीं आती। सिर्फ सामान्य जन ऐसी पुलिस चाहते हैं।
दिल्ली में पुलिस राज्य के पास रहे या केंद्र के पास इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद ही निर्णय लेना चाहिए. लेकिन इस मामले को अनावश्यक रूप से अब लटकाना बिलकुल उचित नहीं है. कच्छप मनोवृत्ति से सरकारें भले राहत पा जाएँ लेकिन इसका असल खामियाजा देश ही भुगतेगा.
(विजय शंकर सिंह Rtd.IPS UP)
No comments:
Post a Comment