दुर्गा शक्ति निलंबन प्रकरण में , मेरे एक मित्र जो अलग सेवा के हैं , ने मुझसे एक सवाल पूछा ,''क्या दुर्गा शक्ति अगर आई ए एस न होतीं और पी सी एस , या प्रोन्नति प्राप्त पी सी एस होतीं ,तो भी क्या आई ए एस संवर्ग इस निलम्बन को ले कर अपना विरोध जताता या गुस्से में रहता ?'' उनका सवाल ,आज अखबार में छपी एक खबर से प्रेरित था , जिस में यह छपा है कि , इस निलंबन को लेकर आई ए एस एसोसिएशन गुस्से में है . इसका उत्तर जब तलाशने की कोशिश की गयी तो ,यह लगा कि शीर्ष सेवा , जैसा कि आई ए एस को माना जाना है , खुदगर्ज़ और अंध अहंकार से पीड़ित है .
दुर्गा शक्ति का निलंबन , राजनितिक माफिया गठजोड़ , का परिणाम है या प्रशासनिक अकुशलता का , इस विन्दु पर मैं कुछ नहीं कहना चाहूँगा क्यों कि .इस पर जो भी जानकारी मेरे पास है उनका श्रोत केवल अखबार ही हैं . पर यह भी सत्य है कि , दोनों ही स्थितियों में , निलंबन के लिए जो नियम सरकार ने बनाए हैं , उसका पालन नहीं किया गया है .
पर मैं यह ज़रूर कहूंगा की जब आप अन्य सेवा संवर्ग के विरुद्ध हो रहे सेवागत अन्याय और नियम विरुद्ध कार्यों को नज़रंदाज़ करते हैं तो आप, उन ताक़तों को प्रोत्साहित करते हैं जो उन्ही नियमों के विरुद्ध जा कर आप को भी दण्डित कर सकते हैं . और यह हो रहा है . .ऐसा नहीं है कि , जिस तरह नियमों की अवहेलना कर दुर्गा शक्ति का निलंबन किया गया है , वह उत्तर प्रदेश में पहली बार हुआ है .और आगे नहीं होगा . यह अलग बात है कि इस संवर्ग के साथ ऐसा शायद पहली बार हुआ है . आई पी एस / आई ऍफ़ एस / पी सी एस / पी पी एस / पी ऍफ़ एस , सहित अन्य राज्य संवर्ग की सेवा के अधिकारी ऐसे नियम विरुद्ध आदेशों को झेलते रहने के आदी हैं .आग अब जब शीर्ष सेवा तक पहुंची है तो खलबली का मचना स्वाभाविक है .आगे भी यही परम्परा चलेगी।
यह सारे नियम भंग शासन की जानकारी में होते हैं . और शासन में इन शीर्ष पदों पर आई ए एस संवर्ग के अधिकारी ही विराजमान रहते है .वे इन नियम भंग प्रकरणों में सहमत भले ही न हों ,पर उनका मौन कभी कभी अन्य सेवा संवर्ग के अधिकारियों के लिए हत मनोबल का कारण बन जाता है .
राजनितिक नेत्रित्व का अपना एजेडा होता है .उन्हें पांच साल सत्ता में रहने के बाद चुनाव में जनता के सामने जाना पड़ता है .और वे इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए , नियम तोड़ते ही नहीं हैं , बल्कि , अपने हित के लिए नियम विरुद्ध आदेश भी देते हैं . पर उन आदेशों की व्याख्या , और वे नियमानुकूल हैं या नहीं , इस पर विचार और टिप्पणी करने का दायित्व शासन में बैठे शीर्ष अधिकारियों का ही है .
ऐसा नहीं है कि अपने दायित्व का निर्वहन वे अधिकारी नहीं करते हैं , पर जो क्षरण नौकरशाही में हुआ है ,और हो रहा है ,उस के अनुसार अधिकतर अधिकारी नतमस्तक हो जाते हैं और कुछ तो इस अपराध में सहभागी भी रहते हैं .अगर आंकड़ें एकत्र किये जाएँ तो जितने मुकदमें अदालतों में सेवा नियमों के उल्लंघन के सम्बन्ध में निर्णीत होते हैं , उन में से अधिकतर में सरकार हार जाती है अक्सर सरकार को फजीहत भी झेलनी पड़ती है . इस से न सिर्फ अधिकारियों के मनोबल पर असर पड़ता है , अपितु, अनुशासन और सरकार के प्रति निष्ठा का भी क्षय होता है .जिसका परिणाम कार्य दक्षता पर पड़ता है .
जब नौकरशाही नियमों के उल्लंघन पर अपना ऐतराज़ जताने का अधिकार गिरवी रख देगी या छोड़ देगी तो राजनितिक वर्ग नियमों का उल्लंघन ही नहीं करेगा बल्कि अक्सर ऐसे आदेश / निर्देश देगा जिस से नौकरशाही अपना अस्तित्व और अस्मिता ही गंवा बैठेगी .संविधान ने अखिल भारतीय सेवाओं को सेवा नियमों के अंतर्गत जो अधिकार , और सरक्षण से दे रखे हैं वह निर्भीकता और निष्पक्ष कार्य करने के लिए हैं . न की राजनितिक वर्ग की अहं की तुष्टि हेतु , उनके नियम विरुद्ध आदेशों का साष्टांग अनुपालन के लिए .
आज तो दुर्गति , खराब क्षवि , साख का संकट , नौकरशाही को झेलना पड़ रहा है , वह अनावश्यक और अवैध राजनितिक हस्तक्षेप के कारण है साथ ही हमारी अपनी अति महत्वाकांक्षा और राजनितिक नेत्रित्व के निकट जाने की ललक भी है .
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